महिलाओं के भारी शुभचिंतक बनने की कोशिश कर रहे नेता

punjabkesari.in Sunday, Apr 11, 2021 - 04:04 AM (IST)

अब तक कोरोना के बावजूद इस बार असम, पं. बंगाल,केरल, तमिलनाडु, पुड्डचेरी आदि में चुनाव हुए हैं, हो रहे हैं। हर रोज नेताओं के तरह-तरह के बयान आ रहे हैं। पक्ष-विपक्ष शिकायतें ले-लेकर चुनाव आयोग की तरफ दौड़ता रहा है। हर कोई, और सबके सब अपने को सौ प्रतिशत सही बताते रहे हैं। लोकतंत्र की चिंता में दुबले होते हुए अनेक बार गैर-लोकतांत्रिक काम और बयानबाजी भी करते रहे हैं। बहुत से लोग चुनाव आयोग का मजाक उड़ाने के लिए फेसबुक पर इसे केंचुआ नाम से पुकारते हैं।

यह भी दिलचस्प है कि हर चुनाव में नेता, महिलाओं के वोट पाने के लिए हर तरह की जुगत भिड़ाने को तैयार रहते हैं। चुनाव के दौरान महिलाओं के हितों की याद जितनी आती है,वह चुनाव के बाद विस्मृति में चली जाती है। जब से महिलाएं वोट देने के लिए जागरूक हुई हैं, बड़ी संख्या में वोट देने लगी हैं। इनकी लम्बी-लम्बी लाइनें मतदान केंद्रों के बाहर नजर आने लगी हैं, तब से नेता इनके बड़े भारी शुभचिंतक बनने की कोशिश करने लगे हैं। क्योंकि बिहार में कुछ दिन पहले हुए चुनावों में अपनी जीत के लिए नीतीश ने महिला मतदाताओं पर काफी भरोसा जताया था और वह सही भी साबित हुए थे।

लेकिन यह जानकर-देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि जितनी महिला मतदाताओं की संख्या बढ़ी है, वे परिदृश्य में ज्यादा नजर आने लगी हैं, उतनी ही महिला नेताओं की आवाजें इन दिनों कम सुनाई दे रही हैं। वे एक तरह से परिदृश्य से गायब हैं। इन दिनों जिन महिला नेताओं की आवाज लगातार सुनाई देती रही है-वे हैं ममता बनर्जी, महुआ मोइत्रा और नुसरत जहां। ये सबकी सब तृणमूल कांग्रेस की नेता हैं। समाजवादी पार्टी की एक जया बच्चन जरूर हैं, जो ममता के लिए प्रचार करने गई हैं। बाकी और दलों की नेत्रियां कहां गईं। हां कभी-कभी प्रियंका गांधी, स्मृति ईरानी, रूपा गांगुली की आवाज जरूर सुनाई दे जाती है।

बंगाल में जिन वामपंथी दलों ने लम्बे अर्से तक शासन किया है, उनकी महिला नेताओं को क्या हुआ। वे कहां चली गईं। एक समय यानी कि 70-80 के दशक में वामपंथी दल स्त्री मुद्दों को प्रमुखता से उठाते थे। शाहबानो, सती, मथुरा रेप कांड के मामले में उन्होंने नेतृत्व किया था, लेकिन अब ये कहां गए। अपनी ही आवाजों पर क्या खुद उन्होंने विश्वास खो दिया। क्या आपको वह तस्वीर याद है, जब लोकसभा में बहुत से दलों की महिला नेत्रियों ने इकट्ठे होकर संसद में महिलाओं के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण की मांग की थी। प्रमिला दंडवते, मृणाल गोरे, सुमित्रा महाजन,सुषमा स्वराज, सरला माहेश्वरी, वृंदा कारत जैसी धुआंधार नेताओं का फिलहाल अभाव सही लेकिन अब भी नेता कोई कम तो नहीं हैं।

मायावती जैसी प्रखर दलित नेता, सोनिया गांधी, कनिमोझी, सुप्रिया सुले, प्रियंका चतुर्वेदी, कुमारी शैलजा आदि नेता तो आज भी हैं। इस चुनाव में ये इतनी मौन क्यों हैं। तमाम समाचार माध्यमों से भी ये नेता गायब क्यों हैं। इनकी जगह इनके दलों की प्रवक्ताओं ने क्यों ले ली है। क्या अपने देश से वे सारे मुद्दे खत्म हो गए, जिन पर इन महिला नेताओं को बोलना जरूरी था। जहां से भी ये महिलाएं चुनाव जीतती हैं, वहां इन्हें जिताने में महिलाओं का भी योगदान रहा होगा। उन्होंने भी इन्हें वोट दिया होगा। तब ऐसा क्यों है कि इतने राज्यों में चुनाव हैं और महिला नेताओं में एक लम्बा मौन पसरा है।

यहां तक कि चुनावी रैलियों में महिलाओं के खिलाफ जो भी अभद्र टिप्पणियां की गई हैं, उन बातों पर भी अक्सर इन्होंने मौन ही रहना उचित समझा है। आखिर ऐसा क्यों। बार-बार आधी आबादी की बात करना क्या मात्र जुमला भर है। या कि चुनावी भाषणों में माताओं, बहनों का सम्बोधन सुनकर ही सारी जरूरतें पूरी हो जाती हैं। अफसोस यह देखकर भी होता है कि शायद ही आज तक महिलाओं के रोजगार का मुद्दा किसी चुनाव में प्रमुखता से छाया हो। क्या सचमुच महिलाओं के मुद्दों का अकाल पड़ गया।

महिलाएं आखिर पिछलग्गू बनी रहने के लिए ही क्यों होनी चाहिएं। या कि सरपंच, विधायक या सरपंच पति की गति को प्राप्त होने को ही उन्होंने अपनी नियति मान लिया है। क्यों महिलाओं को कोई आवाज सिर्फ उनके वोट प्राप्त करने के लिए ही दे। इस बार कहीं यह भी सुनाई नहीं दिया कि महिलाओं के लिए काम करने वाले विभिन्न एन जी ओज ने महिलाओं के लिए अलग से मैनीफैस्टो बनाकर अलग-अलग दलों को सौंपा है। आखिर इस चुप्पी का राज क्या है।-क्षमा शर्मा


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