‘किसान आन्दोलन: न तुम जीतो न हम हारें’
punjabkesari.in Wednesday, Dec 23, 2020 - 04:13 AM (IST)
क्या किसान मजबूर है और खेती मजबूरी? यह प्रश्न बहुत ही अहम हो गया है। अब लग रहा है कि किसानों की स्थिति ‘उगलत लीलत पीर घनेरी’ जैसे हो गई है। बदले हुए परिवेश (सामाजिक व राजनीतिक दोनों) में वाकई किसानों की हैसियत और रुतबा घटा है। किसान अन्नदाता जरूर है लेकिन उसकी पीड़ा बहुत गहरी है। जब अन्नदाता ही भूख हड़ताल को मजबूर हो जाए तो सब कुछ बड़ा और भावुक सा लगने लगता है। एक ओर खेती का घटता रकबा बड़ा सवाल है तो दूसरी ओर बढ़ती लागत। घटते दाम से पहले ही किसान बदहाल, हैरान और परेशान है। स्थिति कुछ यूं दिखने लगती है कि खतरे में देख अपनी जान, खुद ही आत्महत्या कर किसान पहुंच रहा है मुक्ति धाम!
3-4 डिग्री सैल्सियस की कड़कड़ाती ठंड, ऊपर से हिमालय की तरफ से आती बर्फीली हवाओं ने दिल्ली सहित देश के काफी बड़े भू-भाग को जबरदस्त ठिठुरन में जकड़ लिया है। ऐसे में धीरे-धीरे महीने भर होने को आ रहे किसान आंदोलन और शरीर को तोड़ देने वाली ठिठुरन के बावजूद किसानों का न टूटना बता रहा है कि आन्दोलन राजनीति से कम किसानों के भविष्य की चिंताओं से ज्यादा प्रभावित है। सच भी है जब बात किसी की अस्मिता या अस्तित्व पर आ जाती है तो मामला न केवल पेचीदा बल्कि आर-पार का हो जाता है। लगता है किसान आन्दोलन भी समय के साथ-साथ कुछ इसी दिशा में चला गया है।
किसान आंदोलन को लेकर बीच का कोई रास्ता दिख नहीं रहा है क्योंकि न तो सरकार झुकने को तैयार है और न ही किसान। यह सही है कि 135 करोड़ की आबादी वाले भारत में लगभग 60 प्रतिशत आबादी के भरण-पोषण का जरिया खेती है। ऐसे में किसान अपनी उपज की खातिर एम.एस.पी., खेत छिन जाने का डर और बिजली जैसी समस्याओं से डरे हुए हैं। उनका डर गैर वाजिब नहीं लगता। लेकिन सरकार का भी अपने बनाए कानून को वापस लेना साख का सवाल बन गया है।
बात बस यहीं फंसी है। इस बीच देश की सर्वोच्च अदालत की सलाह भी बेहद अहम है। कुल मिलाकर आन्दोलन के पेंच को सुलझाने के लिए बीच का मध्य मार्ग बेहद जरूरी है। जिन तीनों कानूनों को लेकर आन्दोलन चल रहा है उसे होल्ड कर देने में भी सरकार की साख पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। वहीं किसानों को भी लगेगा कि उनके लिए एक रास्ता बन रहा है। इस बीच दोनों को समय मिल जाएगा और नए सिरे से बातचीत की संभावनाओं से भी नया कुछ निकल सकता है। इससे न तुम जीते न हम हारे वाली स्थिति होगी और रास्ता भी निकल सकता है। अब सवाल बस यही है कि कैसे इस रास्ते पर दोनों चलें?
हमें नहीं भूलना चाहिए कि जिस देश में ‘उत्तम खेती मध्यम बान, निषिद चाकरी भीख निदान’ का मुहावरा घर-घर बोला जाता था और किसानों की बानगी ही कुछ अलग थी। वहीं के किसान आसमान के नीचे धरती की गोद में सड़क पर लगभग महीने भर से बैठे हैं। सच है कि इन किसानों ने समय के साथ काफी कुछ बदलते देखा है। जहां नई पीढ़ी खेती के बजाय शहरों को पलायन कर मजदूरी को ही अच्छा मानती है वहीं जमीन के मोह में गांव में पड़ा असहाय किसान कभी अनावृष्टि तो कभी अतिवृष्टि का दंश झेलता है और कभी बावजूद भरपूर फसल के बाद भी उचित दाम न मिलने और पुराने कर्ज को न चुका पाने से घबराकर मौत का रास्ता चुनता है। ज्यादा फसल तो भी बेचैन, कम फसल तो भी बेचैन और सूखा-बाढ़ तो भी मार किसान पर ही पड़ती है। बस भारतीय किसानों की यही बड़ी विडंबना है।
सरकार चिंतित तो दिखती है, लेकिन किसानों को भरोसा नहीं है। किसानों के लिए बने तीनों कानूनों में कहीं न कहीं किसानों की समृद्धि का दावा तो सरकार कर रही है लेकिन इसमें किसान संगठनों को बड़ा ताना-बाना दिखता है जिसमें उनको अपने ही खेत-खलिहान की सुरक्षा और मालिकाना हक से वंचित कर दिए जाने का भय सता रहा है। कुल मिलाकर स्थिति जबरदस्त भ्रम जैसी बनी हुई है। किसानों के नाम पर हो रही सियासत से जख्मों पर मरहम के बजाय नमक लगने से आहत असल किसान बेहद असहाय दिख रहा है।-ऋतुपर्ण दवे
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