‘किसान आंदोलन : एक व्यावहारिक स्वीकार्य समाधान की जरूरत’

punjabkesari.in Friday, Jan 29, 2021 - 03:55 AM (IST)

किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन ने मोदी सरकार को बचाव की मुद्रा में ला दिया था। गणतंत्र दिवस पर हमारी राष्ट्रीय राजधानी के बीचों-बीच आंदोलन में आए हिंसक बदलाव ने सरकार को स्पष्ट रूप से बढ़त दिला दी। दोनों पक्षों को आवश्यक तौर पर ठहर कर स्थिति पर विचार करना चाहिए। दोनों को ही सभी चिंताओं बारे सावधानीपूर्वक एक व्यावहारिक स्वीकार्य समाधान सुनिश्चित करना चाहिए। सरकार किसानों की मांगों के आगे झुकना गवारा नहीं कर सकती। 

तीनों कृषि कानूनों को पूरी तरह से रद्द करना वैधानिक रूप से एक सशक्त सरकार को कमजोर दिखाएगा। इस संबंध में किसी समझौते पर पहुंचा जाना चाहिए। एक संभावित समझौता सरकार द्वारा प्रत्येक राज्य तथा केंद्र शासित प्रदेश में किसानों के प्रतिनिधियों के साथ तीनों कानूनों के लाभों तथा हानियों के बारे में चर्चा करना तथा केवल उन राज्यों में उन्हें लागू करने पर सहमत होना चाहिए जो उनके पक्ष में राय रखते हैं, संशोधन करके या किए बगैर। 

यह सुझाव एक अज्ञात पर्यवेक्षक द्वारा दिया गया है जो किसी समझौते की तलाश में है। संभवत: यह समाधान संभव नहीं है जिस कारण इसे खारिज कर अथवा भुला दिया जाएगा। मगर जो इस बारे में जानते हैं तथा किसी न्यायपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचने में सहायता कर सकते हैं उन्हें इस बाबत संकीर्ण विचारधारा से बाहर निकल कर विचार करना चाहिए। 

कैसे किसानों का एक छोटा-सा वर्ग अपने ही हितों को इतना नुक्सान पहुंचा सकता है? क्या वे तोड़-फोड़ करने वाले हैं, जैसा कि किसी पर्यवेक्षक ने किसानों बारे चेतावनी दी थी? और यदि वे पांचवां स्तम्भ थे तो क्या यह समूह ‘सिख्स फॉर जस्टिस’ के गुरपतवंत सिंह पन्नु की पैदावार है जो अमरीका में स्थित है मगर जिसका पंजाब के कुछ युवा अनुसरण करते हैं और परमात्मा माफ करे, क्या यह समूह उन लोगों द्वारा उत्पन्न किया गया जो नए कानूनों में रुचि रखते हैं और किसान संगठनों के बीच दरार पैदा करने का एक जरिया मानते हैं। 

किसान और यहां तक कि सरकार द्वारा अगला कोई भी कदम उठाने से पहले इन प्रश्रों का उत्तर देने की जरूरत है। यदि अपराधी मुख्य समूह का एक हिस्सा है जिन्होंने खुद को केवल इसलिए अलग करने का निर्णय किया क्योंकि उनके प्रतिष्ठित नेताओं के साथ मतभेद थे तो इसका समाधान खोजना काफी आसान होगा। 

यदि पांचवां स्तम्भ विदेश स्थित सिख संगठनों की पैदावार है तो प्रदर्शनकारियों तथा सरकार दोनों को ही बहुत धीरे-धीरे सतर्कतापूर्वक कदम आगे बढ़ाना होगा। खालिस्तानी आतंकवाद द्वारा राजनीति के शरीर पर दिए गए घाव अभी पूरी तरह से भरे नहीं हैं। इस मामले में बहुत देख-रेख तथा सावधानी बरतने की जरूरत है ताकि कोई गलत कदम न उठाया जा सके, विशेषकर सरकार द्वारा जो राष्ट्रविरोधी आंदोलन के लिए प्रोत्साहन के तौर पर काम करे। ऐसे असंतुष्ट तत्व हमेशा ही इस तरह के दुर्भावनापूर्ण संगठनों में शामिल होने को तैयार रहते हैं। 

भाग्य से मोदी सरकार के पास ऐसे संकट के समय में मार्गदर्शन करने के लिए अजीत डोभाल की सेवाएं उपलब्ध हैं। बदले में डोभाल के पास आंतरिक सुरक्षा के मामलों में सलाह देने के लिए सहायक दत्ता पाडसालगीकर की सेवाएं हैं। ये दो पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी संभावित खतरों के बीच अपने राजनीतिक बॉसिज को सही मार्ग दिखाने में पर्याप्त रूप से सक्षम हैं। 

आतंकवाद के फिर से लौटने का खतरा जीवंत है। किसान आंदोलन एक जीवंत, सक्षम अवरोध है जो इस संकट का नेतृत्व कर सकता है। इन पर अजीत डोभाल तथा दत्ता पाडसालगीकर जैसे सिद्ध मल्लाहों द्वारा नजर रखने की जरूरत है लेकिन यदि  अडिय़ल समूह को अधिकारियों का वरदहस्त प्राप्त है तो यह एक पूरी तरह से अलग खेल होगा। मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई खेल सफल होगा और मैं आशा और प्रार्थना करता हूं कि ऐसा कोई खेल न हो। मैंने महाराष्ट्र में अधिकारियों को देखा है जिन्होंने साम्यवादियों पर प्रभुत्व पाने के लिए गोपनीय रूप से शिवसेना को प्रोत्साहित किया। 

मैंने एक धार्मिक नेता की शह पर खालिस्तानी आतंकवाद का जन्म देखा है जिसे अकालियों को बेअसर करने के लिए केंद्र द्वारा आगे बढ़ाया गया है। मैं इस तरह की रणनीतियों की वकालत नहीं करूंगा। वे पलट कर वार जरूर करती हैं और बेहतर होगा, इनसे बचा जाए। अत: किसान नेताओं को जो पहला काम करना चाहिए वह यह कि इस तरह के हुड़दंग के दोषियों को सामने लाएं। ऐसा करना कठिन नहीं होना चाहिए। उनकी पहचान कैमरे तथा सी.सी.टी.वी. में पकड़ी गई है। पुलिस निश्चित तौर पर अब उनके पीछे होगी। यदि वे अपने खुद के समूहों से बगावत करके आए होंगे तो उनकी पुष्टि चित्रों से हो सकती है। 

यदि उन्हें विदेश स्थित संगठनों अथवा शत्रुवत सरकारों द्वारा तैनात किया गया होगा तो उनका पता लगाना अधिक कठिन होगा लेकिन अंतत: निश्चित तौर पर एक परिणाम पर अवश्य पहुंचा जाएगा और यहां जांच करने के मामले में सरकार एक बेहतर स्थिति में होगी। दरअसल सरकार ने पहले ही किसानों को ऐसे विदेशी तत्वों से संभावित गड़बड़ी बारे चेतावनी दी थी। स्वाभाविक तौर पर इस तरह की खुफिया जानकारी केवल अधिकारियों के पास ही उपलब्ध थी। 

हालांकि यदि हिंसा में शामिल ऐसे लोगों को अधिकारियों द्वारा तैनात किया गया था तो सच्चाई को सामने लाना लगभग असंभव होगा। टैलीविजन स्क्रीन्स पर पहले ही दीप सिद्धू नामक एक पंजाबी अभिनेता के चित्र सामने आ चुके हैं जो केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के काफी करीबी सम्पर्क में है, जिसने लाल किले में ध्वज स्तम्भ पर चढ़ कर तिरंगे को हटाने के बाद निशान साहिब लगा दिया। इस व्यक्ति का नाम लाल किले पर हुई ङ्क्षहसा को लेकर दिल्ली पुलिस द्वारा दर्ज एफ.आई.आर. में नहीं था। इस बात का अवश्य पता लगाया जाना चाहिए कि वह कौन था जिसने उसे ऐसा करने के लिए उकसाया। जब तक उसकी सही भूमिका के बारे में पता नहीं लगाया जाता, दंगों को लेकर सरकार की भूमिका के बारे में संदेह बना रहेगा ताकि वह अपनी पीठ से बोझ हटा सके। 

यदि इसमें कोई सरकारी विभाग शामिल है तो असल दोषियों को कानून के चंगुल में नहीं लाया जा सकेगा और आप उत्तर पूर्व दिल्ली के दंगों की जांच की पुनरावृति और उसके बाद प्रदर्शनों की शांतिपूर्ण प्रकृति में सेंध लगाने के लिए जिम्मेदार असल दोषियों की बजाय किसानों की गिरफ्तारी देखेंगे।-जूलियो रिबैरो (पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)
 


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