कश्मीर ‘राजनीतिक परीक्षण’ करने की ‘प्रयोगशाला’ नहीं

punjabkesari.in Wednesday, Aug 12, 2020 - 02:41 AM (IST)

सुरम्य कश्मीर की वेदना जारी है। जम्मू-कश्मीर के बारे में राजनीतिक भारत कलहपूर्ण, शोर-शराबे के दौर से गुजर रहा है। आज हर कोई जम्मू-कश्मीर राज्य को दो संघ राज्य क्षेत्रों लद्दाख और जम्मू-कश्मीर में विभाजित करने की वर्षगांठ पर इसके प्रभावों और परिणामों पर चर्चा कर रहा है। प्रश्न उठता है कि क्या मोदी सरकार ने राज्य के विकास, वहां सामान्य स्थिति की बहाली तथा आतंकवाद को समाप्त करने के अपने वायदों को पूरा किया है। 

यह सच है कि घाटी में बदलाव लाने के लिए एक साल पर्याप्त नहीं है क्योंकि जम्मू-कश्मीर में पिछले सात दशक से अधिक समय से हिंसा, कलह और अलगाव की भावना पनप रही है। राज्य में भारी सुरक्षा बंदोबस्त हैं। इसके अलावा विश्वास का अभाव है। पाकिस्तान घाटी में खून-खराबे को बढ़ावा देने में सहायता कर रहा है और घाटी के लोगों में धार्मिक कट्टरपन बढ़ा रहा है। साथ ही वहां के लोग राजनीतिक मांगें कर रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में अस्थिर स्थिति बनी हुई है। 

गत एक वर्ष में जम्मू-कश्मीर में तीन संवैधानिक प्रमुख बदले गए। राजनीतिज्ञ सतपाल मलिक, नौकरशाह मुर्मू और अब पूर्व मंत्री मनोज सिन्हा किंतु सरकार लोगों में स्वीकार्यता की भावना पैदा करने या जमीनी स्तर पर दृश्य अवसंरचनात्मक विकास करने में विफल रही है। एक वरिष्ठ सुरक्षा रणनीतिकार के शब्दों में- एक वर्ष के बाद हमारे पास लोगों को दिखाने के लिए कुछ भी नहीं है। हम सुरक्षा स्थिति और अवसंरचना विकास दोनों मोर्चों पर विफल रहे हैं। 

विचारणीय मुद्दा यह है कि क्या सिन्हा जम्मू-कश्मीर से धारा-370 समाप्त करने के बाद पैदा हुए राजनीतिक शून्य को भरने और लोगों के साथ राजनीतिक संवाद स्थापित करने, वहां पर राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने में सफल या नहीं? घाटी में आज भी अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है। वहां पर प्रशासन पंगु बनता जा रहा है जिसके चलते लोगों और प्रशासन के बीच खाई बढ़ती जा रही है। फलत: कट्टरवादी तत्व राजनेताआें से अधिक सक्रिय हैं। इसके अलावा घाटी के आतंकवादियों ने नवनिर्वाचित पंचायत नेताआें को निशाना बनाकर स्थिति को और जटिल बना दिया है। गत दशकों में कश्मीर हमारे राजनेताआें के लिए अपने राजनीतिक परीक्षण करने की प्रयोगशाला रहा है। 

वे वहां नित नए-नए राजनीतिक प्रयोग करते रहे हैं। पाकिस्तान की चालों को विफल करने में कुछ सफलता मिली है। सीमा पार आतंकवाद को समाप्त करने में हमारे सैनिकों ने साहस दिखाया है। हालांकि राज्य में विपक्ष और राजनेताआें में विरोध के स्वर पैदा हो रहे हैं जिसके चलते कश्मीरी लोगों में आक्रोश पैदा हो रहा है। 

गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि पूर्व जम्मू-कश्मीर राज्य में आतंकवाद का मुख्य कारण धारा-370 है और इसे समाप्त करने से आतंकवाद को समाप्त करने में सहायता मिलेगी किंतु यह बात गलत साबित हुई। इस वर्ष अब तक 181 आतंकवादी हमले हुए हैं जिनमें 98 आतंकवादी मारे गए हैं। आतंकवाद के साथ-साथ लोगों में कट्टरता बढ़ती जा रही है और आतंकवादी संगठनों में स्थानीय युवा भर्ती हो रहे हैं। लोगों में अलगाव की भावना बढ़ रही है। इसके साथ ही उनमें आक्रोश पैदा हो रहा है और आतंकवादियों को मारने से भी प्रशासन लोगों का विश्वास जीतने में सफल होते हैं नहीं हुआ है। 

पी.डी.पी. की पूर्व मुख्यमंत्री जो जून 2018 तक भाजपा के साथ गठबंधन सरकार की हिस्सा थीं, आज भी लोक सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत नजरबंद हैं। नैशनल कान्फ्रैंस के पिता-पुत्र अब्दुल्ला और सोज जैसे कांग्रेसी नेता को छोड़कर अधिकतर नेता नजरबंद हैं। पिछले सप्ताह उपराज्यपाल ने फारूक अब्दुल्ला द्वारा बुलाई गई सर्वदलीय बैठक की अनुमति नहीं दी जिसके चलते स्थानीय नेताआें, अलगाववादी नेताआें और दक्षिण कश्मीर के आक्रोशित युवाआें में नाराजगी बढ़ती जा रही है। सिन्हा को अपनी राजनीतिक कुशलता से इन समस्याआें का समाधान करना होगा और इसके लिए उन्हें सबसे पहले सभी संबंधित पक्षों से राजनीतिक संवाद कायम करना होगा, राजनीतिक प्रक्रिया में तेजी लानी होगी और राज्य में शीघ्र चुनाव करवाने होंगे। 

केंद्र ने राजनीतिक संस्कृति को नहीं छोड़ा जो पिछले 70 दशकों में कांग्रेस सरकारों ने अपनाई थी 
जम्मू-कश्मीर में एक निर्वाचित विधानसभा, मुख्यमंत्री अैर मंत्रिमंडल की आवश्यकता है जो राज्य के विकास को आगे बढ़ा सके। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि एक दल को बहुमत मिलता है या त्रिशंकु विधानसभा बनती है। साथ ही उन्हें राज्य में निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन की प्रक्रिया में भी तेजी लानी होगी। इसके लिए स्थानीय लोगों का सहयोग लेना होगा। केन्द्र सरकार के कदम बताते हैं कि उसने उस राजनीतिक संस्कृति को नहीं छोड़ा जो पिछले 7 दशकों में कांग्रेस सरकारों ने अपनाई थी। सरकार राज्य में एक तीसरा राजनीतिक मोर्चा पैदा करना चाहती है जो भाजपा के साथ गठबंधन करे ताकि वह राज्य में सत्ता में आ सके। 

केन्द्र सरकार के लिए आज कश्मीर की नीति दुविधापूर्ण है। 2019 में अनुच्छेद-370 को समाप्त करने के बाद जो शांति और विकास का इन्द्रधनुष दिखाया गया था वह अब क्षितिज पर नहीं है। राज्य में विभिन्न स्तरों पर जारी संघर्ष को संवैधानिक बदलावों या आर्थिक पैकेज देने से नहीं सुलझाया जा सकता है। 

भारत के राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने के लिए मोदी को हर-संभव प्रयास करने होंगे और इस दिशा में धीरे किंतु निरंतर प्रयास जारी रहने चाहिएं। नि:संदेह सभी लोग चाहते हैं कि राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, मूल वंशीय आदि दृष्टि से कश्मीर का भारत में पूर्ण एकीकरण हो किंतु क्या कश्मीर शेष भारत के साथ मिलना चाहता है। केन्द्र और घाटी के बीच पैदा हुई खाई को भरना आवश्यक है। क्या कश्मीरी भारत का हिस्सा बनना चाहते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर आगे की राह दिखाएगा। तब तक भारत को धैर्य रखना होगा और एक नई सुबह की प्रतीक्षा करनी होगी।-पूनम आई. कौशिश
 


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