न्याय किया गया, एक नई ‘दिशा’ दिखाई गई

punjabkesari.in Tuesday, Dec 10, 2019 - 01:30 AM (IST)

भारत में बेटियों की दुर्दशा हो रही है। निर्भया, कठुआ, उन्नाव, मुजफ्फरपुर आदि की घटनाएं पहले ही कम हृदय विदारक नहीं थीं कि हैदराबाद में 28 नवम्बर को एक 23 वर्षीय पशु चिकित्सक दिशा का सामूहिक बलात्कार और उसके बाद उसे जिंदा जलाने की जघन्य घटना सामने आई और इस पर सम्पूर्ण देश भयाकुल है। किन्तु इस घटना में एक नया मोड़ तब आया जब चारों आरोपियों को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया। इस सफलता पर हैदराबाद के पुलिस आयुक्त ने कहा, ‘‘न्याय ने अपना कार्य कर दिया है।’’ और देश में भी कुछ लोगों को लगा कि न्याय मिल गया है। 

कुछ लोगों का मानना है कि जनता के समर्थन से किया गया यह त्वरित न्याय उचित है किन्तु कुछ लोग इस न्याय पर चिंता व्यक्त कर रहे हैं क्योंकि यह हमारे शिकायत निवारण तंत्र और न्याय प्रणाली की विफलता को रेखांकित करता है। इसके लिए हमारी पुलिस, न्यायपालिका और कानून निर्माता सभी दोषी हैं। इससे एक विचारणीय प्रश्न उठता है कि क्या अपराधों में जघन्यता के कारण जनता के धैर्य का बांध टूट रहा है और वे कह रहे हैं कि अपराधियों को मारो। यह सच है कि हमारे यहां बहुत अच्छे आपराधिक कानून हैं किन्तु इन अच्छे कानूनों का क्या करना जब वे त्वरित, समयबद्ध विचारणीय दंड सुनिश्चित न कर सकें। 

जरा सोचिए
दिसम्बर 2012 में निर्भया के साथ सामूहिक बलात्कार के दोषी लोग अभी भी न्याय की प्रतीक्षा में हैं। उनमें से एक सुधार गृह में तीन साल की सजा काटकर खुला घूम रहा है तो अन्य तीन की दया याचिका राष्ट्रपति के पास लम्बित है। 7 वर्ष तक न्याय न हो पाना यह हमारी सामूहिक विफलता को दर्शाता है कि हम अपराधों पर रोक और अपराधियों को दंडित करना सुनिश्चित करें। 

जून 2017 में भाजपा के एक पूर्व विधायक सेंगर द्वारा उन्नाव में एक 17 वर्षीय बालिका का अपहरण और बलात्कार किया जाता है। अप्रैल 2018 में सेंगर को गिरफ्तार किया जाता है और जुलाई 2019 में बलात्कार पीड़िता को एक ट्रक द्वारा गंभीर रूप से घायल किया जाता है। उच्चतम न्यायालय ने इस मामले को दिल्ली की एक अदालत में स्थानांतरित किया जहां पर इसकी सुनवाई अंतिम चरण में चल रही है। सेंगर जेल में है किन्तु उसके 3 सहयोगी जमानत पर हैं और 3 वर्ष से यह मामला खिंचता चला जा रहा है। 

जम्मू के कठुआ के एक गांव में एक 8 वर्षीय बालिका के साथ हुई घटना भी कुछ इसी तरह की है। उसके साथ गांव के एक मंदिर में बलात्कार किया जाता है और उसके बाद उसकी हत्या कर दी जाती है। आरोपियों में से 3 को आजीवन कारावास की सजा दी गई है और 3 अन्य को साक्ष्य मिटाने के आरोप में 5 वर्ष की सजा दी गई है। मई में बिहार के मुजफ्फरपुर में एक आश्रय स्थल में पूर्व विधायक ब्रिजेश ठाकुर और उसके सहयोगियों द्वारा अनेक अल्पवयस्क बालिकाओं के साथ यौन और शारीरिक हमले किए गए। 11 में से 10 आरोपी जेल में हैं किन्तु यह मामला भी न्यायालय में खिंचता चला जा रहा है। उन्नाव में एक अन्य बलात्कार पीड़िता का मामला विचाराधीन है। किन्तु उस पर एसिड अटैक किया गया और उसकी मौत हो गई और ऐसा कहा जा रहा है कि पुलिस आरोपियों को बचाने का प्रयास कर रही है। 

दांडिक कानूनों का उद्देश्य न केवल अपराधी को दंडित करना है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि भविष्य में दंड के भय से अपराध रुकें और इस मामले में हमारी न्यायिक प्रणाली विफल रही है। न्यायिक प्रणाली घेंघा की चाल से चलती है। इससे न तो पीड़ित को न्याय मिल पाता है और न ही यह भावी अपराधियों के लिए प्रतिरोधक का कार्य करती है। बलात्कार के विरुद्ध कानूनों को मजबूत बनाने के बावजूद यौन अपराध बढ़ते जा रहे हैं और देश में प्रत्येक 4 मिनट में एक बलात्कार हो रहा है। हर दिन अखबारों में बलात्कार, यौन उत्पीडऩ, पुलिस द्वारा उत्पीडऩ, परिवार द्वारा पीड़िता को चुप कराने की खबरें सुर्खियों में छाई रहती हैं और उसके बाद देश में सामूहिक मातम का माहौल बन जाता है। 

राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के अनुसार देश में प्रत्येक वर्ष यौन अपराधों के 39 हजार मामले होते हैं। प्रत्येक मिनट में बलात्कार की 5 घटनाएं होती हैं और प्रत्येक एक घंटे में एक महिला की हत्या होती है। संयुक्त राष्ट्र के एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व में महिलाओं के लिए असुरक्षित देशों की सूची में भारत का 85वां स्थान है। हैरानी की बात यह है कि प्रत्येक 10 हजार महिलाओं पर 6.26 बलात्कार के मामले सामने आते हैं। 

पुरुषों पर नहीं, महिलाओं पर मढ़ते हैं दोष
इसके अलावा हमारे समाज में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो यह सुनिश्चित करते हैं कि यदि पुरुष सीमा लांघते हैं तो उनके प्रति सहानुभूति रखने वाले मिल जाएंगे और महिलाओं पर दोष मढऩे लगेंगे। ऐसे विकृत समाज में महिलाएं और बालिकाएं असुरक्षित वातावरण में रह रही हैं जहां पर उन्हें एक सैक्स की वस्तु और पुरुष की कामेच्छा की तुष्टि की वस्तु माना जाता है और वे निरंतर संघर्ष करती रहती हैं। शायद इसका संबंध हमारे पितृ सत्तात्मक समाज और पुरुष प्रधान संस्कृति से भी है। 

महिलाओं को टू फिगर टैस्ट से गुजरना पड़ता है
बलात्कार की परिभाषा में केवल लिंग का प्रवेश शामिल है। इसमें यौन हमला, उत्पीडऩ आदि का उल्लेख नहीं है। आज भी राजस्थान में बलात्कार की पुष्टि करने के लिए अस्पताल में महिलाओं को टू फिगर टैस्ट से गुजरना पड़ता है हालांकि इस पर 2013 में प्रतिबंध लगा दिया गया था। जो व्यक्ति महिलाओं के साथ छेड़छाड़ करते हैं उनके विरुद्ध केवल महिलाओं का अपमान करने या शील भंग करने या उनकी एकांतता का अतिक्रमण करने वाली धाराएं लगाई जाती हैं। 

2015 के कानून में पीड़ितों को 3 लाख रुपए के मुआवजे का प्रावधान किया गया है किन्तु 50 ऐसे मामलों में से केवल 3 को यह मुआवजा मिल पाया है। बलात्कार की पीड़ितों के प्रति पुलिस का भी उदासीन रवैया रहता है। उसकी जांच लचर रहती है। ये सब बताता है कि महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा के लिए समाज के रूप में हम अपने दायित्वों का पालन नहीं कर रहे हैं। 

तेलंगाना की घटना ने एक नई दिशा दिखाई है और इससे तीन उद्देश्य पूरे होंगे। पहला, इससे जनता का आक्रोश शांत होगा। दूसरा, आरोपियों और दोषी बलात्कारियों को यह स्पष्ट संदेश दिया गया है कि पुलिस उनका भी यही हश्र कर सकती है और तीसरा, भावी अपराधों के लिए यह एक प्रतिरोधक का कार्य करेगा और उनमें यह संदेश जाएगा कि यदि वे कानून से बच भी जाएंगे तो पुलिस से नहीं बच पाएंगे। किन्तु एक लोकतंत्र में हम हमेशा कानून अपने हाथ में नहीं ले सकते हैं। इससे अव्यवस्था और अराजकता पैदा होगी। समय आ गया है कि पुलिस बलात्कार के मामलों की जांच में तेजी लाए और न्यायपालिका ऐसे मामलों को खींचने की बजाय उनकी तुरंत सुनवाई करे। महिलाएं तभी सुरक्षित रह सकती हैं जब समाज की सोच में बदलाव आए, अन्यथा ऐसी न्यायेत्तर सजाएं आम बनती चली जाएंगी। 

कुल मिलाकर ऐसे वातावरण में जहां पर देश में चारों ओर नैतिक पतन हो रहा हो हमें इस बात पर गंभीरता से सोचना होगा कि महिलाएं कब तक पुरुष के रूप में गिद्धों का शिकार बनती रहेंगी। हमें इस बात पर सोचना होगा : बलात्कार और अपराधीकरण आखिर कब तक?-पूनम आई. कौशिश
 


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