कानून और अपराध की ‘जुगलबंदी’

punjabkesari.in Saturday, Nov 07, 2020 - 04:21 AM (IST)

सामान्य नागरिक को जब प्रतिदिन वही कुछ  सुनने, पढऩे और देखने को मिले जो गैर-कानूनी है, न्यायिक व्यवस्था के खिलाफ है तो उसे सरल भाषा में कहा जाए तो वह नैतिक, पारिवारिक और सामाजिक तथा आॢथक मोर्चे पर गिरावट का प्रतीक है। बलात्कार, शोषण, मारपीट, हिंसा, धोखाधड़ी और इसी तरह की घटनाएं न केवल गैर-कानूनी हैं बल्कि कानून में उनके लिए कड़ी सजा का भी प्रावधान है। क्या कभी इस पर ध्यान गया है कि अपराध करना कुछ लोगों की आदत क्यों बन जाता है? असल में जब आपराधिक मानसिकता किसी परिवार या जिस समाज में वह रहता है उसके जीवन मूल्यों का हिस्सा बन जाए तो फिर अपराध करना वैसा ही हो जाता है जैसे कि भूख लगने पर खाना खा कर अपनी मूंछों पर ताव देना या डकार मारना। 

यह एक आम प्रवृत्ति है कि जब परिवार, समाज या फिर सरकार की तरफ से भी कोई नियम या कानून बनाया जाता है तो ज्यादातर लोगों की यही प्रतिक्रिया होती है : लो एक और कानून आ गया, हमें बताने चले हैं कि क्या करना है, पहले खुद तो इसे मानें, हमसे पूछ कर बनाया था, कोई हम पर अपनी मर्जी नहीं थोप सकता या फिर यह कि वैसे तो कानून में कोई कमी नहीं है लेकिन विरोधी पक्ष का होने के नाते हम इसे कतई नहीं मान सकते, चाहे कुछ भी हो जाए।

विरोध की आदत 
आगे बढऩे से पहले एक घटना का जिक्र जरूरी है ताकि समझा जा सके कि यह आदत नाम की चिडिय़ा है क्या? कुछ समय पहले एक कार्पोरेट संस्थान द्वारा अपने कर्मचारियों के लिए एक फिल्म बनाने का प्रस्ताव मिला। प्रबंधकों ने बताया कि उनके यहां फैक्टरी और दफ्तर में बड़ी संख्या में लोग समय पर नहीं आते और अगर कोई एक्शन लो तो लाल झंडा या फिर हड़ताल तक कर देते हैं। दूसरी बात यह कि कारखाने में कामगार लापरवाही से काम करते हैं और भारी नुक्सान करते हैं, चाहे वेतन काट लें, सजा दे दें, कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि यहां यूनियन बहुत ताकतवर है। बहुत सोचने के बाद फिल्म बनानी शुरू की और उसमें पहला सीन यह रखा कि सुबह के 9 बजे हैं लेकिन कोई काम पर नहीं आया, दूसरा सीन दस बजे का था और कुछ लोग काम पर आते दिखाए, इसके बाद ग्यारह बजे का सीन दिखाया जिसमें सभी कर्मचारी काम पर आते और अपनी ड्यूटी करते दिखे। 

इसके बैकग्राऊंड में यह कमैंट्री सुनाई 
हो सकता है कि आज आप देर से उठे हों, किसी घरेलू काम से कहीं जाना जरूरी हो, कोई मिलने आ गया हो या फिर किसी भी कारण से काम पर समय से यह सोचकर न पहुंच पाए हों कि जल्दी क्या है, चले जाएंगे- नौकरी तो पक्की है। लेकिन ध्यान रखिए कि कहीं काम पर देर से जाना आपकी आदत न बन जाए और कहीं ऐसा हुआ तो जीवन में आप सभी जगह देर से पहुंचेंगे जिसकी वजह से न केवल दूसरों से पीछे रह जाएंगे बल्कि हो सकता है कि आपका कोई बहुत बड़ा नुक्सान हो जाए। 

यह फिल्म रोज शूट होती और अगले दिन गेट पर दिखाई जाती। कुछ ही दिनों में लगभग शत-प्रतिशत लोग 9 बजे आने लगे। कारण था कि कोई भी निजी जीवन में पीछे नहीं रहना चाहता और यह समझ में आने लगा था कि देरी की आदत एक बार पड़ गई तो नुक्सान अपना ही होने वाला है। कोई भी कर्मचारी अब 10 या 11  बजे काम पर आता हुआ दिखाई देना नहीं चाहता था। अब दूसरी समस्या को हल करने के लिए एक ट्रेङ्क्षनग फिल्म बनाई जिसमें विस्तार से उत्पाद बनाने की प्रक्रिया दिखाई गई और उसे टी.वी. रूम में सब के देखने के लिए रख दिया। 

इसी के साथ इस संदेश वाली फिल्म सब को दी गई कि यदि आप की समझ में प्रोसैस न आए या कहीं अटक जाएं तो तुरंत काम बंद कर दें और इसके लिए आपसे न तो कुछ पूछा जाएगा और न ही प्रोडक्शन में कमी आने की जिम्मेदारी आपकी होगी। आपको बस यह करना है कि काम रोकने के बाद टी.वी. रूम में जाकर ट्रेङ्क्षनग फिल्म देखिए और समझिए कि आप क्या गलती कर रहे थे और फिर उसके अनुसार अपना काम कीजिए। फिर भी उत्पाद ठीक न बने तो अपने सुपरवाइजर को सूचित कर दीजिए और जब तक कि समाधान न निकले, कुछ मत कीजिए। इस फिल्म का असर यह हुआ कि प्रोडक्शन तो बढ़ा ही, साथ में सही क्वालिटी का भी बनने लगा। यह किस्सा सुनाने का अर्थ यह है कि कानून बनाने वाले कोई भी नियम बनाने से पहले यह सुनिश्चित नहीं करते कि उसके पालन करने में कोई दिक्कत तो नहीं आएगी, बस उसकी घोषणा कर देते हैं। 

गलती कहां है?
जिस देश में प्रधानमंत्री को चुनाव जीतने के लिए यह कहना पड़े कि उनकी पार्टी को वोट देने पर कोरोना की दवाई मुफ्त मिलेगी, बिना किसी ठोस योजना के लाखों लोगों को रोजगार देने का वायदा कर वोट बटोरने के लिए लालीपॉप दिया जाता हो, योग्यता की बजाय भाई-भतीजावाद, धन, बाहुबल और भ्रष्टाचार का बोलबाला हो तो वहां कानून को ठेंगा दिखाने का चलन तो होगा ही, अपराधियों का विधानसभा और संसद सदस्य बन जाना तो मामूली बात है ! नियम कानून की अनदेखी का परिणाम टैक्स चोरी, घटिया उत्पादन, असुरक्षित सामग्री और जान का जोखिम तो होता ही है, साथ में जहां से भी खरीदो वही सामान मिलता है जिसे बनाते समय क्वालिटी का नहीं ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने का ध्यान रखा जाता है। 

किसी भी कानून की अवज्ञा, उसका विरोध, आंदोलन या उसका कचरे की पेटी में फैंक दिया जाना और उसका इस्तेमाल केवल तब करना जब उससे किसी दल, सरकार या सत्ताधारियों का मतलब पूरा होता हो या आम जनता को अपनी ताकत का एहसास कराना हो, तब ही एेसे हालात बनते हैं जिनसे अराजकता फैलती है। बड़ा हो या छोटा कोई भी कानून हो, जैसे कि नोटबंदी, जी.एस.टी., नागरिकता से लेकर नए कृषि कानून की फजीहत या फिर टैक्स में राहत के नाम पर शिकंजे को और अधिक मजबूत करना, सामान्य व्यक्ति को यह लगना कि कानून या नियम अव्यावहारिक ही नहीं, अनैतिक भी है तो फिर अव्यवस्था तो होगी ही, कानून तोडऩा ही विकल्प बन जाएगा और तरक्की के रास्ते बंद होने की नौबत तो आएगी ही, एेसी हालत में या तो अपने को कोसने या फिर विद्रोह तक करने के अतिरिक्त  और कुछ उपाय बचता ही कहां है?-पूरन चंद सरीन
 


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