‘न्यायाधीशों को निष्पक्ष और उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए’

punjabkesari.in Thursday, Jan 07, 2021 - 04:43 AM (IST)

पिछले वर्ष भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की सेवानिवृत्ति के 4 महीने के बाद उनको राज्यसभा में नामित करने के उपरांत एक विवाद खड़ा हो गया था। एक हालिया अध्ययन ने इस तथ्य को प्रकट किया है कि 70 प्रतिशत से ज्यादा न्यायाधीश अपनी सेवानिवृत्ति के बाद नौकरियां तथा असाइनमैंट ले लेते हैं। 

यह ध्यान देने योग्य बात है कि ऐसा कोई कानून नहीं है जो किसी भी न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी देने से रोकता है। यह औचित्य तथा नैतिकता का सवाल है जबकि कुछ न्यायाधीशों ने अपनी सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी सरकारी नौकरी लेने से इंकार कर दिया। कुछ ऐसे भी हैं जो ऐसे प्रस्ताव स्वीकार कर लेते हैं जबकि वह अभी भी सेवा में होते हैं। 

चिंता का प्रमुख कारण नियुक्तियों को स्वीकार करने वाले पूर्व न्यायाधीशों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। विशेष रूप से जहां मुख्य न्यायाधीशों से सलाह लिए बिना सरकार सीधे नियुक्ति करती है। जस्ट्सि रंजन गोगोई का राज्यसभा में नामांकन इस तथ्य के कारण भी गंभीर आलोचना का विषय बना क्योंकि उन्होंने बतौर मुख्य न्यायाधीश के अपने कार्यकाल के अंतिम कुछ महीनों के दौरान सरकार के पक्ष में कुछ लगातार फैसले दिए। इसमें राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले का फैसला, बाबरी मस्जिद विध्वंस मामला और इसके अलावा 36 राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद की जांच की मांग वाली याचिका भी शामिल थी।

अपने बचाव में उन्होंने कहा था कि इन सभी निर्णयों को अन्य न्यायाधीशों के साथ बैठने के दौरान ही दिया गया था और इसे उनके नामांकन के साथ जोडऩे की बात अनुचित है। उन्होंने आगे कहा था कि नामांकन को स्वीकारने की बात पर जो आलोचना कर रहे हैं उन्हें पूर्व मुख्य न्यायाधीश के अनुपात में बेहतर समझदारी प्रदान करनी चाहिए। यदि कोई पूर्व मुख्य न्यायाधीश कुछ के लिए कुछ चाहता है तो वह राज्यसभा के लिए नामांकन नहीं बल्कि सुविधाओं के साथ बड़े आकर्षक पदों की तलाश कर सकता है। राज्यसभा में एक रिटायर्ड जज के समान ही लाभकारी लाभ होते हैं। 

हालांकि ज्यादातर सेवानिवृत्त न्यायाधीशों और वकीलों ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगोई के राज्यसभा के लिए नामांकित होने के लिए सराहना  नहीं की। ऐसा पहली बार है कि पूर्व न्यायाधीश ने राज्यसभा का नामांकन स्वीकार किया है। हालांकि इस तरह के नामांकन के लिए ऐसा पहली बार हुआ है। सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को न्यायाधिकरणों, मानवाधिकार आयोगों, सरकार द्वारा नियुक्त तदर्थ आयोगों, अदालत द्वारा नियुक्त समितियों, वाटर ट्रिब्यूनलों तथा राज्य स्तरीय भ्रष्टाचार विरोधी अधिकारियों या बतौर लोकायुक्त नियुक्त करना आम बात नहीं है। देश में राज्यों में लोकायुक्त तथा न्यायिक आयोगों जैसे कुछ ऐसे भी पद हैं जहां पर केवल सुप्रीमकोर्ट तथा हाईकोर्ट के न्यायाधीशों को नियुक्त करना अनिवार्य है। विवादास्पद नियुक्तियां वे हैं जहां पर न्यायाधीशों का पक्ष लिया जाता है जिन्हें आज्ञाकारी माना जाता है। 

भारत के प्रथम विधि आयोग ने अपनी 14वीं रिपोर्ट में सर्वसम्मति से सिफारिश की थी कि न्यायाधीशों को सरकार से सेवानिवृत्ति के बाद कोई पद स्वीकार नहीं करना चाहिए जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर स्वाभाविक प्रभाव को उजागर करता है। हालांकि इस सिफारिश का अनुसरण करने से ज्यादा अधिक बार उपहास किया गया है और यह वर्तमान सरकार के सत्ता संभालने से पहले भी होता रहा है। वर्तमान स्थिति के बारे में ङ्क्षचताजनक यह है कि उन न्यायाधीशों के लिए घोर पक्षपात लिया गया है जिन्होंने सरकार समॢथत निर्णयों को दिया है। वर्तमान में एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि नए न्यायाधीशों को नियुक्त किया जाता है जो किसी विशेष विचारधारा के लिए सहानुभूति रखने के लिए जाने जाते हैं। लम्बे समय में ऐसी बात तबाही मचा सकती है। 

यह सर्वविदित है कि न्यायाधीशों को न केवल निष्पक्ष और उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए बल्कि उन्हें संदेह से ऊपर भी देखा जाना चाहिए। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को किसी भी पद पर नियुक्त किए जाने से पहले कानून में संशोधन होना चाहिए। अधिकांश कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि न्यायपालिका की प्रतिष्ठा सहित सभी संबंधित लोगों के लिए लगभग 2 साल की अवधि का आराम का समय होना चहिए।-विपिन पब्बी
 


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