‘भारत में मुस्लिम होना आसान नहीं’

punjabkesari.in Sunday, Feb 28, 2021 - 04:15 AM (IST)

मैं आसानी से प्रभावित नहीं होता। मेरे पास उधार स्वाद हैं जो अक्सर मुझे पसंद करने के बारे में अनिश्चित छोड़ देते हैं। इसलिए यह अक्सर मुझे एक पुस्तक सम्मोहक लगता है। गजाला वहाब की किताब का नाम ‘बोर्न ए मुस्लिम’ है। उनमें से भारत मेें इस्लाम के बारे में सच्चाई निश्चित रूप से एक  है। कभी-कभी आत्मकथा अक्सर विश्लेषणात्मक, ठोस और इतिहास को रोशन करने वाली होती है। यह आपको बताता है कि एक भारतीय मुस्लिम होना कैसा है। 

वहाब बताती हैं कि ‘‘जब मैंने लिखना शुरू किया तो मैं साथी मुसलमानों को संबोधित करना चाहती थी और उन्हें बताना चाहती थी कि उन्हें मुल्लाओं से परे देखने और आधुनिकता को अपनाने की जरूरत है।’’ लेकिन जैसा कि वह जानती हैं कि भारत में सिर्फ कमजोर मुसलमान कैसे हैं और कितने भयभीत हैं। उनका नजरिया बदल गया। कोई एक कैसे कह सकता है कि लोग केवल जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें अपनी सोच, जीवन जीने के तरीके और धर्म के लिए उनके दृष्टिकोण को बदलने की आवश्यकता है। आप कह सकते हैं कि हमारे मुस्लिम भाइयों को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यह भी चुनौती है कि वहाब इसके प्रति प्रतिक्रिया देती हैं। 

वहाब की यात्रा तब शुरू हुई जब  उन्होंने लोगों को ‘मुस्लिम’ और ‘भारतीय’ में दो विशिष्ट पहचान का एहसास करवाया। भारत में एक मुसलमान होने के नाते इसका क्या मतलब है? लेकिन यह भी अंदर से अधिक देखने वाला एक प्रश्न है। क्या यह मुस्लिम होने और आगे की ओर देखने के लिए संभव नहीं है? यह पुस्तक ईमानदार है लेकिन दोनों के लिए परेशान कर देने वाले जवाब हैं। 

वहाब का मानना है कि बाहरी और आंतरिक ताकतें हैं जो मुस्लिमों को अपने चंगुल में रखती हैं। बाहरी सामाजिक, राजनीतिक भेदभाव है जिसका वे कानून निर्माता और उसको लागू करने वाले अधिकारियों के हाथों सामना करते हैं। यह अक्सर शारीरिक और मानसिक ङ्क्षहसा का कारण बनते हैं। यह सब कुछ उन्हें समान मौके और यहां तक कि न्याय से भी वंचित करता है। यह मुसलमानों को अपने स्वयं के आंकड़ों में सुरक्षा की तलाश करने के लिए मजबूर करता है और वे मुख्यधारा की परिधि में वापस चले जाते हैं जिससे आवास, शिक्षा और पेशे के मामले में उनकी पसंद सीमित हो जाती है। 

आंतरिक बल अशिक्षा, गरीबी और मुल्लाओं के असामयिक प्रभाव से उत्पन्न दुष्चक्र है। यह बड़ी गिनती में अशिक्षित रखता है और इसी कारण बेरोजगार होना पड़ता है। हम में से कितने लोग जो बाहर से मुसलमानों को देखते हैं इस बात को समझते हैं? शायद बहुत कम। हमारे शासक भी कम समझते हैं। यही कारण है कि मुस्लिम एक ही समय में राष्ट्रविरोधी और एक ही समय में तुष्ट होने का दोहरा बोझ ढोते हैं। 

वहाब खुलासा करती हैं कि दुनिया ऐसी है जिसमें एक दरवाजे के दूसरे हिस्से तक हम कभी नहीं चलते। यह एक बुरा सपना है। युवा मुसलमानों के बारे में वहाब लिखती हैं कि उनमें से हरेक ने भारतीय होने के नाते मेरे समान अधिकारों के साथ जन्म लिया। युवा मुस्लिम पुरुषों को अक्सर आतंकवाद विरोधी कानून या किसी अन्य आरोप के तहत अनिश्चितकाल के लिए उठाया या जिम्मेदार ठहराया जाता है। शोध दर्शाता है कि मुस्लिम युवकों को अब अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जन-जातियों दोनों की तुलना में काफी बुरा माना जाता है तो कई माताएं अपने बेटों को विदेश भेजना चाहती हैं। भारत में एक मुस्लिम लड़का या तो एक बदमाश होगा या उसे एक दंगाई के रूप में देखा जाएगा या फिर पुलिस द्वारा मार दिया जाएगा। 

कुछ गरीब बचने के लिए पलायन कर जाते हैं। हां यह सही शब्द है। वे ङ्क्षहदू होने का दिखावा करते हैं। वे अपना नाम बदल देते हैं और अपनी एक नई पहचान दे देते हैं। यदि मेरा नाम एक ङ्क्षहदू का होगा तो कोई भी मुझे परेशान नहीं करेगा। वहाब लिखती हैं कि वे धर्मांतरण के लिए तैयार हैं।  ‘मगर दिल में क्या है यह किसी को क्या पता?’ मुझे नहीं पता कि यह कितना सत्य है। मगर इससे क्या कोई फर्क पड़ता है? यहां तक कि यदि यह ऐसा है तो यह एक त्रासदी है जो हमें शर्मसार करती है। जब तक मैंने वहाब की किताब नहीं पढ़ी थी मुझे इसके बारे में पता नहीं था। 

एक और आयाम भी है। आप इसे उल्टा बुला सकते हैं। वहाब इसे लिखने में भी उतनी ही सटीक हैं। उदारवादी मुसलमान सिर्फ दो बुनियादों के बीच नहीं फंसे हैं बल्कि फटे हुए हैं। एक ओर रूढि़वादी या धर्मनिष्ठ उन्हें नापसंद करते हैं तो दूसरी तरफ हिदूं उन पर शक करते हैं तो उनके पास क्या विकल्प है? क्या वह अपने सिर को नीचा रखें और आशा करें कि उन्हें एक पक्ष लेने के लिए बुलाया नहीं जाएगा। फिर भी ये ऐसे लोग हैं जिन्हें उनकी चुप्पी के लिए आलोचना की जाती है। सच्चाई तो यह है कि भारत में मुस्लिम होना आसान नहीं है। बाहर की दुनिया और आपका अपना समुदाय दोनों आपको पीड़ा देते हैं। यदि आप समझना चाहते हैं कि या शायद मुसलमानों को उनकी आंखों से देखना चाहते हैं तो यह किताब आपको पढऩी चाहिए। यह प्रकाशित हो चुकी है।-करण थापर


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