लोक लुभावन बजट की उम्मीद न ही करें तो बेहतर

punjabkesari.in Wednesday, Jan 25, 2023 - 05:25 AM (IST)

बजट की घंटी बज गई है। अब तक ज्यादातर तैयारियां हो चुकी होंगी। सरकार और रिजर्व बैंक की तरफ से जो कुछ कहा जा रहा है, वह अर्थव्यवस्था की वाह-वाह वाला ही है। 9 बजटों में सूखा रहने के बाद भारतीय मध्य वर्ग इस बार सरकार से कर राहत समेत कई तरह के लाभ चाहता है और 9 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव सरकार को भी सख्ती न करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। इस वाह-वाह की खास बात यह है कि इस साल दुनिया की अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही है और अमरीका तथा यूरोप तक को होश नहीं है। पूरे कोरोना काल में मौज कर रहा चीन अब भारी संकट में है और उसकी अर्थव्यवस्था भी इस बार भारत से खराब हालत में रह सकती है। 

लेकिन सच्चाई का दूसरा पक्ष यह है कि खुद हमारी अर्थव्यवस्था के लिए एक अच्छी खबर आती है तो तीन बुरी खबर होती हैं। और इसके ऊपर यूक्रेन युद्ध के दुष्प्रभावों का खतरा टला नहीं है। फिर तेल की कीमतें अभी जिस स्तर पर हैं, उतने पर रुकी नहीं रहेंगी और सबसे बढ़कर यह कि भूमंडलीकरण के इस दौर में हम विश्व अर्थव्यवस्था के अच्छे-बुरे प्रभावों से अछूते नहीं रह सकते। इसका सबसे बड़ा प्रमाण हमारा गिरता निर्यात है क्योंकि दुनिया भर में मांग कम हुई है।

इधर यूक्रेन युद्ध की वजह से अनाज की मांग बढ़ी थी, जो अब वापस मंदी पर आ गई है। दूसरी तरफ हमारा आयात कम होने का नाम नहीं ले रहा और उसमें बहुत ज्यादा कमी की गुंजाइश नहीं रह गई। दिसम्बर 2022 के आंकड़े ही बताते हैं कि पिछले साल की तुलना में हमारा निर्यात 12 फीसदी कम हुआ है। तेल के आयात का बिल कम होने से आयात में भी तीन फीसदी की कमी आई है लेकिन चालू खाते का कुल व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है और जानकार मानते हैं कि यह जी.डी.पी. के 4.4 फीसदी तक जा सकता है। इसमें अगर केंद्र और राज्य सरकारों के राजकोषीय घाटे को जोड़ें तो यह 10-11 फीसदी तक चला जाएगा। 

अगर अर्थव्यवस्था इतने भारी घाटे में होगी तो सरकार को हाथ बांधने ही होंगे। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण चाहे जो बोलें लेकिन उनकी मुट्ठी अगर लगातार कसती जा रही है तो उसकी वजह यही है। जाहिर है ऐसे में हम उनसे मध्य वर्ग के लिए उदार या लोक लुभावन बजट की उम्मीद न ही करें तो बेहतर है। 

सरकार और वित्त मंत्री जरूर महंगाई के आंकड़ों में लगातार कमी से कुछ राहत महसूस कर रही होंगी। खास बात यह है कि अब थोक मूल्य सूचकांक भी काफी नीचे आया है, जो 15 फीसदी तक चला गया था। अब वह 5 फीसदी के नीचे आ गया है, जिसे कम तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह बेचैनी वाली हालत का संकेत नहीं देता। मगर अभी भी खुदरा मूल्य सूचकांक 6 फीसदी से ज्यादा नीचे नहीं है, जो खतरे का स्तर माना जाता है। इधर बैंक द्वारा सूद की दरें बढ़ाने से मुद्रास्फीति कम हुई है। यह अर्थव्यवस्था के लिए तो अच्छी सूचना है लेकिन सरकार के लिए बुरी। बुरी इस मायने में कि इससे रिजर्व बैंक की अपनी कमाई और बचत में भारी कमी आई है और उसका मुनाफा घटा है। इसके चलते वह सरकार को मोटा बोनस देने की स्थिति में नहीं होगा। 

सरकार ही नहीं, हम भी यह सोचकर खुश होते हैं कि यूक्रेन युद्ध ने उतना नुक्सान नहीं किया, जितने की आशंका थी लेकिन अभी भी वह क्या रुख लेगा, कहना मुश्किल है। यही हाल तेल की कीमतों का है। अगर यूरोप अमरीका के बाजार से मांग गायब है और वे भारी महंगाई से जूझ रहे हैं तो जल्दी हालत सुधरने की बात करना सपना हो सकता है। अमरीका तक ने बैंक दरों में बढ़ौतरी करके अर्थव्यवस्था पर जो बोझ लादा है, उससे बहुत जल्दी मुक्ति होगी और अर्थव्यवस्था जल्दी पटरी पर लौटेगी, यह कल्पना भी मुश्किल है। बल्कि इसके चलते हमारे शेयर बाजार से भारी मात्रा में पूंजी निकाली जा रही है। इसका दबाव हमारा रुपया भी झेल रहा है। मांग न होने से कारखानों का उत्पादन गिरा है। हमारी अर्थव्यवस्था में मजबूत चीजें दिख रही हैं (कृषि उत्पादन वगैरह) लेकिन यह सोच लेना कि मात्र इतने से हम दुनिया में सबसे आगे हो जाएंगे, तो ये मुंगेरीलाल के हसीन सपने ही हैं। उम्मीद यही करनी चाहिए कि वित्त मंत्री चुनावी वर्ष में लोक लुभावन प्रावधानों वाला बजट लाने की जगह खर्च बढ़ाने वाला बजट लाएंगी। 

सभी उम्मीद लगाए बैठे हैं कि वह खेती के साथ सेवा क्षेत्र के लिए कुछ बड़े कदमों की घोषणा करेंगी। सेवा क्षेत्र को बढ़ावा देना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्र उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे। बल्कि यह उम्मीद भी की जा रही है कि सेवा क्षेत्र का निर्यात वस्तुओं के निर्यात से ऊपर निकल जाएगा। दुनिया के अनाज और वस्तु व्यापार बाजार में हालात बेहतर होने से राहत महसूस की जा रही है लेकिन हमारे पड़ोस में पाकिस्तान और श्रीलंका जैसे देशों की जो हालत हुई है, वह भूलनी नहीं चाहिए। विश्व अर्थव्यवस्था अभी ऐसे ही नाजुक दौर में है। एक-दो गलत और बड़े कदम आपको पाताल में पहुंचा सकते हैं। इसलिए ऊंची-ऊंची बातें, बड़े दावे छोडि़ए, बजट से मतदाता को प्रभावित करने का हिसाब न लगाइए।-अरविन्द मोहन 
 


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