क्या मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर वैश्विक मुकाबले के सक्षम है

punjabkesari.in Wednesday, Sep 01, 2021 - 04:03 AM (IST)

देश के मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर पर ध्यान केंद्रित करने के लिए सितम्बर 2014 में ‘मेक इन इंडिया’ की पहल हुई। ‘वोकल फॉर लोकल’ की यह एक ऐसी पहल थी जिसने भारत के मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर को वैश्विक स्तर पर मुकाबले के लिए प्रेरित किया। मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर में न केवल देश के आर्थिक विकास को गति देने की अपार संभावना है बल्कि बड़े पैमाने पर रोजगार प्रदान करने की क्षमता भी है। 

‘मेक इन इंडिया’ की अगली कड़ी में पिछले वर्ष घोषित ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान का उद्देश्य आॢथक रूप से आत्मनिर्भर होने के लिए स्थानीय मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर को बढ़ावा देना है। पर पिछले कुछ समय में सरकार ने ऐसे कदम उठाए हैं जो भारत के निर्यात कारोबार को बढ़ाने में रुकावट हैं। सरकार ने हाल ही में वाॢषक निर्यात प्रोत्साहन राशि 50,000 करोड़ रुपए से घटाकर 10,000 करोड़ रुपए कर दी है। ट्रैक्टर जैसे कृषि उपकरण के निर्यात पर 3 प्रतिशत प्रोत्साहन घटाकर 0.7 प्रतिशत कर दिया गया है। इंजीनियरिंग वस्तु उद्योग की रीढ़ की हड्डी माने जाने वाले स्टील के बेलगाम दाम की वजह से उत्पादन लागत बढ़ी है, जिससे यह उद्योग वैश्विक बाजार में नहीं टिक पा रहा। 

पहली बार 1948 में वैश्विक निर्यात कारोबार में भारत की हिस्सेदारी 2.2 प्रतिशत के उच्चतम स्तर पर पहुंची थी, पर इसके बाद के 74 वर्षों में अभी तक 2 प्रतिशत के स्तर से नीचे बनी हुई है। वर्ष 2010 से 2020 के बीच भारत से हुए निर्यात कारोबार की वैश्विक बाजार में हिस्सेदारी 1.5 से 1.7 प्रतिशत के बीच बनी हुई है। वहीं 1980 के दशक से वैश्विक निर्यात बाजार में दस्तक देने वाले चीन ने 2010 से विश्व निर्यात कारोबार में 10.3 से 13.8 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ कई बड़े विकसित देशों पर बढ़त बनाई हुई है। आयात पर हमारी बढ़ती निर्भरता के चलते 2008-09 में आयात-निर्यात के बीच 100 अरब डॉलर का अंतर 2018-19 में बढ़कर 184 अरब डॉलर रहा। 

2020-21 में 291.2 अरब  अमरीकी डॉलर निर्यात कारोबार की तुलना में भारत का 2021-22 के लिए 400 अरब डॉलर निर्यात कारोबार लक्षित है। यह महत्वाकांक्षी लक्ष्य पूरा होता है तो देश में बहुप्रतीक्षित आॢथक बदलाव पटरी पर लौट आएगा। विदेशों में भारत के निर्मित माल की मांग बढऩे से घरेलू बाजार में भी छाई सुस्ती दूर हो सकेगी। 

चीन के मुकाबले कहां खड़ा है भारत : मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर में भारत और चीन की अपनी क्षमताएं हैं। 3 ट्रिलियन अमरीकी डॉलर का चीन का मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर भारत से 10 गुना बड़ा है, जो चीन के 10 साल के परिवर्तनकारी अभियान ‘मेड इन चाइना 2025’ का हिस्सा है। इस अभियान में चीन अपने मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर को श्रमिक प्रधान व्यवस्था से परे रोबोटिक्स और एयरोस्पेस जैसे अत्याधुनिक क्षेत्रों में आगे ले जा रहा है। इसके विपरीत भारत का लक्ष्य एक ऐसी अर्थव्यवस्था में श्रम-प्रधान मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर को आगे बढ़ाने का है, जहां लाखों नए रोजगार सृजित करने की सख्त जरूरत इसलिए भी है क्योंकि कोरोना महामारी के कारण पिछले 2 वर्षों में लडख़ड़ाई अर्थव्यवस्था ने देश में रोजगार सृजित करने के लक्ष्य को बुरी तरह प्रभावित किया है। इधर कोरोना महामारी के जनक चीन से आयात कारोबार पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए कई देश वैकल्पिक मैन्युफैक्चरिंग ठिकानों की तलाश में हैं। ऐसे में भारत इन देशों का पसंदीदा मैन्युफैक्चरिंग हब हो सकता है। 

‘मेक इन इंडिया’ की चुनौतियां : चीन ने निर्यात-उन्मुख दृष्टिकोण अपनाया और उच्च निर्यात क्षमता वाले उद्योगों को प्रोत्साहित किया, एस.ई.जैड और अन्य व्यापार-संबंधित बुनियादी ढांचे, जैसे बंदरगाहों, रसद और सिंगल-विंडो क्लीयरिंग सिस्टम पर ध्यान केंद्रित किया, जबकि भारत अभी तक श्रम कौशल का वांछित स्तर प्राप्त नहीं कर सका, जिससे यह निर्यात बढ़ाने में पूरी तरह से सक्षम नहीं है। भारत का कमजोर बुनियादी ढांचा (इंफ्रास्ट्रक्चर) भी मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर को अपेक्षित बढ़ावा नहीं दे पा रहा। हम अपने सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का सिर्फ 3 प्रतिशत बुनियादी ढांचे के निर्माण पर खर्च करते हैं, जबकि चीन के सकल घरेलू उत्पाद का 20 प्रतिशत इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च होता है। आज भी भारत की भूतल परिवहन प्रणालियां आधुनिक हाई-स्पीड लॉजिस्टिक्स अपेक्षाओं को पूरा नहीं करतीं, जो सक्षम मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर की रीढ़ है। अनियमित बिजली आपूर्ति भी एक बड़ी खामी है जिसका खामियाजा मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर भुगत रहा है। आज भी भारत में बिजली आपूर्ति और खपत के बीच 10 प्रतिशत से अधिक का अंतर है। 

मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर के लिए आगे क्या 
‘मेक इन इंडिया’ और आत्मनिर्भर भारत की सार्थक सफलता के लिए हमें आयात पर निभर्रता घटा कर निर्यात की ओर तेजी से बढऩा होगा। कोरोना महामारी के बाद से अमरीका-चीन व्यापार युद्ध की स्थिति में भारत के लिए अमरीका और अन्य देशों में निर्यात को तेजी से बढ़ाने का एक सुनहरा अवसर है। हालांकि भारत के उत्पादों ने वैश्विक बाजार में अपनी गुणवत्ता स्थापित कर ली है लेकिन दाम अभी भी प्रतिस्पर्धी नहीं हैं। 

तीन बड़े कारण भारत के निर्यात को बढऩे से रोक रहे हैं। पहला, मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर के लिए जरूरी कच्चे माल स्टील के दाम पर अंकुश जरूरी है। इंजीनियरिंग वस्तुओं के निर्यातक एम.एस.एम.ईज वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा से बाहर हो रहे हैं। हालांकि दुनिया में भारत लौह अयस्क के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है लेकिन मुट्ठी भर बड़ी कंपनियों का स्टील कीमतों पर एकाधिकार कायम है जबकि लौह अयस्क जैसे प्राकृतिक संसाधन का उपभोग करने का संवैधानिक अधिकार सभी को है। कम दाम पर स्टील की उपलब्धता के लिए सैकेंडरी स्टील का आयात बहाल करना जरूरी है। 

दूसरा, जी.एस.टी. लागू होने के बाद से निर्यातकों को बिजली शुल्क, पैट्रोलियम उत्पादों आदि पर शुल्क रिफंड नहीं हुए, जिसके रुकने की वजह से बढ़ी उत्पादन लागत की भरपाई हो। तीसरा, ड्राई पोर्ट से समुद्री पोर्ट तक रेल भाड़े न्यूनतम हों। समुद्री पोर्ट से दूर होने का खामियाजा दशकों से उत्तर भारत का मैन्युफैक्चरिंग सैक्टर भुगत रहा है।(सोनालीका ग्रुप के वाइस चेयरमैन, कैबिनेट मंत्री रैंक में पंजाब प्लानिंग बोर्ड के वाइस चेयरमैन)-अमृत सागर मित्तल
 


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