क्या सरकार ‘स्वतंत्रता’ के साथ खिलवाड़ कर रही है

punjabkesari.in Tuesday, Feb 25, 2020 - 04:14 AM (IST)

लोकतंत्र सिद्धांतों की प्रतिस्पर्धा की आड़ में हितों का टकराव है? और इस बात से हमारे नेता भलीभांति परिचित हैं, विशेष रूप से तब जब वे राष्ट्र विरोधी भाषणों पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं और ऐसी प्रतिक्रिया देते समय वे इस बात को ध्यान में रखते हैं कि किस पक्ष में उदारवादी हैं और किस पक्ष में अनउदारवादी हैं। पिछले माह कम से कम 4 बार ऐसा देखने को मिला और इससे हैरानी होती है कि राष्ट्रवाद का विरोध यकायक लोकप्रिय हो गया है? 

जरा सोचिए! अमूल्या लियोना जिसने ओवैसी की सी.ए.ए.-एन.आर.सी. विरोधी संविधान बचाओ रैली में तीन बार पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाया और उस पर देशद्रोह का मुकद्दमा दर्ज किया गया और उसे बेंगलुरू में 14 दिन के लिए जेल में डाल दिया गया। इसी तरह कवि सिराज बिसाराली को भी गिरफ्तार किया गया जिसने सरकार को अंग्रेजों के जूते चाटने वाली सरकार कहा जो गोऐबेल्स में विश्वास करती है और नागरिकों से दस्तावेज मांगती है।

भाजपा कार्यकत्र्ताओं ने इसे मोदी का अपमान बताया। इससे पहले ए.आई.एम.आई. नेता वारिस पठान के विरुद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई। उन्होंने कहा था हमें बलपूर्वक आजादी लेनी होगी। याद रखो हम 15 करोड़ हैं पर 100 करोड़ पर भारी हैं। उन्होंने यह बात एक सी.ए.ए. विरोधी रैली में कही थी। इससे पूर्व शरजील इमाम के विरुद्ध देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया था और यह मामला असम को भारत से अलग करने के लिए लोगों को उकसाने के लिए किया गया था। 

सरकार की आलोचना करने को राष्ट्रवाद विरोधी कैसे कहा जा सकता है?
प्रश्न उठता है कि क्या राष्ट्रवाद किसी आलोचना को उचित ठहराने का आधार हो सकता है? चाहे वे प्रत्येक भारतीय की स्वतंत्रता के प्रतीक क्यों न हों। किसी विश्वास या विचार की आलोचना करना घृणा फैलाने के समान कैसे हो सकता है? क्या केन्द्र और राज्य सरकारें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विरोध का दमन कर रही हैं? क्या वह हमें यह बताने का प्रयास कर रही हैं कि अमूल्या, बिसाराली, पठान और इमाम के उद्गारों को सहा नहीं जाएगा। सरकार की आलोचना करने को राष्ट्रवाद विरोधी कैसे कहा जा सकता है? क्या ऐसा कर लोकतंत्र के मूल्यों पर निर्मित राष्ट्र की अवधारणा का उपहास नहीं होता है? क्या हम ऐसे उद्गारों से इतने डरे हुए या असहिष्णु हैं कि उन्हें राष्ट्र, संविधान और सरकार के लिए खतरा मान लेते हैं? क्या सरकार सार्वजनिक जीवन में विचारों के टकराव से डरती है? क्या यह देशभक्ति की कसौटी बन गया है? क्या हम आलोचना स्वीकार करने की क्षमता खो चुके हैं और डर में जी रहे हैं? क्या यह एक संयोग है या प्रतिक्रियावादी देश का लक्षण है? क्या कोई बात किसी व्यक्ति की देशभक्ति की परीक्षा की कसौटी बन जाती है? 

क्या राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति का पाठ पढ़ाने का सरकार का यही तरीका है?
दूसरी ओर क्या कोई भारतीय अपने देश की उपेक्षा कर सकता है? क्या स्वयं को जेल में पहुंचाना इसका समाधान है? क्या राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति का पाठ पढ़ाने का सरकार का यही तरीका है? क्या हम ऐसे रोबोट पैदा करना चाहते हैं जो अपने नेताओं और उनके चेला-विचारकों की कमांड के अनुसार कार्य करें। अमूल्या और उन जैसे लोगों के भाषण उचित नहीं थे किन्तु किसी भी तरह उन्हें देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए था क्योंकि देशद्रोह के मामले केवल ऐसे जघन्य अपराधों में दर्ज किए जाते हैं जहां पर राज्य की वैधता को खतरा पहुंचाने के लिए हथियार उठाए जाते हैं। 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम राष्ट्रवाद के व्यापक मुद्दे पर विचार किया जाना चाहिए
वस्तुत: किसी भी व्यक्ति को तब तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है जब तक वह हिंसा की धमकी नहीं देता या ङ्क्षहसा नहीं करता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम राष्ट्रवाद के व्यापक मुद्दे पर विचार किया जाना चाहिए। किसी भी व्यक्ति को लोगों और समाज में घृणा फैलाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए चाहे वह हिन्दू कट्टरवादी हो या मुस्लिम अतिवादी क्योंकि दोनों ही राष्ट्र को नष्ट करते हैं। साथ ही नेतागणों को भी ऐसे मामलों में आगे आकर राष्ट्रवाद पर उपदेश नहीं देना चाहिए और यहां तक कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने का समर्थन नहीं करना चाहिए। हमारा नैतिक आक्रोश चयनात्मक नहीं होना चाहिए, बल्कि उचित और समान होना चाहिए। ये लोग भूल जाते हैं कि वे आग से खेल रहे हैं। ऐसा करके ये लोग देशद्रोह और देशभक्ति के बीच टकराव पैदा कर रहे हैं जिसमें लोकतंत्र के बचे रहने का कोई अवसर नहीं है। 

देशद्रोह एक महामारी शब्द बन गया है
ऐसे दौर में जहां पर राजनीतिक रूप से सही रहना उचित माना जाता है वहां पर देशद्रोह एक महामारी शब्द बन गया है। नि:संदेह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान द्वारा हमें प्रदत्त की गई है और इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। इसकी रक्षा की जानी चाहिए किन्तु स्वतंत्रता के नाम पर इसका दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए। ये अधिकार असीमित अधिकार नहीं हैं। उनकी कुछ सीमाएं हैं। वाद-विवाद करने के अधिकार और आतंकवाद का समर्थन करने के बीच एक पतली रेखा है। बौद्धिक स्वतंत्रता के नाम पर लोगों को पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाने या राज्य के विरुद्ध काम करने वाले लोगों को सम्मानित करने के लिए बैठक करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। 

नेहरू ने देशद्रोह कानून को आपत्तिजनक और अनावश्यक बताया था
भारत तेरे टुकड़े होंगे, भारत तेरे टुकड़े होने तक जंग जारी रहेगी, भारत की बर्बादी तक, भारत मुर्दाबाद, कश्मीर मांगे आजादी, कितने अफजल मारोगे, हर घर में पैदा होगा एक अफजल, अफजल बोले आजादी, छीन के लेंगे आजादी आदि नारों को उचित नहीं कहा जा सकता है। हमें याद होगा कि बॉलीवुड अभिनेता शाहरुख खान को भारत में मुस्लिम होने के बारे में अपने विचार व्यक्त करने के लिए आड़े हाथों लिया गया था और उसके बाद उन्हें कहना पड़ा था कि उन्हें भारतीय होने पर गर्व है। उससे पहले एन.सी.आर.टी. की किताबों से अम्बेदकर के बारे में बनाए गए शंकर के कार्टूनों को हटा दिया गया था। हालांकि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देशद्रोह कानून को आपत्तिजनक और अनावश्यक बताया था। एक अरब से अधिक जनसंख्या वाले देश में इतने ही विचार भी होंगे और लोगों के मूल अधिकारों को कम नहीं किया जा सकता है। 

कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के विचारों को स्वीकार न करने के लिए स्वतंत्र है। एक व्यक्ति के लिए आपत्तिजनक बयान दूसरे के लिए सामान्य हो सकता है। न्यायालय भी इस अधिकार की रक्षा करते हैं जहां पर नागरिकों को अलग-अलग राय रखने, सरकार के कार्यों की आलोचना करने और न्यायालय के निर्णयों से असहमति जताने का अधिकार प्राप्त है। इसका उद्देश्य जनता में इसकी चर्चा करना होता है न कि इनकी उपेक्षा करना होता है। जिस तरह से देश में सहिष्णुता कम हो रही है वह भयावह है। हम भूल रहे हैं कि यदि व्यक्ति को स्वतंत्रता से वंचित किया गया तो समाज की स्वतंत्रता का भी दमन होगा। हमारे नेताओं को संकीर्णता से ऊपर उठना होगा क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन प्रणाली नहीं है यह एक ऐसा मार्ग है जिसमें सभ्य समाजों का विकास होता है और जिसमें लोग एक-दूसरे के साथ रहकर एक-दूसरे के साथ स्वतंत्रता, समानता तथा भाईचारे के आधार पर संवाद करते हैं। 

इस समस्या का समाधान क्या है?
फिर इस समस्या का समाधान क्या है? भड़काऊ भाषण दें या उनकी आवाज दबाएं? किसी भी व्यक्ति को हिंसा फैलाने या गलत बात कहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। उन्हें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि कोई भी राष्ट्र भौगोलिक इकाई से पहले दिलों और दिमागों का मिलन है। हमारे नेताओं को भी यह बात ध्यान में रखनी होगी कि विश्व भर के नेता उनके बारे में कही और लिखी गई बातों के बारे में कितने सहिष्णु हैं। इस संबंध में अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और इटली के पूर्व राष्ट्रपति बर्लुस्कोनी अच्छे उदाहरण हैं जिनका विश्व भर में खूब मजाक उड़ाया गया।

ब्रिटेन और फ्रांस में लोग अपने सांसदों की खूब आलोचना करते हैं। यह सच है कि हमें आक्रामक और विभाजनकारी भाषा को बिल्कुल नहीं सहना चाहिए। स्पष्ट रूप से संदेश दिया जाना चाहिए कि घृणा फैलाने वाले व्यक्ति को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और यदि वे ऐसा करते हैं तो उनकी सुनवाई का लोकतांत्रिक अधिकार समाप्त हो जाएगा।

सभ्य शासन व्यवस्था में ऐसी बातों के लिए कोई स्थान नहीं है। कुल मिलाकर आलोचना एक फलते-फूलते और मजबूत लोकतंत्र का लक्षण है किंतु साथ ही हमें ऐसी बातों और भाषणों से बचना चाहिए जो घृणा और संकीर्णता फैलाते हों। हमारे नेताओं को भी इस बारे में अधिक संवेदनशील होने की आवश्यकता नहीं है और उन्हें यह समझना होगा कि जो लोग आलोचना को आलोचना के स्वरूप में नहीं समझ पाते हैं वे लोकतंत्र को नष्ट करते हैं। आपकी क्या राय है?-पूनम आई. कौशिश
 


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