क्या कश्मीर का ‘अंतर्राष्ट्रीयकरण’ भारत के हित में है

punjabkesari.in Sunday, Oct 06, 2019 - 01:03 AM (IST)

क्या प्रधानमंत्री का अमरीका तथा संयुक्त राष्ट्र का दौरा एक ‘उल्लेखनीय’ सफलता थी या कश्मीर का अंतर्राष्ट्रीयकरण करना भारत के हित में नहीं था? यह एक कौतूहल भरा प्रश्र है तथा इसका उत्तर न तो पूरी तरह स्पष्ट है और न ही अविवादित। यद्यपि अधिकतर समीक्षक सहमत होंगे कि भाजपा द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर की गई बातें अकारण हैं। 

मैं 2 मुद्दों को अलग करके उत्तर दूंगा-भारत का इस बात पर जोर देना कि कश्मीर के दर्जे में बदलाव एक आंतरिक मामला है तथा संचार साधनों पर प्रतिबंध, हिरासतों तथा मानवाधिकारों को लेकर अंतर्राष्ट्रीय चिंता अनुचित है। अगर आप दोनों को अलग-अलग करके देखें तो आपके दौरे के कुल परिणाम की बेहतर समझ पर पहुंचने की सम्भावना है। कुछ अपवादों के साथ विश्व ने स्वीकार किया है कि भारत को कश्मीर के संवैधानिक दर्जे में बदलाव का अधिकार है तथा यह अन्य देशों द्वारा टिप्पणीकरने का मामला नहीं है। तुर्की तथा चीन द्वारा की गई आलोचना को इस तथ्य के आधार पर परिभाषितकिया जा सकता है कि वे पाकिस्तान के सहयोगी हैं। आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कंट्रीज कश्मीर कांटैक्ट ग्रुप द्वारा की गई तीखी टिप्पणी को सम्भवत: इसके57 सदस्यों ने भी गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया मगरअसहमति के 2 स्वर हैं जिनसे भारत को चिंतित होना चाहिए। 

सऊदी अरब व मलेशिया की भूमिका
पहला है सऊदी अरब। इसने आई.ओ.सी. कांटैक्ट ग्रुप के वक्तव्य का समर्थन किया है जिस कारण भारत के रियाद के साथ सुधर रहे संबंधों पर एक छोटा प्रश्र चिन्ह लग गया है। अन्य है मलेशिया। इसके प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने आम सभा को बताया कि भारत ने कश्मीर पर ‘हमला कर कब्जा कर लिया है।’ उन्होंने कहा कि इस कार्रवाई के जो भी कारण हों, ‘फिर भी यह गलत है।’ यह व्लादिवोस्तोक में मोदी के साथ एक लम्बी बैठक के महज कुछ सप्ताहों के बाद ही कहा गया। 

फिर भी मैंने यह निष्कर्ष निकाला है कि मोदी ने विश्व को राजी कर लिया है कि कश्मीर के दर्जे में बदलाव एक घरेलू मामला है न कि अंतर्राष्ट्रीय चिंता का मामला। संयुक्त राष्ट्र में मिली प्रतिक्रिया पर इमरान खान द्वारा सार्वजनिक रूप से प्रकट की गई निराशा तथा हताशा निश्चित तौर पर इस बिन्दू की पुष्टि करती है। हालांकि जब आप संचार प्रतिबंधों, हिरासतों तथा मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोपों के बारे में अंतर्राष्ट्रीय ङ्क्षचता की ओर मुड़ते हैं तो यह एक अलग कहानी है। 

पश्चिमी मीडिया द्वारा आलोचना
यह पश्चिमी मीडिया के लिए एक प्रमुख कहानी है तथा यह समरूप तथा निष्कपट रूप से आलोचनीय है। न्यूयार्क टाइम्स ने इसे ‘भारत की नादानी’ तथा ‘खतरनाक व गलत’ बताया है; गाॢडयन का कहना है कि यह ‘आग भड़काने वाला... चौंकाने वाला तथा जोखिमपूर्ण’ है; आब्जर्वर ने इसे एक ‘भारतीय तख्ता पलट’ की संज्ञा देते हुए कहा है कि ‘मोदी गलती करके फंस गए हैं’; जबकि वाशिंगटन पोस्ट ने दो-टूक कहा है कि मोदी का ‘दागी’ लोकतंत्र है। इस मामले में पश्चिमी सरकारें मौन नहीं हैं। ब्रिटिश विदेश मंत्री डोमिनिक राब ने कहा है कि ‘मानवाधिकार उल्लंघनों के आरोप अत्यंत ङ्क्षचताजनक हैं’, विदेशी मामलों के लिए यूरोपियन यूनियन की उच्च प्रतिनिधि फेडेरिका मोघेरिनी ने भारत से ‘कश्मीर में लोगों के अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं को बहाल’ करने को कहा है। यद्यपि सर्वाधिक मुखर अमरीका था। 

दक्षिण एशिया के लिए कार्यवाहक सहायक सचिव एलिस वैल्स ने कहा कि ‘अमरीका व्यापक हिरासतों... तथा जम्मू-कश्मीर के निवासियों पर प्रतिबंधों को लेकर ङ्क्षचतित है।’ हालांकि व्हाइट हाऊस ने इतनी बेरुखी नहीं दिखाई। इसने दावा किया कि न्यूयार्क में मोदी के साथ बैठक में ट्रम्प ने ‘उन्हें पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने तथा कश्मीरी लोगों का जीवन बेहतर बनाने का अपना वायदा पूरा करने के लिए प्रेरित किया।’ 

पाकिस्तानी आतंक पर ट्रम्प का समर्थन नहीं
मैं एक कदम और आगे जाऊंगा। पाकिस्तान आधारित आतंकवाद के मुद्दे पर मोदी को ट्रम्प का पूर्ण समर्थन नहीं मिला। ट्रम्प ने उनके ह्यूस्टन में दिए गए भाषण को ‘अत्यंत आक्रामक’ बताया। उनका मानना है कि पाकिस्तान नहीं, ईरान आतंकवाद का अभिकेन्द्र है। उनके लिए इमरान खान उतने ही अच्छे मित्र हैं, जितने कि नरेन्द्र मोदी। सबसे महत्वपूर्ण, जब पाकिस्तानी सेना द्वारा अलकायदा को प्रशिक्षित करने बारे इमरान खान की स्वीकारोक्ति संबंधी पूछा गया तो ट्रम्प ने इस मामले को यह कहते हुए टाल दिया कि उन्होंने इमरान को बोलते नहीं सुना। स्पष्ट तौर पर वह पाकिस्तान को उस तरह से जिम्मेदार ठहराना नहीं चाहते जैसे कि भारत चाहता है। 

तो इस सबका नतीजा क्या निकला? मुझे इस बात से इंकार करने में कठिनाई हो रही है कि कश्मीर का अंतर्राष्ट्रीयकरण हो गया है। इसकी शुरूआत वास्तव में अगस्त में सुरक्षा परिषद की अनौपचारिक बैठक के साथ हो गई थी। दूसरे, यद्यपि अधिकतर देशों ने कश्मीर के दर्जे में बदलाव की आलोचना नहीं की है, फिर भी वे इसे एक विवादित क्षेत्र मानते हैं। अंतत: यदि वे मानते हैं कि इसका समाधान द्विपक्षीय स्तर पर होना चाहिए, वे भारत को इसके लिए प्रेरित भी कर रहे हैं। अब बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि जब घाटी से शिकंजा हटाया जाता है तो क्या होता है।-करण थापर


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