आई.पी.एस. अधिकारी अपना कर्तव्य समझें

punjabkesari.in Tuesday, Jun 29, 2021 - 03:03 AM (IST)

मार्च 2010 में भोपाल में मध्य प्रदेश शासन की ‘आर.सी.वी.पी. नरोन्हा प्रशासन एवं प्रबंधकीय अकादमी’ ने आई.पी.एस. अधिकारियों के बड़े समूह को संबोधित करने के लिए मुझे आमंत्रित किया। वहां शायद पांच दर्जन आई.पी.एस. अधिकारी देश के विभिन्न राज्यों से आकर कोर्स कर रहे थे। मुझे याद पड़ता है कि वे सन् 2000 से 2008 के बैच के अधिकारी थे। आप सोचें कि ऐसा मैंने क्या अनूठा बोला होगा, जो उन्हें इतना अच्छा लगा? 

दरअसल, मैं शुरू से आजतक अपने को जमीन से जुड़ा जागरूक पत्रकार मानता हूं। इसलिए चाहे मैं आई.पी.एस. या आई.ए.एस. अधिकारियों के समूहों को स बोधित करूं या वकीलों व न्यायाधीशों के समूहों को या फिर आई.आई.टी., आई.आई.एम. या नैशनल यूनिवर्सिटी के छात्रों को, जो भी बोलता हूं, अपने व्यावहारिक अनुभव और दिल से बोलता हूं। चूंकि मैंने गत 40 वर्षों में कार्यपालिका, विधायिका व न्यायपालिका के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों के अनैतिक आचरणों को युवावस्था से ही निडर होकर उजागर करने की हि मत दिखाई है, इसलिए मैंने जो देखा और भोगा है वही मां सरस्वती की कृपा से वाणी में झलकता है।

हर वक्ता को यह पता होता है कि जो बात ईमानदारी और मन से बोली जाती है, वह श्रोताओं के दिल में उतर जाती है। वही शायद उन युवा आई.पी.एस. अधिकारियों के साथ भी हुआ होगा। उनके लिए उस दिन मैंने एक असमान्य विषय  चुना था: ‘अगर आपके राजनीतिक आका आपसे जनता के प्रति अन्याय करने को कहें, तो आप कैसे न्याय करेंगे?’ उदाहरण के तौर पर राजनीतिक द्वेष के कारण या अपने अनैतिक व भ्रष्ट कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए, किसी राज्य का मुख्यमंत्री किसी आई.पी.एस. अधिकारी पर इस बात के लिए दबाव डाले कि वह किसी व्यक्ति पर कानून की तमाम वे कठोर धाराएं लगा दे, जिससे उस व्यक्ति को दर्जनों मुकद्दमों में फंसा कर डराया या प्रताडि़त किया जा सके। 

ऐसा प्राय: सक्रिय सामाजिक कार्यकत्र्ताओं व राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ करवाया जाता है। पिछले कुछ वर्षों से देश के प्रतिष्ठित पत्रकारों पर भी इस तरह के आपराधिक मुकद्दमे कायम करने की कुछ प्रांतों में अचानक बाढ़-सी आ गई है। हालांकि हाल ही में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने देश के मशहूर पत्रकार विनोद दुआ पर हिमाचल प्रदेश में की गई एेसी ही एक गैर-जि मेदाराना एफ.आई.आर. को रद्द करते हुए 117 पन्नों का जो निर्णय दिया है, उसमें आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के विरुद्ध मुखर रहे मराठी अखबार ‘केसरी’ के संपादक लोकमान्य तिलक से लेकर आजतक दिए गए विभिन्न अदालतों के निर्णयों का हवाला देते  हुए पत्रकारों की स्वतंत्रता की हिमायत की है और कहा है कि यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत आवश्यक है। 

सवाल है कि जब मुख्यमंत्री कार्यालय से ही गलत काम करने को दबाव आए तो एक आई.पी.एस. अधिकारी क्या करे? जिसमें ईमानदारी और नैतिक बल होगा, वह अधिकारी एेसे दबाव को मानने से निडरता से मना कर देगा। चार दशकों से मेरी मित्र पुलिस महानिदेशक रही, महाराष्ट्र की दबंग पुलिस अधिकारी, मीरा बोरवांकर मुंबई के 150 साल के इतिहास में पहली महिला थी, जिसे मुंबई की क्राइम ब्रांच का संयुक्त पुलिस आयुक्त बनाया गया। फिल्मों में देख कर आपको पता ही होगा कि मुंबई अंडरवल्र्ड के अपराधों के कारण कुवि यात है। ऐसे में एक महिला को यह जि मेदारी दिया जाना मीरा के लिए गौरव की बात थी। अपने करियर के किसी मोड़ पर जब उसे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के निजी सचिव का फोन आया, जिसमें उसे इसी तरह का अनैतिक काम करने का निर्देश दिया गया तो उसने साफ मना कर दिया, यह कह कर कि मैं ऐसे आदेश मौखिक रूप से नहीं लेती। 

मुख्यमंत्री जी मुझे लिख कर आदेश दें तो मैं कर दूंगी। मीरा के इस एक स्पष्ट और मजबूत कदम ने उसका शेष कार्यकाल सुविधाजनक कर दिया। करियर के अंत तक फिर कभी किसी मु यमंत्री या गृह मंत्री ने उससे गलत काम करने को नहीं कहा। कोई आई.पी.एस. अधिकारी जानते हुए भी अगर ऐसे अनैतिक आदेश मानता है, तो स्पष्ट है कि उसकी आत्मा मर चुकी है। उसे या तो डर है या लालच। डर तबादला किए जाने का और लालच अपने राजनीतिक आका से नौकरी में पदोन्नति मिलने का या फिर अवैध धन कमाने का। पर जो एक बार फिसला फिर वह रुकता नहीं। फिसलता ही जाता है। अपनी ही नजरों में गिर जाता है। 

हो सकता है कि इस पतन के कारण उसके परिवार में सुख-शांति न रहे, अचानक कोई व्याधि आ जाए या उसके बच्चे संस्कारहीन हो जाएं। यह भी हो सकता है कि वह इस तरह कमाई अवैध दौलत को भोग ही न पाए। सी.बी.आई. के एक अति भ्रष्ट माने जाने वाले चॢचत निदेशक की हाल ही में कोरोना से मृत्यु हो गई। जबकि उन्हें सेवानिवृत्त हुए कुछ ही समय हुआ था। उस अकूत दौलत का उन्हें क्या सुख मिला? दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के 1972 बैच के आई.पी.एस. अधिकारी राजीव माथुर, जो आई.पी.एस. के सर्वोच्च पद, निदेशक आई.बी. और भारत के मुख्य सूचना आयुक्त रहे, सेवानिवृत्त हो कर आज डी.डी.ए. के साधारण लैट में रहते हैं। देश में आई.बी. के किसी भी अधिकारी से आप श्री माथुर के बारे में पूछेंगे तो वह बड़े आदर से उनका नाम लेते हैं। एक वरिष्ठ आई.पी.एस. अधिकारी ने तो उन्हें भगवान तक की उपाधि दी। 

आम जनता के कर के पैसे से वेतन और सुविधाएं लेने वाले आई.पी.एस. अधिकारी, अगर उस जनता के प्रति ही अन्याय करेंगे और केवल अपना घर भरने पर दृष्टि रखेंगे, तो वे न तो इस लोक में स मान के अधिकारी होंगे और न ही परलोक में। दुविधा के समय ये निर्णय हर अधिकारी को अपने जीवन में स्वयं ही लेना पड़ता है।भोपाल में जो व्यावहारिक नुस्खे उन आई.पी.एस. अधिकारियों को मैंने बताए थे, वे तो यहां सार्वजनिक नहीं करूंगा, क्योंकि वे उनके लिए ही थे पर जिन्होंने उन्हें अपनाया होगा उनका आचरण आप अपने जिले में अनुभव कर रहे होंगेे।-विनीत नारायण

 


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