सरकार का मजबूत तंत्र बन गईं जांच एजैंसियां

punjabkesari.in Thursday, Sep 22, 2022 - 04:19 AM (IST)

यह एक जाना-पहचाना तथ्य है कि सैंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वैस्टीगेशन (सी.बी.आई.), प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) तथा इंकम टैक्स (आई.टी.) जैसी जांच एजैंसियों का इस्तेमाल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को लक्ष्य बनाने के लिए किया जाता है। ये सभी एजैंसियां छापेमारी तथा संदेहास्पद व्यक्तियों को गिरफ्तार करने में जुटी हुई हैं। सत्ताधारी पार्टी के लिए जब किसी से कोई खतरा उत्पन्न होता है तो इन एजैंसियों का इस्तेमाल उन्हें दबाने के लिए किया जाता है। 

ऐसी एजैंसियां केवल राजनीतिक नेताओं को ही नहीं पकड़ती बल्कि इन्हें प्रमुख घोटालों को उजागर करने के लिए भी लगाया जाता है। मगर जब बात राजनीतिक नेताओं को लक्षित करने की होती है तो ऐसी एजैंसियों का चुनाव स्पष्ट हो जाता है। 

कांग्रेस के अंतर्गत यू.पी.ए. सरकार के अधीन सुप्रीमकोर्ट ने सी.बी.आई. को ‘पिंजरे का तोता’ की संज्ञा दी थी। यही नहीं सी.बी.आई. को उपनाम भी दे दिया गया था जिसे कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इन्वैस्टीगेशन कहा गया था। अब भारतीय जनता पार्टी के शासनकाल में इन एजैंसियों को सरकार का ‘दामाद’ कहा जाता है। एक समाचार पत्र द्वारा आयोजित जांच में एक आम धारणा पाई गई है। यह सुनिश्चित किया गया है कि यू.पी.ए. सरकार के 10 वर्षों के कार्यकाल के दौरान राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ 60 प्रतिशत से अधिक मामले सी.बी.आई. ने दर्ज किए और अब यह बात सामने आई है कि राजग के 8 वर्षों के शासन के दौरान ऐसे दर्ज मामलों में उछाल देखा गया और यह आंकड़ा 95 प्रतिशत को भी पार कर गया। 

यू.पी.ए. के कार्यकाल के दौरान सी.बी.आई. द्वारा जिन 72 राजनीतिज्ञों के खिलाफ जांच की गई उनमें से 29 लोग या तो कांग्रेस के थे या फिर द्रमुक जैसे अन्य सहयोगी दलों से संबंधित थे। हालांकि वर्तमान सरकार के अधीन लगभग सभी मामले राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ दर्ज किए गए। इनमें से भाजपा के 6 लोग ही शामिल हैं जिनके खिलाफ सी.बी.आई. जांच कर रही है। स्पष्ट तौर पर एजैंसियां इस समय अपना सारा ध्यान और ऊर्जा उन लोगों पर केंद्रित कर रही हैं जो सत्ताधारी पार्टी के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे हैं। प्रवर्तन निदेशालय का रिकार्ड भी बेहतर नहीं है। 2014 से इस जांच एजैंसी के मामलों में 4 गुणा वृद्धि पाई गई। इनमें से 95 प्रतिशत मामले विपक्षी नेताओं खासकर कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस तथा शरद पवार के नेतृत्व वाली राकांपा से संबंध रखने वालों के खिलाफ दर्ज हैं। 

देश की लम्बी न्यायिक प्रक्रिया को देखते हुए ऐसे मामले अपने अंजाम तक पहुंचने के लिए कितने ही वर्ष लगा देते हैं। ज्यादातर समय लोगों को सम्मन भेज कर तंग किया जाता है। उसके बाद अदालतों में तारीख पर तारीख मिलने से लोग और परेशान हो जाते हैं। मजेदार बात यह है कि इन एजैंसियों द्वारा की जा रही जांच उस समय मोड़ ले लेती है जब आरोपी बनाए गए नेता सत्ताधारी पार्टी में शामिल हो जाते हैं। यू.पी.ए. शासन के दौरान अनेकों ही मामले समाजवादी पार्टी तथा बहुजन समाज पार्टी के खिलाफ दर्ज किए गए मगर जब इन दोनों पाॢटयों के नेताओं ने कांग्रेस को समर्थन दे दिया तो ज्यादातर मामले या तो वापस ले लिए गए या फिर लटका दिए गए। 

वर्तमान सरकार के मामले में ऐसे अनेकों ही मामले सामने आए हैं। असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा शारदा घोटाले में पाए गए और उन्होंने 2014 से लेकर 15 तक जांच को झेला। मगर भाजपा में शामिल होने के बाद उनके खिलाफ कोई भी चार्ज नहीं लगाया गया। ऐसे ही तृणमूल कांग्रेस के पूर्व नेता शुभेंदु अधिकारी और मुकुल राय के साथ भी हुआ। ऐसी कई मिसालें हैं जिसमें किसी संबंधित नेता द्वारा सत्ताधारी पार्टी को ज्वाइन करने के बाद कोई भी ताजा घटनाक्रम देखा नहीं गया। 

मेरा कहने का मतलब यह है कि सभी राजनीतिक दल ऐसी एजैंसियों का इस्तेमाल अपने राजनीतिक लक्ष्यों को पाने के लिए करते हैं। वरिष्ठ अधिकारियों का इस्तेमाल एक तंत्र के रूप में किया जाता है। यू.पी.ए. तथा राजग में फर्क इतना है कि यू.पी.ए. ज्यादा सचेत थी। जबकि राजग अपने विशाल बल के उपयोग के द्वारा तीखे प्रहार कर रहा है। 

यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि ऐसी एजैंसियां जिन्हें कानून के अंतर्गत स्वायत्तता प्रदान है, वे लगातार ही सत्ताधारी पार्टी का एक मजबूत तंत्र बनती जा रही हैं। यहां तक कि अदालतें जिन पर कि अभियोग को देखने की जिम्मेदारी है वह भी राजनीतिक पक्षपात के कारण इन एजैंसियों का कान नहीं खींच रहीं। निश्चित तौर पर  यह व्यवहार ठीक नहीं जिस पर कि एक लोकतंत्र देश गर्व महसूस कर सके।-विपिन पब्बी
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News