भारतीयता नागरिकता है, जाति नहीं

punjabkesari.in Sunday, May 01, 2022 - 05:30 AM (IST)

कुछ दिन पहले कई समाचार पत्रों में एक सुर्खी पढ़कर मैं चौंक गया, जिसमें लिखा था कि ‘भारतीयता ही एकमात्र जाति है’। यह उस समाचार की सुर्खी थी जिसे प्रधानमंत्री के भाषण को उद्धृत करते हुए छापा गया है जब वह वर्चुअल तौर पर ‘शिवगिरी तीर्थ यात्रा’ की 90वीं जयंती समारोहों का उद्घाटन कर रहे थे जिसे श्री नारायण गुरु के सम्मान में प्रत्येक वर्ष आयोजित किया जाता है। वह 1856-1928 में केरल में रहने वाले एक संत तथा दार्शनिक थे। 

गुरु की शिक्षाओं को पढऩे तथा शिवगिरी जाने से मुझे यह विश्वास हो गया कि गुरु पहचान के तौर पर जाति के अत्यंत खिलाफ थे तथा अपने सारे जीवन में जाति को लेकर भेदभाव के खिलाफ लड़ते रहे। शिवगिरी स्थित उनके आश्रम का आदर्श वाक्य था ‘ओम सहोदर्यम सर्वत्र’ अर्थात ‘परमात्मा की नजर में सभी व्यक्ति बराबर हैं’। 

शब्दों का गलत चयन
श्री मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं जो संविधान के अंतर्गत एक गणतंत्र है जो यह कहता है कि ‘हम भारत के लोग...’। संविधान राज्यों, धर्मों, धार्मिक सम्प्रदायों, भाषाओं, जातियों  तथा छुआछूत की प्रथाओं को खत्म करने को मान्यता देता है। संविधान कई तरीकों-जन्म, उत्तराधिकार, पंजीकरण आदि के माध्यम से प्राप्त की गई नागरिकता को भी स्वीकृति देता है। 

शब्द ‘भारत’ कई लेखों में आता है तथा शब्द ‘भारतीय’ एंग्लो-इंडियन, भारतीय राज्य तथा भारतीय स्वतंत्रता कानून 1947 के संदर्भ में आता है। मुझे कहीं भी शब्द ‘भारतीयता’ नहीं मिला। जाति का केवल एक ही अर्थ है चाहे अंग्रेजी भाषा में हो या किसी भी अन्य भारतीय भाषा में। इसका अर्थ है ‘जाति’ तथा इससे हमारे मन में कई बुराइयां उभर आती हैं जो इससे अभी भी संबंधित हैं, जाति प्रथा के कारण। मैं समझता हूं कि प्रधानमंत्री ने किस भावना के साथ इस शब्द का इस्तेमाल किया होगा लेकिन इस शब्द का चयन दुर्भाग्यपूर्ण तथा गलत था। 

एक पहचान को खारिज करें
भारतीयता को जाति के बराबर दर्जा देना खतरनाक है। ‘जाति’ के अपने कड़े तथा प्रतिगामी नियम हैं। इन नियमों के अंतर्गत शादी अंतॢववाही है तथा इस नियम को तोडऩे की कीमत कई युवाओं को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी है। जाति व्यक्तियों के एक समूह को ‘अलग’ करती है तथा अधिकांश  व्यक्तियों के दो समूहों के बीच दीवार खड़ी करती है। जाति को लेकर वफादारियां तथा पूर्वधारणाएं धार्मिक वफादारियों के मुकाबले अधिक ताकतवर होती हैं तथा धार्मिक पूर्वाग्रहों जितनी ही खतरनाक। हाल ही तक धर्म को महत्व दिया जाता था, जाति को आस्तीनों पर पहना जाता था। अब, मोदी सरकार के अंतर्गत बहुत से लोगों द्वारा धर्म तथा जाति दोनों को आस्तीन पर पहना जाता है। 

एक बार जाति को उच्च दर्जा दे देने के बाद यह जाति की घिनौनी विशेषताएं सामने ले आती है। जाति संकीर्णमना, एकांतिक है तथा विवाह, भोजन, पहरावे, पूजा आदि को लेकर इसके नियम आमतौर पर स त तथा अलचकदार होते हैं। यदि ‘भारतीयता’ का लक्ष्य भी एकल पहचान बनाना है तो यह विभिन्नता तथा बहुलतावाद के बिल्कुल विपरीत है। लाखों नागरिकों की तरह मैंने भाजपा द्वारा एकल पहचान बनाने के प्रयास को ठुकराया है। जाति ने सामाजिक तथा आॢथक असमानताओं को चिरायु बनाया है। विशेषकर गांवों में किसी की जाति तथा उसकी सं या सामाजिक तथा राजनीतिक ढांचे तथा सामाजिक प्रभाव और राजनीतिक शक्ति को निर्धारित करती है। 

निरअपवाद रूप से बाद वाली आर्थिक अवसरों का निर्धारण करती है। मैंने पाया है कि पट्टा (जमीन) या बैंक लोन अथवा सरकारी नौकरी जैसी साधारण चीजें प्राप्त करना किसी की जाति अथवा उस जाति की सं या की ताकत से प्रभावित होता है। निजी क्षेत्र भी कोई बेहतर नहीं है। औपचारिक/ असंगठित क्षेत्र अथवा माइक्रो व छोटे उद्यमों में अधिकांश नौकरियां उसी जाति वाले व्यक्तियों को मिलती हैं जो मालिक की हो। 

यदि हम जाति के साथ भारतीयता की समानता करें तो हम खुद को एक खतरनाक ढलान पर पाएंगे। मुझे कोई भ्रम नहीं है कि जातिवादी सोच अथवा जाति आधारित भेदभाव रातों-रात समाप्त हो जाएगा, लेकिन जाति प्रणाली से छुटकारा पाने के प्रति उत्साहपूर्ण रुझान है। शहरीकरण, औद्योगिकीरण, टैलीविजन व सिनेमा, खुली अर्थव्यवस्था, संचार, बाह्य-प्रवास तथा यात्रा (विशेषकर) विदेश यात्रा जाति को लेकर पूर्वाग्रहों को तोड़ रहे हैं। भारतीयता की जाति के साथ समानता करना गत कुछ दशकों के दौरान की गई प्रगति को वापस लौटा देना है। 

एक गणतांत्रिक दृष्टिकोण
स्वाभाविक तौर पर प्रत्येक भारतीय में एक गुण है जिसे भारतीयता के तौर पर उल्लेखित किया जा सकता है। मैं इसे परिभाषित और यहां तक कि उल्लेखित करने का प्रयास भी नहीं करूंगा लेकिन एक भारतीय होने के नाते एक देश से संबंधित होने की भावना अकथनीय है। मेरा यह निष्कर्ष कि भारतीयता को नागरिकता के समान माना जाना चाहिए, एक संविधान के अंतर्गत एक गणराज्य के विचार के अनुरूप है। एक नागरिक जो भारत के संविधान के मूल ढांचे में विश्वास करता है तथा इसके मूलभूत सिद्धांतों में निष्ठा रखता है, एक भारतीय है। 

हमें आवश्यक तौर पर भारतीयों को जातियों के प्रति वफादारियों से दूर कर उन्हें वैश्विक तौर पर स्वीकार्य मूल्यों के प्रति शिक्षित करने की जरूरत है जैसे कि स्वतंत्रता, समानता, सहिष्णुता, धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतंत्र। देश का निर्माण करने के लिए ‘नागरिकता’ एक असल आधार है जो मूल्यों, अधिकारों तथा कत्र्तव्यों को सांझा करता है तथा शांति व समृद्धि प्राप्त करता है। वह एक असल गणतंत्रवाद भी होगा।-पी.चिदंबरम


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