भारत का ‘अमृतकाल’ कहीं ‘विषकाल’ में न बदल जाए

punjabkesari.in Sunday, Aug 14, 2022 - 04:50 AM (IST)

कल स्वतंत्र भारत 75 वर्ष का हो जाएगा। यदि अंग्रेजों ने भारत का विभाजन नहीं किया होता तो यह बंगलादेश-म्यांमार सीमा पर टेकनाफ से पाकिस्तान, अफगानिस्तान सीमा पर तोरखम तक एक सभ्यतागत निरंतरता होती। एक सच्चा उपमहाद्वीप छोटा नहीं होता। क्या यह पूर्व में बंगाल और पश्चिम में पंजाब के 2 भारी प्रांतों के साथ एक स्थायी इकाई होती, जो अफगानिस्तान की सीमा से लगे उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत की जंगली भूमि द्वारा ताज पहनाई जाती। 

यह देखते हुए कि विभाजन से पहले भारत को मजबूत राज्यों के साथ एक राष्ट्र के रूप में परिकल्पित किया गया था लेकिन एक कमजोर केंद्र था। क्या विभाजन या संतुलन अनिवार्य रूप से होता यदि यह 1947 में नहीं होता। लेकिन ऐसे समय में जो भविष्य में बहुत दूर नहीं था जैसा कि पूर्वी पाकिस्तान 1971 में पश्चिमी पाकिस्तान से भयानक नरसंहार के बाद अलग हो गया था। यह और इस तरह के कई अन्य प्रश्र जो समय की लहरों में बंजर भूमि में दफन हुए हैं हम एक संबंधित प्रश्र पूछते हैं कि क्या भारत को वास्तव में विभाजन की आवश्यकता थी? 

क्या हिंदू और मुसलमान वास्तव में अलग-अलग लोगों और राष्ट्रों को अलग कर सकते हैं जो विद्वानों और नेताओं के रूप में धार्मिक विभाजन में एक साथ नहीं रह सकते। क्या 1000 ईस्वी और 1700 ईस्वी के बीच मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा किए गए एक 70 से ऊपर के आक्रमणों के परिणामस्वरूप हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई बढ़ी। एक चालाक लेकिन धार्मिक रूप से भिन्न साम्राज्यवादी ‘फिरंगी’ विफलता के बाद भारत के अधिपति बन गए। 1857 का विद्रोह स्वतंत्रता का पहला संग्राम था। 1888 में मेरठ में सर सैय्यद की अभिव्यक्ति के साथ शुरू हुई कथा अंतत: 1943 में नागपुर में सावरकर द्वारा खत्म की गई। इसने 2 राष्ट्रों के सिद्धांत के लिए बौद्धिक और वैचारिक मिट्टी प्रदान की जो 1947 में समाप्त हो गई। 

सर सैय्यद अहमद खान ने 14 मार्च 1888 को मेरठ में कहा, ‘‘अब मान लीजिए कि सभी अंग्रेज और पूरी अंग्रेजी सेना को अपनी सारी तोपें और अपने शानदार हथियार और सब कुछ साथ लेकर भारत छोड़ देना था तो भारत का शासक कौन होगा? क्या इन परिस्थितियों में यह संभव है कि 2 राष्ट्र-मुसलमान और हिंदू एक ही सिंहासन पर एक साथ बैठ सकें और सत्ता में समान रूप से रह सकें?’’ 

शायद नहीं। 1908-09 में हिंदू महासभा के प्रख्यात नेता भाई परमानंद ने घोषित किया कि, ‘‘सिंध से परे के क्षेत्र को अफगानिस्तान और उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत के साथ एक महान मुस्लिम साम्राज्य में एकजुट होना चाहिए। इस क्षेत्र के हिंदुओं को दूर आना चाहिए। जबकि इसी समय मुसलमानों को शेष भारत में जाकर इस क्षेत्र में उनको बसना चाहिए।’’

महान राष्ट्रवादी लाला लाजपत राय ने 14 दिसम्बर 1924 को ट्रिब्यून में लिखा, ‘‘मेरी योजना के तहत मुसलमानों के पास 4 मुस्लिम राज्य होंगे (1) पठान प्रांत या उत्तर-पश्चिम सीमांत, (2) पश्चिमी पंजाब, (3) सिंध और (4) पूर्वी बंगाल। यदि भारत के किसी अन्य हिस्से में ठोस मुस्लिम समुदाय है जो एक प्रांत बनाने के लिए पर्याप्त रूप से बड़ा है, तो उसे समान रूप से गठित किया जाना चाहिए। लेकिन यह स्पष्ट रूप से समझा जाना चाहिए कि यह एक संयुक्त भारत नहीं है। इसका मतलब एक स्पष्ट विभाजन है। एक मुस्लिम भारत और एक गैर-मुस्लिम भारत।’’

सर मोहम्मद इकबाल ने 29 दिसम्बर 1930 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग इलाहाबाद के 25वें सत्र में अपने अध्यक्षीय भाषण में तर्क दिया,  ‘‘व्यक्तिगत रूप से मैं इसमें सन्निहित मांगों से कहीं अधिक आगे बढ़ूंगा। मैं पंजाब, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत, सिंध और ब्लूचिस्तान को एक राज्य में समाहित होते देखना चाहता हूं। ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर या ब्रिटिश साम्राज्य के बिना स्व:शासन।’’ 

विनायक दामोदर सावरकर ने 1937 में कर्णावती में हिंदू महासभा के 19वें सत्र में अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था, ‘‘तथाकथित साम्प्रदायिक प्रश्र हैं ङ्क्षहदुओं और मुसलमानों के  बीच सदियों से चली आ रही संस्कृति, धार्मिक और राष्ट्रीय दुश्मनी की विरासत  है। जब समय परिपक्व हो तो आप उन्हें हल कर सकते हैं। लेकिन आप केवल उन्हें पहचानने से इंकार करके उन्हें दबा नहीं सकते। इसे नजरअंदाज करने की तुलना में गहरे रोग का निदान और उपचार करना अधिक सुरक्षित है। आइए हम अप्रिय तथ्यों का बहादुरी से सामना करें जैसे वे हैं। भारत को आज एकात्मक और सजातीय राष्ट्र नहीं माना जा सकता लेकिन इसके विपरीत मुख्य रूप से दो राष्ट्र हैं जो भारत में हिंदू और मुसलमान।’’

मोहम्मद अली जिन्ना ने 1940 में लाहौर में मुस्लिम लीग को अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था, ‘‘हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग धार्मिक दर्शन, सामाजिक रीति-रिवाज और साहित्य से संबंधित हैं। वे न तो अंतर्विवाह करते हैं और न ही एक साथ भोजन करते हैं और वास्तव में वे दो अलग-अलग सभ्यताओं से संबंधित हैं जो मुख्य रूप से परस्पर विरोधी विचारों और धारणाओं पर आधारित हैं।’’

अंत में सावरकर ने 15 अगस्त 1943 को नागपुर में एक संवाददाता सम्मेलन में घोषित किया कि, ‘‘जिन्ना के दो राष्ट्र सिद्धांत के साथ मेरा झगड़ा नहीं है। हम हिंदू अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्र हैं।’’200 मिलियन मुसलमान 75 वर्षों से अन्य समुदायों तथा हिंदुओं के साथ गाली-गलौच कर रहे हैं। हम साढ़े 7 दशक बाद भारत में विभाजन के तर्क को प्रमाणित करने का प्रयास क्यों कर रहे हैं? क्या यह भारत के ‘अमृतकाल’ को अगले 25 वर्षों में स्वतंत्रता शताब्दी तक ले जाने वाले विषकाल में नहीं बदल देगा? जरा सोचो।-मनीष तिवारी 
 


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