हर वर्ग में बढ़ता मानसिक अवसाद खींच रहा चिंता की लकीर

punjabkesari.in Thursday, Dec 16, 2021 - 05:03 AM (IST)

 

वर्तमान दौर में किसी भी राष्ट्र के सामने अगर कोई सबसे बड़ी चुनौती है तो वह नि:संदेह मानसिक तनाव है। इस बीमारी से आजकल हर आयु वर्ग के लोग पीड़ित हैं, लेकिन भारत में इसे सामान्य माना जाता है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। ‘

द स्टेट ऑफ द वल्र्ड चिल्ड्रन- 2021 ऑन माय माइंड’ के अनुसार भारत में 15 से 24 वर्ष के 41 फीसदी बच्चों व किशोरों ने मानसिक बीमारी के लिए मदद लेने की बात कही है। अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि मानसिक अवसाद किस स्तर पर और कहां-कहां व्याप्त हो चला है। 

यह रिपोर्ट 21 देशों के करीब 20,000 बच्चों पर हुए सर्वेक्षण से सामने आई है, जिसमें करीब 83 फीसदी बच्चे इस बात को लेकर जागरूक दिखे कि मानसिक परेशानियों के लिए किसी विशेषज्ञ की सलाह लेनी चाहिए। वहीं भारत के संदर्भ में भी इस विषय को लेकर गंभीरता देखने को मिली लेकिन अभी भी स्थिति अन्य देशों के मुकाबले उतनी बेहतर नहीं है, जितनी कि होनी चाहिए। 

अमीर हो या गरीब, छोटा हो या बड़ा, महिला हो या पुरुष, आज हर वर्ग के लोग इस भयंकर बीमारी से ग्रसित हो रहे हैं। पल-पल बढ़ता तनाव न केवल मानसिक स्वास्थ्य पर असर डाल रहा है बल्कि यह हमारे जीवन के लिए भी संकट पैदा कर रहा है। आए दिन लाखों लोग मानसिक अवसाद के कारण आत्महत्या तक कर लेते हैं। समाज में मानसिक अवसाद का शिकार सबसे ज्यादा महिलाएं हैं और इसकी वजह भी है। आज महिलाएं भले ही आधी आबादी का प्रतिनिधित्व कर रही हों, लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि आज भी समाज में महिलाओं का शोषण हो रहा है। पितृसत्तात्मक समाज आज भी महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार कर रहा है। आज भी महिलाओं को पुरुषों के समान न तो अधिकार मिल पाए हैं और न ही स्वतंत्रता। 

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा था कि भारत ‘एक सम्भावित मानसिक स्वास्थ्य महामारी का सामना कर रहा है’। यह कोई अतिशयोक्ति नहीं क्योंकि आज हमारे देश की युवा पीढ़ी तक इस अवसाद से ग्रसित है। मानसिक अवसाद के कारण हर रोज युवा अपनी जान तक देे रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो लगभग सभी उम्र के 28 करोड़ से भी अधिक लोग मानसिक अवसाद का शिकार हैं। 

इतना ही नहीं, हम तो उस देश के नागरिक हैं, जहां सामान्य बोलचाल की भाषा में भी ‘ङ्क्षचता को चिता के समान’ माना गया है। फिर भी आज तक मानसिक अवसाद को लेकर कोई गम्भीरता किसी भी तरफ से देखने को नहीं मिलती। समय-समय पर विभिन्न संस्थाओं के द्वारा जारी रिपोर्टें भी यह बताने के लिए काफी हैं कि इस गम्भीर बीमारी के प्रति हम अब भी जागरूक नहीं हो रहे। यही वजह है कि देश में 4.57 करोड़ लोग इसके शिकार हैं। सामाजिक जनसांख्यकीय सूचकांक (एस.डी.आई.) राज्य समूह में तमिलनाडु, केरल, गोवा व तेलंगाना अवसादग्रस्त राज्यों में अग्रणी हैं और यही वे राज्य हैं, जो शिक्षा के मामले में देश में बेहतर हैं। ऐसे में यह समझ सकते हैं कि शिक्षित होना भी इससे अछूते होने का आधार नहीं। 

वहीं पुरुषों की तुलना में महिलाओं में 3.9 प्रतिशत अधिक डिप्रैशन की आशंका रहती है। मानसिक अवसाद न केवल भारत, अपितु वैश्विक स्तर पर एक गम्भीर बीमारी बनता जा रहा है। मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 2017 भारत में मानसिक स्वास्थ्य के सुधारों की वकालत करता है, जिसे मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 को रद्द करके बनाया गया था। इस अधिनियम की विफलता की सबसे बड़ी वजह यह थी कि यह मानसिक रोगियों के अधिकारों की रक्षा करने में असमर्थ था, लेकिन नए अधिनियम की भी स्थिति अनुकूल नहीं है। इसके अलावा कोविड महामारी में मानसिक स्वास्थ्य की समस्या कई गुणा और बढ़ गई है। इसके बावजूद हमारी स्वास्थ्य प्रणाली में मानसिक अवसाद को लेकर कोई प्रावधान नहीं बनाए गए हैं। 

हमारे देश के संविधान का अनुच्छेद-21 निर्बाध जीवन जीने की स्वतंत्रता प्रदान करता है, जबकि स्वास्थ्य क्षेत्र में बदहाली जीवन जीने के अधिकार को बाधित कर रही है। यही वजह है कि भारत एक बीमारू देश बनता जा रहा है। ऐसे में स्थिति विकट ही मालूम पड़ती है और हमारा देश जितनी जल्दी यह समझ कर इससे आगे बढऩे की सोचे, उतना ही बेहतर रहेगा।-सोनम लववंशी


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