गुणवत्ता की उपेक्षा, औसत गुणवत्ता की हिमायत

punjabkesari.in Wednesday, Aug 04, 2021 - 06:03 AM (IST)

पेगासस जासूसी मुद्दे पर संसद में चल रहे शोर-शराबे के बीच मोदी सरकार विभिन्न कानूनों को पारित करवा रही है और इस क्रम में सरकार ने हमारे नेतागणों के सबसे प्रिय विषय आरक्षण के बारे में कानून पारित करवाया है तथा वह अपने वोट बैंक को खुश करने के लिए आरक्षण को मूंगफली की तरह बांट रही है क्योंकि आरक्षण से वोट मिलते हैं और इससे राजगद्दी पर बैठने का एक पक्का रास्ता मिल जाता है।

अगले वर्ष के आरंभ में उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, हिमाचल और गोवा में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सरकार ने मैडीकल कालेजों में प्रवेश में अखिल भारतीय कोटा में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की है। इसके साथ ही इन कालेजों में सीटों की संख्या भी उसी अनुपात में बढ़ाई जाएगी। भाजपा कह सकती है कि वह अन्य पिछड़े वर्गों को राहत प्रदान कर रही है और उन्हें गरीबी से बाहर निकालने का प्रयास कर रही है किंतु उसका उद्देश्य चुनावी लाभ लेना है। 

एक तरह से देखें तो सरकार ने पिछले वर्ष मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश का पालन किया है और केन्द्रीय संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण देने में एकरूपता लाई है। राज्य सरकारों द्वारा संचालित मैडीकल कालेजों में कुल सीटों में से 15 प्रतिशत सीटें पूरे भारत के छात्रों के लिए आरक्षित होती हैं। बाकी 85 प्रतिशत सीटें संबंधित राज्य के छात्रों के लिए आरक्षित होती हैं। अब कुल आरक्षण कोटा 60 प्रतिशत हो गया है।

आरक्षण बढ़ाने से बेहतर परिणाम कैसे मिलेंगे? क्या मनमाने ढंग से आरक्षण थोपने से औसत गुणवत्ता को बढ़ावा नहीं मिलेगा? क्या यह उचित है कि योग्य छात्र को प्रवेश से वंचित किया जाए? शिक्षा की गुणवत्ता क्या होगी? क्या इस बात का मूल्यांकन कराया गया है कि जिन लोगों को आरक्षण दिया गया है, उन्हें इससे लाभ हुआ है कि नहीं? क्या भारत के सामाजिक ताने-बाने और सौहार्द को बनाए रखने का उपाय आरक्षण है? क्या यह उचित है कि चिकित्सा में 90 प्रतिशत अंक लेने वाला कोई छात्र दुकान चलाए और 40 प्रतिशत लेने वाला दलित डाक्टर बन जाए और इसका श्रेय आरक्षण को जाता है? 

संविधान के अनुच्छेद 15(1) में प्रदत्त समानता पर पिछड़ापन कब से हावी होने लगा? सरकार अन्य वर्गों के साथ भेदभाव को किस तरह दूर करेगी? मौलिक अधिकारों में जाति, पंथ, ङ्क्षलग आदि को ध्यान में रखे बिना अवसरों की समानता का अधिकार दिया गया है। हमें इसके साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। दुर्भाग्यवश जमीनी वास्तविकता और आभासी सामाजिक स्थिति में समानता नहीं होती। जिन छात्रों को आरक्षण का लाभ दिया जाता है उन्हें हमेशा विभिन्न पृष्ठभूमि से आए हुए अन्य छात्रों के साथ संघर्ष करना पड़ता है। यदि किसी छात्र की बुनियाद ही कमजोर है तो उसे उच्च शिक्षा में काफी संघर्ष करना पड़ता है और परिणामत: वह कई बार बीच में ही पढ़ाई छोड़ देता है। 

शिक्षा मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि आई.आई.टी. में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के 48 प्रतिशत छात्र और आई.आई.एम. में 62.6 प्रतिशत छात्र बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं क्योंकि उन्हें यह पाठ्यक्रम बहुत कठिन लगता है। देश के 23 आई.आई.टी. में 6043 शिक्षकों में से 149 अनुसूचित जाति के और 21 अनुसूचित जनजाति के हैं। कुल मिलाकर इनकी सं या 3 प्रतिशत से कम है और अन्य पिछड़े वर्ग के कोई भी नहीं हैं। 40 केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में भी यही स्थिति है। गुजरात में उच्च वर्ग की जनसं या 30 प्रतिशत है और वहां पर शैक्षिक संस्थानों में सीटों की सं या बढ़ाए जाने की मांग की जा रही है किंतु अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग और आॢथक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 60 प्रतिशत सीटें आरक्षित की गई हैं, जिस कारण राज्य में शैक्षिक, राजनीतिक, सामाजिक और आॢथक वर्चस्व स्थापित करने के लिए विभिन्न जातियों और वर्गों में हिंसा होती रहती है। 

नेताओं ने आरक्षण को एक सर्कस बना दिया है। इस संबंध में कोई अध्ययन नहीं किया गया कि आरक्षण उपलब्ध कराने के बाद क्या वे छात्र मु य धारा में आए हैं? न ही इस बात के कोई आंकड़े उपलब्ध हैं कि उच्च शैक्षणिक संस्थानों में विभिन्न समुदायों में आरक्षित कोटा के स्थान किस तरह खाली रहते हैं और कई बार आरक्षित स्थानों पर सामान्य श्रेणी के छात्रों को प्रवेश दिया जाता है। हमारी राजनीतिक प्रणाली में व्याप्त बेईमानी और गैर जिम्मेदारी को देखते हुए कोई भी नेता इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि यह अव्यवस्था उनके द्वारा ही वोट बैंक की राजनीति के लिए पैदा की गई है। हमारे नेता बाबा साहेब अंबेडकर के नाम की कसमें खाते रहते हैं किंतु आरक्षण के संबंध में वे उनके शब्दों को भूल जाते हैं। उन्होंने कहा था, ‘‘यदि आप चाहते हैं कि समाज के विभिन्न समुदाय एकजुट हों तो आरक्षण को समाप्त किया जाना चाहिए क्योंकि यह विकास में बाधक बन गया है।’’ 

सकारात्मक उपायों को इस तरह लागू किया जाना चाहिए कि इससे न तो उत्कृष्टता की ओर बढऩे के लिए प्रोत्साहन समाप्त हो, न ही निष्कृष्टता को लागू किया जाए और दोनों ही मामलों में आरक्षण विफल रहा है। हमारे नेताआें को इस बात को ध्यान में रखना होगा कि आरक्षण के सार्वभौमीकरण के चलते उत्कृष्टता और मानकों की उपेक्षा होगी और यदि कोई राष्ट्र आगे बढऩा चाहता है तो उसके लिए ये दोनों तत्व आवश्यक हैं। समय आ गया है कि पूरी आरक्षण नीति पर पुनॢवचार किया जाए और आंख मूंदकर उसे लागू न किया जाए, अन्यथा हमें एक औसत दर्जे का राष्ट्र बनने के लिए तैयार रहना चाहिए।-पूनम आई. कौशिश


 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News