यदि मोदी साहिब बुरा न मानें तो ‘अर्ज’ करूं

punjabkesari.in Friday, Feb 28, 2020 - 04:01 AM (IST)

यह तो सर्वविदित है कि नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनकर देश की दशा और दिशा बदली है। आलोचनाओं को पीछे छोड़ दें तो कहना पड़ेगा कि विदेश नीति में भारत की छवि ‘एक घोटालेबाजों वाला देश’ से एक ‘उभरते भारत’ की छवि वाला देश कहलाने लगी है। देश के भीतर भी एक अजीब सा विश्वास जगा है। मोदी ने एक मुहावरा अपने पीछे छोड़ दिया है- मोदी है तो मुमकिन है। सभाओं में स्वत: मोदी-मोदी-मोदी गुंजायमान होने लगता है। पिछले हफ्ते अहमदाबाद आए दुनिया के शक्तिशाली अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और मोदी की आत्मीयता को टैलीविजन पर जिन्होंने भी देखा वे मोदी की ऊर्जा और वाकपटुता देख आश्चर्यचकित रह गए होंगे। बहला-फुसला नहीं रहा बल्कि हकीकत बयां कर रहा हूं, मैं अधिक नहीं तो थोड़ी-बहुत राजनीति तो जानता हूं। पढ़ाया भी यही करता था कि जम्मू-कश्मीर में लागू यह धारा 370 ही ऐसी धारा है जिसके कारण जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा बना हुआ है। 

परंतु मेरे इस अध्ययन को मोदी ने इस धारा को एक झटके में समाप्त कर गलत साबित कर दिया। मुझे लगता ही नहीं था कि जम्मू-कश्मीर में पिछले 30 सालों से जो कुछ हो रहा है वह थमेगा कि नहीं। एक महीने में ही जिस राज्य में 90 लोगों की हत्याएं हो जाएं, 15000 जख्मी हो जाएं वह कभी शांत हो पाएगा। खासकर आतंकवादी बुरहान वानी की मौत के बाद तो देश सन्नाटे में चला गया था कि आतंकवादी अब कश्मीर घाटी को ‘इस्लामी राज्य’ बनाकर ही दम लेंगे। जिस घाटी में स्कूल जाती नन्ही-नन्ही बच्चियां किताबों की जगहें अपने बस्तों में पत्थर भर कर ले जाती हों ताकि सेना के जवानों पर बरसाए जाएं। जिस राज्य में अफशां जैसी प्रतिभाशाली फुटबाल खिलाड़ी पाकिस्तानी झंडा लहराने लगे, जिस घाटी में आई.ए.एस., आई.पी.एस. और राजनेता पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाने में शर्म महसूस न करते हों, वह घाटी मोदी और अमित शाह के करिश्मे मात्र से पटरी पर आ जाए तो कहना ही पड़ेगा कि ‘मोदी है तो मुमकिन है।’ 

कम से कम हमें नहीं लगता था कि जम्मू-कश्मीर में आई.एस.आई. और पाकिस्तानी झंडों की प्रदर्शनी कभी रुकेगी। पुलवामा के सैन्य संहार के बाद तो बिल्कुल ही नहीं लगता था कि घाटी की यह आग थमेगी। पर मैंने कहा न कि मोदी है तो यह सब कुछ सम्भव है। निर्णय लेने का मोदी में अदम्य साहस है। आजादी के बाद यदि श्यामा प्रसाद मुखर्जी देश की एकता-अखंडता के पहले शहीद थे तो मोदी और अमित शाह देश की एकता और अखंडता के इतिहास लिखने वाले पहले राजनेता हैं। कमाल है संसद के दोनों सदनों ने जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाकर अमरत्व पा लिया। जम्मू-कश्मीर के हालात विस्फोटक बन चुके थे। बस एक और बुरहान वानी की मौत की जरूरत थी। पर धारा 370 को 5 अगस्त, 2019 को हटाकर मोदी साहिब ने आतंकवादियों के कफन में कील ठोंक दी। बहुत हो गया। ‘इनफ-इज-इनफ’, अब इसके आगे नहीं। इसके आगे अब सिर्फ देश, और कुछ नहीं। अच्छा किया, देश खुश हुआ। 

अच्छा तो मोदी साहिब यदि बुरा न मानें तो एक तुच्छ सा सुझाव अर्ज के रूप में प्रस्तुत करता हूं। अमित शाह और आप दोनों राजनीति में आधुनिक युग के चाणक्य हो। राजनीति में मान्यता है कि यदि परिस्थितिवश किसी चीज में चुनाव करना ही हो तो राजनेता ‘लैस्सर-ईवल’ का चुनाव करेगा। तनिक रुक कर विचार कर लें आप दोनों कि महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला और डा. फारूक अब्दुल्ला में से यदि आपको धारा 370 के बाद चुनाव करना हो तो आप किसे चुनेंगे? यकीनन डा. फारूक अब्दुल्ला का ही आप चुनाव करेंगे। महबूबा मुफ्ती और उसकी पी.डी.पी. को आपने 4 अप्रैल 2016 को साथ सरकार बनाकर जान लिया, परख लिया। 

उमर अब्दुल्ला में हो सकता है जवानी का जोश हो परंतु डा.फारूक अब्दुल्ला को तो अपने राजनीति में जान लिया होगा। वह किसी भी बात पर अडऩे वाला शख्स नहीं। अंग्रेजी सभ्यता में पला-बढ़ा, आधुनिक माडर्न विचारों का धारणी। झट पासा बदलने वाला, अडिय़ल भी नहीं, आप जैसे राजनीति के विद्वानों ने धारा 370 के बाद महबूबा मुफ्ती और अन्य आतंकी लोगों के समक्ष खड़ा कर दिया उन्हें। बराबर फारूक अब्दुल्ला को भी उन्हीं धाराओं में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। सभी नेताओं पर पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट (पी.एस.ए.) लगा दिया। परिस्थिति को अपने अनुकूल करने के लिए कम से कम डा. फारूक अब्दुल्ला जैसे धर्मनिरपेक्ष नेता से तो बातचीत जारी रखते। हो सकता है कि आप बातचीत उनसे कर भी रहे हों परंतु जनता को पता नहीं। उन्हें संसद में आने देते। नहीं सुधरते तो जेल तो है ही। जब सारे दुश्मन दिखते हों तो कम से कम नरम दुश्मन की तरफ तो दोस्ती का हाथ बढ़ा ही सकते थे? 

पाठकवृंद यह अनुमान भी न लगाएं कि मैं डा. फारूक अब्दुल्ला का हिमायती हूं। मैंने डा. फारूक अब्दुल्ला को भी धारा 370 हटाए जाने पर खौफजदा बयानबाजी करते सुना है पर हुर्रियत जैसे कट्टरपंथी शब्बीर शाह जैसे पाकिस्तान परस्त या हिजबुल मुजाहिद्दीन जैसे वहाबी सोच वाले कट्टर इस्लामी डा. फारूक अब्दुल्ला तो नहीं हो सकते। भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सही फरमाया कि मैं डा. फारूक अब्दुल्ला की जल्द रिहाई के लिए भगवान से प्रार्थना करता हूं।

आखिर क्यों? इसलिए कि डा. फारूक अब्दुल्ला अस्सी पार हो चुके हैं। वह वर्तमान में लोकसभा के सदस्य हैं। तीन बार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। केन्द्र सरकार के माननीय कैबिनेट मंत्री रह चुके हैं? शायद उनका अनुभव हमें लाभ दे सकता? अनुमान ही तो है। मुझे वे घटनाएं आज भी याद हैं जब दिसम्बर 1999 को आतंकवादियों ने रूबिया सैय्यद का बलात् अपहरण कर लिया था। सारे देशवासियों को दिसम्बर, 1999 को आई.सी. 814 विमान के हाईजैक की घटना याद होगी। जब यात्रियों से भरे उस विमान को तालिबानियों द्वारा काबुल ले जाया गया था। तब यह डा. फारूक अब्दुल्ला ही थे जिन्होंने कहा था कि आतंकवादियों को कुचल देना चाहिए। 

केन्द्र सरकार हरगिज आतंकवादियों से बात न करे। यह डा.फारूक अब्दुल्ला ही तो थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में जम्मू-कश्मीर मसले पर भारत का पक्ष मजबूती के साथ दुनिया के सामने प्रस्तुत किया। मैंने स्वयं कई बार मंचों से डा. फारूक अब्दुल्ला को नाचते-गाते, बजाते देखा है। यही नहीं, ऊंची-ऊंची आवाजों से ‘भारत माता की जय’ के नारों को बुलंद करते देखा है। इसीलिए तो कह रहा हूं कि मोदी और अमित शाह कट्टरवादियों में एक नरमवादी डा. फारूक अब्दुल्ला से बातचीत जारी रखें। लैस्सर-ईवल को अपनी ओर खींचें। यही मंथन न हो कि डा. फारूक अब्दुल्ला दिल्ली में कुछ कहते हैं और श्रीनगर में कुछ और। दिल्ली में तो ‘भारत माता की जय’ बोलते हैं और श्रीनगर पहुंचते ही ‘अल्लाह हू अकबर’ कहने लगते हैं। 

उनके दिल में फिर भी हिंदुस्तान के प्रति सहानुभूति है, प्यार है, और कौन है कश्मीर घाटी में जो भारतप्रस्त हो? मेरी तो तुच्छ राय भारत सरकार से है कि डा. फारूक अब्दुल्ला को अन्य कट्टरपंथियों से न जोड़े। बेहतर हो उन्हें सरकार दिल्ली शिफ्ट करे। वार्तालाप शुरू करे, जरूरी नहीं कि परिणाम सार्थक ही निकलें। पर डा. फारूक अब्दुल्ला के रूप में भारत सरकार को एक प्लेटफार्म तो मिले। अब धारा 370 तो पुन: लगने से रही। न ही भारत इतना कमजोर है कि धारा 370 को पुन: कोई सरकार हटा सकती है।

परंतु हालात सामान्य बनाने के लिए धरातल तो तलाशना होगा। वह माकूल धरातल डा. फारूक अब्दुल्ला से बेहतर कोई और नहीं हो सकता। व्यक्ति, समय और परिस्थिति को भांपते हुए सरकार डा. फारूक अब्दुल्ला को वार्तालाप के टेबल पर लाए। इस परिस्थिति में न किसी की जीत, न किसी की हार, सौदा एक जैसा है। प्रभु हम सबको सन्मति प्रदान करे। पर साहस चाहिए। वह साहस आप दोनों नेताओं में पहले ही बहुत है।-मा. मोहन लाल(पूर्व परिवहन मंत्री, पंजाब)


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