मानवाधिकारों को नुक्सान पहुंचाने वाली मानसिकता

punjabkesari.in Sunday, Oct 17, 2021 - 05:07 AM (IST)

कहते हैं कि प्रधानमंत्री ने कहा था कि ‘हालिया वर्षों में कुछ लोगों ने अपने हितों को प्राथमिकता देते हुए मानवाधिकारों को अपने तरीके से परिभाषित करना शुरू कर दिया है। वे एक घटना में मानवाधिकारों का उल्लंघन देखते हैं लेकिन उसी तरह की दूसरी घटना में वे ऐसा नहीं देख सकते। ऐसी मानसिकता मानवाधिकारों को काफी नुक्सान पहुंचाती है।’ वह बिल्कुल सही है। 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने यूनीवर्सल डिक्लारेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स (यू.डी.एच.आर.) को अपनाया। दस्तावेज अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं को लेकर स्पष्ट है जिनका प्रत्येक व्यक्ति बराबर का तथा अपरिहार्य रूप से हकदार है। 

स्थिति और भी खराब हुई
दस्तावेज की प्रस्तावना ने 1948 में विश्व की वास्तविकता को पकड़ा तथा यू.डी.एच.आर. दस्तावेज की जरूरत को न्यायोचित ठहराया क्योंकि मानवाधिकारों की उपेक्षा तथा उल्लंघन का परिणाम नृशंस कार्रवाइयों के रूप में निकलता है जिसने मानवता की आत्मा को झिझोड़ा है। जो 1948 में सच था वह 2021 में भी सच है, यह संभवत: कुछ देशों में बेहतर हो गया है लेकिन भारत सहित कुछ अन्य देशों में निश्चित तौर पर स्थिति और भी खराब हुई है। 

शुरूआत करते हैं उत्तर प्रदेश में लखीमपुर खीरी नामक स्थान पर 3 अक्तूबर 2021 को हुई घटना से। किसान संसद द्वारा पारित (वास्तव में जल्दबाजी में) 3 कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। वाहनों का एक काफिला (जिनमें से कम से कम 2 की पहचान कर ली गई है) बड़ी तेजी से आगे बढ़ते हुए किसानों के पीछे से आया और चार प्रदर्शनकारियों को रौंद कर मौत की नींद सुला दिया। इसके बाद हिंसा शुरू हो गई। 

गुस्साई भीड़ द्वारा कार में सवार तीन लोगों को पकड़ लिया और पीट-पीट कर मौत के घाट उतार दिया। एक पत्रकार भी मर गया। सबसे आगे वाला वाहन केंद्र सरकार में गृह राज्यमंत्री से संबंधित था। ऐसा आरोप है कि वाहन में सवार लोगों में से एक उनका बेटा था। इस घटना में मानवाधिकारों का उल्लंघन हुआ। यू.डी.एच.आर. की धारा 19 घोषणा करती है कि ‘प्रत्येक व्यक्ति को अपनी राय तथा भावना व्यक्त करने की स्वतंत्रता है, इस अधिकार में बिना किसी दखलअंदाजी के अपने विचार व्यक्त करने की भी स्वतंत्रता शामिल है...’ धारा-20 घोषित करती है कि ‘एक व्यक्ति को स्वतंत्रतापूर्वक इकट्ठे होने की स्वतंत्रता का अधिकार है’। 

प्रदर्शनकारी किसान शांतिपूर्वक इकट्ठे थे और उनका जुलूस कृषि कानूनों पर उनकी राय को व्यक्त करने के लिए था। धारा 3 घोषणा करती है कि ‘प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वतंत्रता तथा सुरक्षा का अधिकार है’ तेजी से आए वाहन ने एक ही झटके में 3 जिंदगियों को लील लिया। लखीमपुर खीरी में मानवाधिकारों के उल्लंघन पर प्रधानमंत्री अब तक चुप हैं। 

कार्यकत्र्ता आतंकवादी हैं
2018 में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव  में हुई एक घटना की ओर लौटते हैं।  6 जून 2018 को 5 सामाजिक कार्यकत्र्ताओं को पुलिस ने गिरफ्तार किया जिन पर जनवरी 2018 में भीमा कोरेगांव में जातिवादी ङ्क्षहसा भड़काने का आरोप था। उन पांचों में एक  वकील, एक अंग्रेजी का प्रोफैसर, एक कवि एवं प्रकाशक तथा 2 मानवाधिकार कार्यकत्र्ता थे। वे अभी भी कैद में हैं, जमानत के लिए उनके आवेदनों को बार-बार खारिज किया गया है (28 अगस्त 2018 को 5 अन्य सामाजिक कार्यकत्र्ता गिरफ्तार कर लिए गए)। 

वकील सुरेन्द्र गाडलिंग ने ‘साइबर कानून तथा मानवाधिकार’ पढऩे की इजाजत देने के लिए कहा। उसकी प्रार्थना ठुकरा दी गई। अंग्रेजी की प्रोफैसर शोमा सेन को एक वर्ष तक शिकायत करने के बाद उसकी कोठरी में एक कुर्सी उपलब्ध करवाई। आर्थराइटिस के बावजूद उसे जमीन पर एक पतली चटाई पर सोने के लिए बाध्य किया गया। शुरूआती महीनों में उसे सजायाफ्ता मुजरिमों के साथ रखा गया। मानवाधिकार कार्यकत्र्ता महेश राऊत को उसके परिवार द्वारा लाई गई आंत्र सूजन के लिए आयुर्वैदिक दवाएं लेने से रोक दिया गया। कवि तथा प्रकाशक सुधीर धावले को उनके सहयोगियों तथा मित्रों से नहीं मिलने दिया गया क्योंकि वे खून के रिश्तेदार नहीं थे। 

2 जनवरी 2021 को पत्रकार प्रतीक गोयल ने भीमा कोरेगांव मामले में आरोपियों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई में कानून के 16 उल्लंघन दर्ज किए। इनमें कई ज्यादतियां शामिल थीं जैसे कि बिना वारंट के तलाशी तथा जब्ती, ट्रांजिट रिमांड के आदेश के बिना एक कैदी को ले जाना, कैदी की पसंद के वकील से इंकार करना,  कैदी के अस्पताल के उपचार का खर्च वहन करने से राज्य सरकार का इंकार, कैदी की मैडीकल रिपोटर््स देने से इंकार, आर्थराइटिस से पीड़ित कैदी को कमोड वाली कुर्सी देने से इंकार,  पूरी बाजू का स्वैटर देने से इंकार, स्वामी विवेकानंद की पुस्तकें देने से इंकार, महाराष्ट्र में भाजपा सरकार की जगह नई सरकार आने के दो दिन बाद अपनी मर्जी से महाराष्ट्र पुलिस से केस लेकर राष्ट्रीय जांच एजैंसी को हस्तांतरित करना (केंद्र सरकार के अधीन, जिसे आतंकवादी गतिविधियों तथा अपराधों की जांच करने का काम सौंपा गया है), अपनी मां के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए कैदी को पैरोल देने से 
इंकार करना आदि। 

मुकद्दमे से पहले सजा
यू.डी.एच.आर. की संबंधित धाराओं के अनुसार:
धारा 5 : किसी को भी यातना अथवा उसके साथ अमानवीय व्यवहार नहीं किया जा सकता। 
धारा 9 : किसी को भी मनमाने ढंग से गिरफ्तार किया अथवा हिरासत में नहीं रखा जा सकता। 
धारा 10 : प्रत्येक व्यक्ति को एक स्वतंत्र तथा निष्पक्ष ट्रिब्यूनल द्वारा  पूरी बराबरी के साथ सार्वजनिक रूप से सुनवाई का अधिकार है। 
धारा 11 : प्रत्येक व्यक्ति जिस पर दंडात्मक आरोप लगाए गए हैं, को कब तक निर्दोष माने जाने का अधिकार है जब तक एक सार्वजनिक मुकद्दमे में कानून के अनुसार वह दोषी साबित न हो जाए। 
मेरी जानकारी के अनुसार गत 3 वर्षों से अधिक समय से प्रधानमंत्री ने भीमा कोरेगांव मामले में कैदियों के मानवाधिकारों पर एक भी शब्द नहीं कहा, न ही अपने अधीन आने वाली एजैंसी एन.आई.ए. द्वारा लड़े जाने वाले मुकद्दमे में लगाए गए आरोपों पर। कहने की जरूरत नहीं कि मुकद्दमा शुरू नहीं हुआ।मैं प्रधानमंत्री के साथ पूरी तरह से सहमत हूं जब उन्होंने कहा था कि ‘ऐसी मानसिकता मानवाधिकारों को काफी नुक्सान पहुंचाती है।’-पी. चिदम्बरम


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