गोटाबाया लंका में ‘तमिल अल्पसंख्यकों’ से कैसे निपटेंगे

punjabkesari.in Wednesday, Nov 20, 2019 - 12:16 AM (IST)

श्रीलंका के पीपल्स फ्रंट उम्मीदवार तथा पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे के छोटे भाई गोटाबाया राजपक्षे श्रीलंका के राष्ट्रपति बन गए हैं। इन्होंने ही अपने भाई के कार्यकाल (2005-2014) के दौरान देश के रक्षा मंत्रालय को सम्भाला था। एक सेवानिवृत्त लैफ्टीनैंट कर्नल राजपक्षे ने सिंहली बहुल इलाकों में भारी मतों से चुनाव जीता जबकि उनके प्रतिद्वंद्वी तथा प्रमुख विपक्षी नेता राणासिंघे प्रेमदासा ने तमिल बहुल इलाकों में भारी मत हासिल किए। 

गोटाबाया की जीत के बाद शक्तिशाली राजपक्षे परिवार फिर से सत्ता में लौट आया है। ऐसा माना जा रहा है कि गोटाबाया मङ्क्षहदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री नियुक्त करेंगे। गोटाबाया राजपक्षे को एक दशक पूर्व लिट्टे के सफाए के बाद ‘टर्मिनेटर’ कहा जाने लगा था। गोटाबाया को तमिलों, अलगाववादियों, आलोचकों तथा पत्रकारों के नरसंहार के लिए श्रीलंका तथा अमरीका में कानूनी मामले झेलने पड़े। 

कैसे हुआ लिट्टे का सफाया
2014 में पत्रकारों को दिए गए साक्षात्कार में उन्होंने कई अन्य बातों के अलावा यह भी खुलासा किया कि उन्होंने कैसे लिट्टे का सफाया किया। लिट्टे युद्ध-4 के अंतिम दिन का ग्राफिक उल्लेख करते हुए उन्होंने बताया कि इस युद्ध के दौरान सबसे बड़ा फायदा इस बात का था कि उनके भाई मङ्क्षहदा राजपक्षे ने उन पर भरोसा कर सब कुछ उन पर स्वतंत्र रूप से छोड़ रखा था। इसके अलावा सेना प्रमुख सरत फोनसेका ने भी मुझ पर भरोसा किया था। महिंदा के पास लिट्टे को खत्म करने की राजनीतिक इच्छा शक्ति थी। दूसरी बात यह है कि नेतृत्व रक्षा मंत्रालय के साथ तालमेल बनाए हुआ था। हमें सीमित समय के अंदर सब कुछ करना था। मैंने इसके बारे में राष्ट्रपति से बात की। यह आसान नहीं था-नए लोगों को नियुक्त करना, प्रशिक्षित करना और उन्हें एकत्रित करना और हमने यह सब कर दिखाया। 

इसके बारे में और विवरण देते हुए गोटाबाया ने कहा कि राष्ट्रपति ने रैड टेप को काटने के लिए 3 लोगों को काम करने के लिए चुना। हमारी ओर से बेसिल राजपक्षे, वीरातुंगा जोकि राष्ट्रपति के सचिव थे और मैं शामिल था। भारत की ओर से उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन, विदेश सचिव शिव शंकर मेनन तथा वी.जे. सिंह थे, जो उस समय विदेश सचिव थे। हमने एक-दूसरे से समन्वय बना कर रखा। हमने भारत का तथा उन लोगों ने श्रीलंका का दौरा किया। हमने पूरी योजना तथा सुरक्षा इनपुट पर विस्तृत बात की। 

एम. करुणानिधि का दोहरा चेहरा सामने आया
गोटाबाया ने तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि का दोहरा चेहरा होने की बात उजागर की, जिन्होंने कि युद्ध को समाप्त करने के लिए मनमोहन सिंह सरकार पर जबरदस्त दबाव बनाया, जबकि करुणानिधि ने द्रमुक प्रमुख के तौर पर खरगोश के साथ दौड़ लगाते हुए शिकारी कुत्तों से ही उसका शिकार करवाने जैसी नीति अपनाई। शिवशंकर मेनन ने अपनी किताब ‘च्वाइसिस, इनसाइड द मेकिंग ऑफ इंडियाज फॉरेन पालिसी’ में यह दावा किया कि नई दिल्ली कोलंबो के साथ निरंतर तथा तीव्र गति से सम्पर्क में थी। मैं यह भी दोहराता हूं कि उस समय कैसा घटनाक्रम बना हुआ था। 2009 में पहले 5 महीनों के दौरान श्रीलंका से दिल्ली और दिल्ली से श्रीलंका के लिए निरंतर यात्राएं चलीं। मेनन ने यह भी उल्लेख किया कि जनवरी 2009 के मध्य में श्रीलंकाई सेना तथा सरकार दोनों ही आश्वस्त थे कि उन्होंने लिट्टे को भांप लिया है तथा युद्ध में जीत हमारी ही होगी। 

श्रीलंकाई सेना ने एक नीति के तौर पर उत्तरी तथा दक्षिणी भाग पर कब्जा कर रखा था ताकि तमिल टाइगर दूर रहें और वे सेना की सप्लाई को तोड़ न सकें। ईलम युद्ध के अंतिम चरण के दौरान गोटाबाया ने यह पाया कि अंतिम समय पर प्रभाकरण एक लाइन से हट कर एक छोटे से द्वीप पर चला गया, जिसके साथ उसके अंगरक्षक भी थे। जनवरी 2009 में लिट्टे के वित्तपोषक के. पाथमाभा (के.पी.) ने प्रभाकरण को फोन पर बताया कि वह भाग खड़ा हो। हमने उसके वार्तालाप को सुन लिया मगर प्रभाकरण ने भाग जाने की बात को सिरे से नकार दिया। युद्ध समाप्ति से दो सप्ताह पहले के.पी. ने प्रभाकरण से फिर भाग जाने को कहा। लिट्टे टाइगर ने फिर से इस बात को नकार दिया। गोटाबाया ने इस बात का उल्लेख किया कि क्या हम सोच सकते हैं कि ऐसा व्यक्ति दोनों हाथ ऊपर कर आत्मसमर्पण करेगा? 

तत्कालीन सेना प्रमुख सरत फोनसेका ने पत्रकारों को एक साक्षात्कार में बताया कि योजना तो लिट्टे को जंगलों में ले जाने की थी। 17 मई 2009 को सेना ने लिट्टे को 400/400 मीटर क्षेत्र में घेर लिया, जिस रात्रि उन्होंने भागने की कोशिश की तभी तीनों रक्षा बिन्दुओं पर उन्हें रोका गया। 18 मई की रात्रि को लिट्टे ने अपने आपको तीन समूहों में बंटा पाया। उन्होंने सेना की अग्रिम रक्षापंक्ति पर धावा बोल दिया और वे इसमें सफल भी हुए। जयाम, पोटू अमान तथा सुसई ने तीन समूहों का नेतृत्व किया। प्रभाकरण तथा उसके सहयोगी गार्डों ने सोचा कि वे भागने में सफल होंगे मगर वास्तव में इन लिट्टे लड़ाकों जिनकी गिनती 250 थी, सेना की पहली तथा दूसरी रक्षा पंक्ति में फंस कर रह गए। 

एक भयानक युद्ध के बाद उस रात्रि को लिट्टे के सभी बड़े नेता मार दिए गए। हमने प्रभाकरण के शव को 19 मई की सुबह को खोजा। मुझे उसकी मौत का समाचार 11 बजे के करीब मिला। मैंने कमांडर से फोन काल रिसीव किया जिसने मुझे इस बाबत सूचित किया। फोनसेका ने कहा कि मैं आश्वस्त था और मैंने कहा था कि हम लिट्टे को 3 वर्षों में खत्म कर देंगे मगर हमने उसको 2 वर्ष 9 माह में खत्म कर डाला। वह समय कुछ और था मगर अब समय शांति का है और राष्ट्रपति बनने के बाद गोटाबाया लंका में तमिल अल्पसंख्यकों से कैसे निपटेंगे? वास्तविकता तो यह है कि तमिलों ने उनको वोट ही नहीं डाला और अपने डर को व्याप्त किया।-कल्याणी शंकर
 


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