ज्ञानवापी मस्जिद विवाद : इतिहास की भूल सुधार या खाई बढ़ाना

punjabkesari.in Wednesday, May 18, 2022 - 04:45 AM (IST)

राजनेता ऐसे अपवित्र व्यक्ति हैं, जो हर चीज पर और किसी भी विषय पर एक-दूसरे से बेहतर दृष्टिकोण अपनाने का दावा करते हैं, चाहे धर्म हो या दंगा, गंदी बातें अथवा घोटाला। जब अपना सत्ता का आधार बचाने की बात आती है तो ये सभी कट्टरवादी बन जाते हैं। ज्ञानवापी मस्जिद/काशी विश्वनाथ मंदिर के बारे में शुरू किया गया जेहाद इस बात का प्रमाण है। निश्चित रूप से मस्जिद-मंदिर ऐसे मुद्दे हैं जिनका इस्तेमाल नेताओं द्वारा अपने मतदाताओं को तुष्ट करने के लिए किया जाता है और दोनों पक्षों के नेताओं का एक ही धर्म है और वह है सत्ता। 

पिछले सप्ताह उच्चतम न्यायालय द्वारा वाराणसी के न्यायालय द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद परिसर की वीडियोग्राफी की अनुमति दिए जाने के आदेश पर रोक लगाने से इंकार करने के बाद राजनेताओं को एक राजनीतिक चारा मिल गया। उल्लेखनीय है कि काशी मस्जिद विवाद उन 3 धार्मिक स्थानों में से एक है जो अयोध्या में राम मंदिर अभियान के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद के उस अभियान का अंग है, जिसमें उन्होंने कहा था ‘अयोध्या तो झांकी है, काशी, मथुरा बाकी है।’ 

भगवा संघ का आरोप है कि मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद भगवान कृष्ण की जन्म भूमि पर बने मंदिर को तोड़ कर बनाई गई है और इससे संबंधित कटरा केशव देव मंदिर परिसर को पुन: प्राप्त करने के लिए स्थानीय न्यायालय में एक मामला चल रहा है। प्रश्न उठता है कि क्या यह विवाद इतिहास की भूल में सुधार करने के लिए है या हिंदुओं और मुसलमानों में विवाद बढ़ाने के लिए? क्या ये विवाद भाजपा का राजनीतिक भविष्य सुनिश्चित करते हैं या यह शृंगार गौरी मंदिर के बारे में है? 

इतिहास बताता है कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण औरंगजेब द्वारा 1669 में प्राचीन विशेश्वर मंदिर को तोड़ कर कराया गया था। मंदिर के आधार को नहीं छुआ गया था और यह मस्जिद परिसर बना हुआ है। किंतु 1991 के बाद से यह कानूनी पचड़े में फंसा हुआ है, जब काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारी के वंशज और 2 अन्य लोगों ने वाराणसी के सिविल जज के सामने मामला दर्ज किया और मांग की कि यह भूमि उन्हें लौटाई आए और इसके लिए धर्म स्थल विशेष प्रावधान अधिनियम 1991 के प्रावधानों को ध्यान में न रखा जाए। 

याचिकाकत्र्ताओं का तर्क था कि 1991 का अधिनियम मस्जिद पर लागू नहीं होता क्योंकि मस्जिद के निर्माण के लिए मंदिर को आंशिक रूप से तोड़ा गया था। इसके अलावा धर्म स्थल के स्वरूप में बदलाव 1945 की निर्धारित तिथि के बाद हुआ, इसलिए कानूनी कार्रवाई शुरू की जा सकती है। अयोध्या में राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद इस अधिनियम की अधिकारिता से बाहर रखा गया था। इसके आधार पर जिला न्यायालय के समक्ष एक पुनरीक्षा याचिका दायर की गई, जिसे न्यायालय ने अनुमति दी और सिविल न्यायालय को निर्देश दिया कि इस विवाद का नए सिरे से निर्णय किया जाए। अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद कमेटी ने इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी जिस पर न्यायालय ने रोक लगाई। 

यह मामला 1991 से पूर्व 22 वर्षों तक लंबित रहा और एक वकील ने एक नई याचिका दायर की और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण से अनुरोध किया कि इसी आधार पर मस्जिद परिसर का सर्वेक्षण किया जाए क्योंकि वहां पर औरंगजेब द्वारा मस्जिद के निर्माण से पूर्व मंदिर था, जो वहां पर उपस्थित शिवलिंग से प्रमाणित होता है और प्रश्न उठाया कि शिवलिंग पर पानी चढ़ाने के धार्मिक अधिकार से हिन्दुओं को क्यों वंचित रखा जा रहा है। 8 अप्रैल, 1991 में स्थानीय न्यायालय ने इसे स्वीकार किया और इसके साथ ही 5 सदस्यीय समिति का गठन किया, ताकि इस बात का निर्धारण किया जाए कि क्या उस स्थान पर मस्जिद से पूर्व मंदिर था। 

अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद कमेटी ने इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसने इस सर्वेक्षण पर अनिश्चितकालीन रोक लगा दी। 18 अगस्त, 2021 को 5 महिलाओं ने एक याचिका दायर की और उन्होंने शृंगार गौरी मंदिर में दैनिक आधार पर बिना किसी रोक-टोक के पूजा के अधिकार की मांग की। इसके अलावा उन्होंने पुराने मस्जिद परिसर में दृश्य और अदृश्य देवी देवताओं के पूजा के अधिकार की भी मांग की। वर्तमान में भक्तों को केवल चैत्र नवरात्रि की चतुर्थी पर यहां पर पूजा करने की अनुमति दी जाती है। 

अपने दावे पर जोर देते हुए एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने रेखांकित किया कि काशी विश्वनाथ मंदिर भगवान शिव का एक महत्वपूर्ण मंदिर है और यह पुराणों में वर्णित 12 ज्योतिॢलगों में से एक है। एक अन्य कट्टर भगवाधारी का कहना है कि सांप्रदायिक सौहार्द और एकता का विचार ऐतिहासिक साक्ष्यों के समक्ष नहीं टिकता, क्योंकि मुसलमान भी अपने सामाजिक-राजनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए अपने ऐतिहासिक धार्मिक स्थलों का उपयोग करते हैं और उसी के आधार पर अपनी आधुनिक पहचान बनाते हैं। मुस्लिम मौलवियों का कहना है कि हिन्दुत्ववादी मस्जिदों को तोड़कर अपने मंदिरों पर पुन: अधिकार कर रहे हैं ताकि हिन्दू बहुसंख्यकों का समर्थन मिल सके और वे भावनात्मक मुद्दे पर पुन: सत्ता में आ सकें। 

ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के एक सदस्य के अनुसार न तो बाबरी मस्जिद और न ही काशी विश्वनाथ मंदिर भाजपा के लिए धार्मिक मुद्दे हैं। वे राजनीतिक मुद्दे हैं, जिनका उन्हें 2024 के लोकसभा चुनावों में लाभ मिलेगा। काशी और मथुरा के माध्यम से वे धार्मिक मुद्दों को आगे बढ़ाना चाहते हैं और यह उनका भारत के महान इस्लामिक इतिहास को नजरअंदाज करने का प्रयास है। उनका उद्देश्य स्पष्ट है कि ऐसे स्मारक, जो भारत में मुस्लिम शासन की याद दिलाएं, उन्हें नष्ट किया जाए। हिन्दू-मुस्लिम पर बार-बार उंगली उठाना इस बात का प्रमाण है कि दोनों ही पक्ष सत्ता के लिए सांप्रदायिक मतभेद को बढ़ाना चाहते हैं। 

सभी धर्म का उपयोग अपने तथाकथित जनाधार को बढ़ाने के लिए कर रहे हैं। इस वातावरण में हमारे नेताओं को समझना होगा कि हिन्दुओं और मुसलमानों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करके वे केवल अपने निहित स्वाथों को पूरा कर रहे हैं। जब हमारे राजनेता इसकी लाभ हानि का विश्लेषण करें तो उन्हें एक सरल से प्रश्न का उत्तर देना होगा-क्या वोट बैंक की राजनीति का मूल्य हमारे देश को चुकाना चाहिए? इसके लिए कौन जिम्मेदार है और कौन ईश्वर के समक्ष इन प्रश्नों का उत्तर देगा?-पूनम आई. कौशिश
 


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