सरकार का रवैया ‘यदि लोग परेशान हैं तो मुझे परवाह नहीं’

punjabkesari.in Sunday, Jul 18, 2021 - 04:56 AM (IST)

हमने अंग्रेजों से 1947 में आजादी हासिल की, फिर भी भारत में एक ‘स प्रभु’ है। स प्रभु है भारत की सरकार। इसके पास युद्ध छेड़ने, शांति कायम करने, अंतर्राष्ट्रीय समझौते तथा सम्मेलन करने, धन उधार लेने तथा सबसे बढ़कर धन बनाने की स प्रभु शक्ति है। धन बनाने का अर्थ सिक्के डालना तथा करंसी नोट छापना है। 

संप्रभु के अतिरिक्त यहां कुछ ऐसे निकाय हैं जिन्हें कुछ कारणों से अद्र्ध स प्रभु कहा जाता है जिन्हें मैं जगह की कमी के कारण विस्तार से नहीं बताना चाहता। इनमें केंद्रीय बैंक (आर.बी.आई.) तथा सरकारी स्वामित्व वाले बड़े बैंक (जैसे एस.बी.आई.) शामिल हैं। इस प्रस्तावना की जरूरत है क्योंकि भारत में हैरानीजनक तौर पर अद्र्ध स प्रभु एक ऐसे मुद्दे के प्रति अधिक ङ्क्षचतित दिखाई देते हैं जिसने लोगों को आंदोलित किया है, जबकि सरकार यह सोचती दिखाई देती है कि यदि वह दूसरी ओर देखेगी तो मुद्दे खत्म हो जाएंगे। मेरा तात्पर्य मुद्रास्फीति या महंगाई से है, जो सभी लोकतांत्रिक सरकारों के लिए एक हौव्वा है। 

खौफनाक तथ्य : 12 जुलाई 2021 को जारी नैशनल स्टैटिस्टिक्स ऑफिस द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारत की उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति (सी.पी.आई.) में सरकार तथा आर.बी.आई. ने निर्धारित दायरे की ऊपरी सीमा रेखा को पार कर लिया है। दायरा +4/-2 प्रतिशत है लेकिन सी.पी.आई. 6.23 प्रतिशत शहरी सी.पी.आई. मई में 5.91 प्रतिशत से जून में 6.37 प्रतिशत पर पहुंच गई। केंद्रीय मुद्रास्फीति एक महीने में 5.5 प्रतिशत से 5.8 प्रतिशत पर पहुंच गई है।
खाद्य मुद्रास्फीति 5.58 प्रतिशत है।
दालों की मुद्रास्फीति 10.01 प्रतिशत पर है।
फलों की मुद्रास्फीति 11.82 प्रतिशत पर है।
परिवहन मुद्रास्फीति 11.56 प्रतिशत है।
ईंधन तथा रोशनी मुद्रास्फीति 12.68 प्रतिशत पर है।
तेलों तथा वसा की मुद्रास्फीति 34.78 प्रतिशत है। 

मेरे विचार में मुद्रास्फीति का कारण मांग में तेजी नहीं है। इसके विपरीत निजी उपभोक्ता मांग कम है। यह मुद्रास्फीति अत्यधिक तरलता अथवा लोगों के हाथों में अत्यधिक धन के कारण नहीं है। इस मुद्रास्फीति का कारण सरकार की गलत नीतियां हैं, विशेषकर इसकी कर नीतियां। 

आर.बी.आई. का विश्लेषण : आर.बी.आई. के 2021 के बुलेटिन में स्वीकार किया गया है, कुछ रक्षात्मक तरीके से, कि खाद्य तथा ईंधन की कीमतें बढ़ी हैं। मगर अनुकूल आधारभूत प्रभाव के लिए (गत वर्ष उसी काल में गिरावट), इसने सी.पी.आई. मुद्रास्फीति को बढ़ाया होगा। बुलेटिन में कहा गया है कि ‘वस्त्र तथा जूतों, घरेलू वस्तुओं तथा सेवाओं और शिक्षा में मुद्रास्फीति की दर में काफी वृद्धि देखी गई।’ 

इसमें यह भी कहा गया कि पैट्रोल की औसत कीमतें 100 रुपए प्रति लीटर, डीजल की 93.52 रुपए प्रति लीटर से पार हो गईं तथा कैरोसीन व एल.पी.जी. की कीमतों में भी वृद्धि दर्ज की गई। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि निर्माण तथा सेवाओं में इनपुट लागतों में वृद्धि हुई है। सभी आंकड़े एक ओर ही इशारा करते हैं-सरकार की कर नीतियां। 3 कर ऐसे हैं। तीन कर ऐसे हैं जो बहुत अधिक नुक्सान कर रहे हैं।

पहला : पैट्रोल तथा डीजल पर कर, विशेषकर केंद्र सरकार द्वारा लागू किए गए उपकर। हमने केंद्रीय आबकारी तथा राज्य आबकारी विभागों को इन ईंधनों पर शुल्क लगाने की इजाजत दी क्योंकि केंद्र तथा राज्यों को राजस्व की जरूरत है, मगर उपकरों के लिए कोई तर्कसंगत जवाब नहीं है। पैट्रोल पर प्रति लीटर 33 रुपए उपकर है, डीजल पर 32 रुपए प्रति लीटर। ऐसा अनुमान है कि केंद्र सरकार केवल इन उपकरों के माध्यम से वाॢषक 4,20,000 करोड़ रुपए एकत्र करती है और सारा धन अपने पास रखती है। आमतौर पर उपकर किसी विशेष उद्देश्य तथा एक विशेष समय के लिए लागू किया जाता है। दोनों सीमाओं को खिड़की से बाहर फैंक दिया गया है तथा पैट्रोल व डीजल पर उपकर दुरुपयोग के औजार बन गए हैं। 

दूसरा, उच्च आयात शुल्क: 2004 में शुरू हुए रुझान को पलटते हुए सरकार ने बड़ी सं या में वस्तुओं पर आयात शुल्कों में वृद्धि कर दी है। परिणामस्वरूप मध्यवर्ती वस्तुएं जो निर्माण के लिए महत्वपूर्ण हैं तथा आवश्यक वस्तुएं पाम ऑयल, दालें तथा बहुत-सी घरेलू वस्तुओं की लागत बढ़ गई है। 

जी.एस.टी. की तर्कहीन दरें : जी.एस.टी. की कई दरों की मूलभूत समस्या बनी हुई है। व्यापक उपभोग वाली बहुत-सी वस्तुएं जैसे कि टायलैट्रीज, प्रोसैस्ड फूड, अन्य खाद्य वस्तुएं, घरेलू उपकरण आदि को जी.एस.टी. की 12 प्रतिशत से लेकर 18 प्रतिशत तक की दरों की मार झेलनी पड़ रही है। जी.एस.टी. की उच्च दरों के कारण अंतिम कीमतें भी आसमान छू रही हैं।

निर्दयी हैं ईंधन उपकर : करों के अतिरिक्त सरकार ने जिन चीजों को नजरअंदाज किया है वे हैं उपकर, आयातशुल्क तथा जी.एस.टी.-सभी अप्रत्यक्ष कर हैं जो एक मायने में ‘प्रतिगामी’ हैं जो अमीरों तथा गरीबों को एक जैसी चोट पहुंचाते हैं। परिणामस्वरूप गरीबों पर बोझ अपेक्षाकृत कहीं अधिक है। जिस दूसरे पहलू को नजरअंदाज किया गया वह यह कि इन करों का असर इनपुट्स पर पड़ता है जो कीमत शृंखला पर प्रभाव डालते हैं और अंतत: अंतिम वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों को बढ़ाते हैं। ईंधन कीमतों को ही लें। 

ईंधन कीमतों में वृद्धि विशेषकर प्रत्येक मानवीय गतिविधि को प्रभावित करती है : यात्रा, परिवहन, कृषि (ट्रैक्टरों तथा प पों के लिए डीजल), उद्योग (ऊर्जा), सेवाएं (आपूॢत) तथा घरों को रोशन करना। भारतीय स्टेट बैंक ने चेतावनी दी है कि ईंधन पर खर्चे ने अन्य विवेकाधीन खर्चों में वृद्धि कर दी है जैसे कि स्वास्थ्य, ग्रॉसरी तथा यूटिलिटी सेवाएं। एस.बी.आई. के शोधकत्र्ताओं ने यह भी पाया कि बैंक जमा में उल्लेखनीय गिरावट आई है जबकि घरेलू कर्जे में वृद्धि हुई है तथा वित्तीय बचतों में कमी आई है। उन्होंने ‘कर युक्तिकरण के माध्यम से तेल की कीमतों में आवश्यक कटौती’ की मांग की है और चेतावनी दी है कि अन्यथा आर्थिक रिकवरी में देरी होगी। 

सरकार का व्यवहार संभवत: इस तरह का बन गया है कि ‘यदि लोग परेशान हैं तो मुझे परवाह नहीं’ तथा  लोगों का यह कहना कि ‘यह हमारी किस्मत है’। एकमात्र संभावित निष्कर्ष यह है कि लोकतंत्र का पूरी तरह से बिगड़ाव है जिसे ‘लोगों की सरकार, लोगों द्वारा तथा लोगों के लिए’ होने की आशा की जाती है।-पी. चिदंबरम


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