सरकार और न्यायपालिका दोनों ही रिक्त पदों के लिए जिम्मेदार

punjabkesari.in Thursday, Mar 25, 2021 - 02:37 AM (IST)

कोविड महामारी के कारण जीवन में लम्बे समय तक व्यवधान पड़े हैं। इसमें न्यायपालिका के कामकाज में व्यवधान भी शामिल है। पहले से ही अदालतों में मामले लम्बित चल रहे हैं तथा इनकी गिनती और बढ़ गई है। एक अनुमान के अनुसार ट्रायल कोर्ट, सैशन कोर्ट, हाईकोर्ट तथा सुप्रीमकोर्ट के समक्ष लम्बित पड़े केसों की गिनती करीब अब 4 करोड़ हो चुकी है। अन्य क्षेत्रों की तरह अदालतों का कामकाज अभी भी सामान्य स्तर पर शुरू नहीं हुआ है।

यह अनुमान लगाना अभी भी मुश्किल है कि यह कब तक संभव हो सकेगा। न्यायिक निपटान के लिए मामलों के ढेर के साथ कार्मिक, लोक शिकायत और कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति की हाल ही में जारी 117वीं रिपोर्ट के अनुसार न्यायिक अधिकारियों की रिक्तियों की संख्या में अथाह वृद्धि हुई है। 

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की लगभग 40 प्रतिशत रिक्तियां हैं। हाईकोर्ट के जजों की 1080 स्वीकृत क्षमता के विपरीत 419 पद खाली पड़े हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि पिछले 4 वर्षों से हाईकोर्ट के जजों की नियुक्तियों की संख्या घट कर 2020 में मात्र 66 रह गई है। एक चौथाई से अधिक रिक्त पदों के साथ अधीनस्थ न्यायपालिका में भी स्थिति भयावह है। 

नवीनतम आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन 2018 में कानून मंत्रालय द्वारा लोकसभा में सांझा किए गए आंकड़ों के अनुसार पूरे भारत में 22545 न्यायिक पदों की स्वीकृत संख्या में से 5436 पद खाली थे। यह अकेले सरकार ही नहीं है जो इस तरह के दुखद मामलों के लिए जिम्मेदार है। खुद न्यायपालिका को भी नियुक्तियों में देरी के लिए दोषी ठहराया जा सकता है। ऐसी कई घटनाएं हुईं जहां पर उच्च न्यायालयों ने रिक्त पदों के लिए नामों की सिफारिश करके न्यायाधीशों की नियुक्ति शुरू नहीं की थी। 

उच्च न्यायालयों को निर्धारित वेकैंसी से कम से कम 6 महीने पहले रिक्तियों को भरने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। उन्हें पद के खाली होने के एक महीने से भी कम समय के भीतर निर्धारित प्रक्रिया को पूरा करना चाहिए। हालांकि एक या दूसरे कारण के लिए उच्च न्यायालय प्रक्रिया को शुरू करने में देरी करते हैं जो विलम्बित नियुक्तियों का एक कारण है। इसके अलावा राज्य सरकारें उच्च न्यायालयों की सिफारिशों को स्वीकार करने में देरी करती हैं।

सिफारिशों को तब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मंजूरी दी जानी होती है। संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट के अनुसार लगभग 50 प्रतिशत सिफारिशें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा खारिज कर दी जाती हैं। इसके बाद कानून और न्याय मंत्रालय में बात अटक जाती है। इंटैलीजैंस ब्यूरो की रिपोर्ट का इंतजार करने के बाद नियुक्तियों का रास्ता साफ करने के लिए महीनों भर का समय लगता है। 

संसदीय समिति की रिपोर्ट के अनुसार, ‘‘लम्बित अनुमोदन वाले उच्च न्यायालयों से प्राप्त कुल 208 प्रस्तावों में से 92 (44.23 प्रतिशत) सर्वोच्च न्यायालय के कालेजियम और 116 (55.76 प्रतिशत) न्याय विभाग के पास अटक गए हैं।’’ इसके अलावा सरकार के पास लम्बित कुल 116 प्रस्तावों में से 48 प्रस्ताव (41.37 प्रतिशत) इंटैलीजैंस ब्यूरो (आई.बी.) को रिपोर्ट न मिलने के कारण लम्बित हैं। 31 प्रस्ताव (26.72 प्रतिशत) राज्य सरकार के विचारों की प्रतीक्षा के कारण लम्बित हैं और 34 प्रस्ताव (29.31 प्रतिशत) सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाए गए प्रस्तावों की जांच के कारण लम्बित हैं। 

इस प्रकार एक संस्थागत विफलता है और अस्त-व्यस्तता ऊपर से शुरू होती है। भारत के प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे जिन्होंने एक महीने के समय में सेवानिवृत्त होना है, ने अपने कार्यकाल के अंतिम छोर को छोड़ कर नवम्बर 2019 में अपनी नियुक्ति के बाद उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों के उन्नयन पर चर्चा के लिए कालेजियम की कोई बैठक नहीं बुलाई। शीर्ष अदालत में 5 रिक्तियों के बावजूद ऐसा है। 

बोबडे के कार्यकाल के दौरान शीर्ष अदालत में एक भी न्यायाधीश नियुक्त नहीं किया गया था। लम्बित मामलों में तेज वृद्धि को देखते हुए, जिसमें कुछ दशकों से भी लम्बित हैं, दिशा-निर्देशों का सख्ती से पालन करने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि सभी न्यायिक रिक्तियां भरी हुई हैं। न्यायिक रिक्तियों को भरने के लिए इस तरह के आकस्मिक दृष्टिकोण के कारण वादियों को सबसे ज्यादा झेलना पड़ रहा है क्योंकि वही सबसे अधिक पीड़ित हैं।-विपिन पब्बी
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News