सरकार और किसान जिद छोड़ें, वर्ना सबका नुक्सान तय

punjabkesari.in Saturday, Jul 24, 2021 - 04:35 AM (IST)

जब परिवार, समाज या देश के संदर्भ में कोई विवाद इतना खिंच जाए कि असली मुद्दा ही गायब हो जाए और बात इतनी बढ़ जाए कि शालीनता की जगह अभद्रता और शिष्टाचार के स्थान पर गाली-गलौच का इस्तेमाल हो तो समझना चाहिए कि अराजकता की शुरूआत हो चुकी है और बातचीत से कोई हल निकलने की बात सोचना बेमानी है। 

समस्या आमदनी से जुड़ी है : हमारे देश के तीन चौथाई लोग खेतीबाड़ी से जुड़े हैं लेकिन सच यह है कि किसानी करने वाले आधे लोग कर्जदार हैं और वह इसलिए कि कृषि कर्म से उन्हें इतना नहीं मिल पाता कि उधार लेने की जरूरत न हो, अपने बच्चों की फीस जमा करने और दूसरी जरूरतों के लिए खेत न बेचने पड़ते हों और मु य बात यह कि बीज, खाद, रसायन और सिंचाई के लिए साहूकार के पास अपनी होने वाली उपज को गिरवी रखने की मजबूरी तो है ही। 

कृषि कानून और वास्तविकता : सरकार अपने बनाए कृषि कानूनों की वकालत करते हुए और उन्हें कृषकों के लिए लाभकारी बताते समय यह भूल कर जाती है कि एेसी बड़ी सं या में किसान, जिनके खेतों का आकार बहुत छोटा है, वे गरीबी के दलदल से जितना बाहर निकलने की कोशिश करते हैं, उतना ही और इसमें धंसते जाते हैं। विडंबना यह है कि अन्नदाता के लिए दो वक्त की रोटी जुटाना ही मुश्किल है। यह प्रवचन देना कि इन कानूनों के लागू होने पर किसान अपनी फसल कहीं भी किसी को भी अपने तय किए दाम पर बेच सकता है, उस किसान के लिए दूर के ढोल सुहावने होने जैसा है क्योंकि उसके पास अपनी फसल को दूसरे स्थान पर बेचने के लिए न तो ले जाने की सुविधा है और न ही इतने पैसे कि वह ढुलाई तथा आने जाने का खर्च उठा सके। 

जो लोग यह कहते हैं कि वह अपनी उपज का भंडारण कर लें और जब अच्छे दाम मिलें तो बेचें, वे यह भूल जाते हैं कि इन छोटी जोतों वाले किसानों की स्टोरेज का किराया चुकाने की हैसियत होती तो वे साहूकार के यहां पैदावार पहले से गिरवी ही क्यों रखते? अब बात आती है किसान का कार्पोरेट जगत और ऐसे व्यापारी के साथ कॉट्रैक्ट करने की तो जाहिर है कि वे किसान के अनपढ़ या कम पढ़ा लिखा होने का फायदा उठाकर इस तरह का कांट्रैक्ट करने का यत्न करेंगे जिससे उनका तो भरपूर फायदा हो और किसान जिसकी जमीन है उसे इतना भी न मिले जो फसल उगाने में लगने वाली उसकी मेहनत की भरपाई तक कर सके, जो उसके लिए अपनी बर्बादी को न्यौता देना है। 

जब सरकार यह कहती है कि किसान के पास अमीर लोगों के साथ हुए एग्रीमैंट की कॉपी है और वह उसकी शर्तों का उल्लंघन होने पर जिला मैजिस्ट्रेट या अदालत में मुकद्दमा दायर कर सकता है और न्याय पा सकता है तो यह बात क्या किसी से छिपी है कि हमारे देश में न्याय पाने के लिए पीढिय़ां दांव पर लग जाती हैं लेकिन न्याय आसानी से मिलता नहीं? किसान इन कानूनों को पूरी तरह वापस लेने की बात एेसे ही नहीं कर रहे। सरकार का कहना है कि वह इनमें संशोधन करने को तो राजी है लेकिन पूरी तरह रद्द करने के लिए तैयार नहीं, उससे लगता है कि यह लड़ाई दोनों पक्षों की नाक का सवाल बन गई है। दोनों ही अपनी-अपनी जिद छोडऩे बारे सोचना तक नहीं चाहते, चाहे इससे देश की आर्थिक स्थिति पर कितना भी विपरीत प्रभाव क्यों न पड़े। 

कानून नहीं, मूलभूत ढांचा चाहिए : कृषि क्षेत्र में ऐसा इन्फ्रास्ट्रक्चर यानी सुविधाएं हों, जिनके भरोसे किसान यह सोच सके कि अगर कल कोई कुछ ऊंच-नीच हो जाए तो उसकी कमर न टूट जाए, वह बर्बाद न हो जाए और जरा-सा भी नुक्सान न सह पाने की दशा में उसे आत्महत्या जैसा कदम न उठाना पड़े। यदि सरकार चाहती है कि किसान इन कानूनों को स्वीकार करें तो सबसे पहले उसे पूरे कृषि क्षेत्र में उन जरूरी सुविधाओ का प्रबंध करने की दूरदर्शी योजना बनानी होगी, जिससे किसानों का आत्मविश्वास बढ़े और वे आर्थिक रूप से अपने को इतना सक्षम बना लें कि किसी भी अनहोनी का मुकाबला कर सकें। 

इन उपायों में सबसे पहले उसके लिए सिंचाई, बिजली, बीज, उर्वरक और कीटनाशक का प्रबंध सुलभ और सस्ते दाम पर करने की व्यवस्था करनी होगी, ताकि उसे इनके लिए ऋण न लेना पड़े। इसके बाद उसकी उपज के भंडारण का इंतजाम नि:शुल्क करना होगा और उसके घर या खेत के आसपास ही फसल की बिक्री होने की व्यवस्था करनी होगी। इससे उन कुछ लोगों का नुक्सान हो सकता है जिनका वर्तमान मंडी व्यवस्था पर दबदबा है और उनके द्वारा नई व्यवस्था का विरोध करना स्वाभाविक है लेकिन यदि सरकार ठान ले तो यह संभव है। इसके बाद सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य के स्थान पर उपज के लाभकारी मूल्य तय करने की नीति बनाए जिससे ज्यादा भाव पर बिक्री तो हो सके लेकिन उससे कम पर नहीं। वैसे भी इस समय कानून लागू करने की बाध्यता नहीं है क्योंकि अदालत की रोक है, इसलिए इन्हें निरस्त करने में ही समझदारी है।-पूरन चंद सरीन


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