गद्दी और गद्दारी : दलबदल आम बात हो गई

punjabkesari.in Wednesday, Jan 19, 2022 - 04:54 AM (IST)

अगले माह 5 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पूर्व दल-बदलुओं का बोलबाला है। विधायकों और नेताओं को आकर्षित करना और दलबदल कर उन्हें अपने दल में मिलाना सत्ता में आने की सबसे आसान और त्वरित रणनीति है। इसमें विचारधारा और नैतिक मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है। इनके कृत्रिम समीकरणों से हमें यह अहसास कराया जा रहा है कि साध्य साधन को उचित ठहराता है, जिसके चलते दलबदल राजनीतिक नैतिकता का एक नया नियम बन गया है। 

इस बात को उत्तर प्रदेश में चुनाव-पूर्व तमाशा रेखांकित करता है, जहां हर पार्टी में उथल-पुथल मची हुई है। यदि समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव यह शेखियां बघारते हैं कि उन्होंने भाजपा के ओ.बी.सी. मंत्रियों और 8 विधायकों को अपने दल में शामिल कर एक विद्रोह किया है तो भाजपा ने भी बसपा और सपा के अनेक नेताओं को अपनी ओर किया है। 

पंजाब में भी पाॢटयों में दलबदल आम बात हो गई है। कांग्रेस, ‘आप’ और अकाली दल अधिकतर वर्तमान विधायकों को टिकट दे रहे हैं, ताकि और अधिक दलबदल न हो। गोवा में भी दलबदल देखने को मिल रहा है। कांग्रेस, भाजपा, तृणमूल कांग्रेस और ‘आप’, सभी पाॢटयों में नेता आ-जा रहे हैं। मणिपुर में कांग्रेस से नेता दलबदल कर रहे हैं और वहां भाजपा के शीर्ष नेताओं का कांग्रेसी अतीत रहा है। गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले नेता पाॢटयां बदल रहे हैं और कोई नहीं जानता कि कौन किसके साथ है। 

क्या यह आज की राजनीति की विशेषता है? आपको ध्यान होगा कि पिछले वर्ष पश्चिम बंगाल और पुड्डुचेरी में भी विभिन्न पार्टियों में बड़े पैमाने पर दलबदल हुआ था। वर्ष 2020 में वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने 22 निष्ठावान विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए थे, जिसके चलते कमलनाथ की सरकार गिर गई और शिवराज सिंह चौहान एक बार पुन: मुख्यमंत्री बन गए। वर्ष 2019 में कर्नाटक में भी यही स्थिति देखने को मिली जब कांग्रेस और जनता दल (एस) के 15 विधायक भाजपा में शामिल हो गए जिससे कुमारास्वामी सरकार गिर गई थी और येदुरप्पा ने सरकार बनाई थी। हालांकि इस दलबदल से मूल लोकतांत्रिक सिद्धांत- मतदाताओं द्वारा मतपत्र के माध्यम से अपनी सरकार चुनने के अधिकार का हनन हो रहा है। 

इससे वर्ष 1967 के ‘आया राम, गया राम’ संस्कृति की याद ताजा हो जाती है जब हरियाणा के एक निर्दलीय विधायक गया राम ने 15 दिन में 3 पार्टियां बदल ली थीं और उसके बाद भजनलाल ने जनता पार्टी सरकार के स्थान पर कांग्रेस की सरकार बना दी, जिसके बाद दलबदल की बाढ़-सी आ गई थी और इंदिरा गांधी काल के 60 से 80 के दशक में दलबदल को एक संस्थागत रूप मिल गया था। वर्ष 1967 से 1983 के दौरान संसद में 162 दलबदल हुए और राज्य विधानसभाओं में 2700, जिनमें से 212 दलबदल विधायकों को मंत्री बनाया गया, 15 विधायक मुख्यमंत्री बने। अ

नेक नेताओं ने एक से अधिक बार और कुछ नेताओं ने 5 बार तक दलबदल किया। एक विधायक ने 5 बार दलबदल किया और वह केवल 5 दिन मंत्री रहा। राजनीतिज्ञ सत्ता और पैसे की अपनी लोलुपता के लिए एक बन जाते हैं और इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि उनके लिए किसी एक पार्टी के लिए मोह नहीं है तथा वे सबसे ऊंची बोली लगाने वाले के साथ जा सकते हैं। उनका क्रय मूल्य उन्हें मिलने वाले लाभ पर निर्भर करता है। इस बात को झारखंड मुक्ति मोर्चा के सूरज मंडल ने 1993 में लोकसभा में स्पष्टत: कहा था ‘‘पैसा बोरियों में आता है।’’ यही नहीं, राजनेता गिरगिट की तरह अपनी निष्ठा को एक पार्टी से दूसरी पार्टी को समर्पित कर देते हैं और यह जीतने की संभावना पर आधारित होता है। 

संरक्षण, अवसरवाद और सत्ता में हिस्सेदारी ऐसे चुंबक हैं जो दलबदलुओं को अपने नए आकाओं के साथ जोड़ते हैं और जिसके चलते अलग-अलग विचारधारा की पाॢटयां एकजुट हो जाती हैं तथा इस प्रकार विधायकों में सेंधमारी को एक स्मार्ट राजनीतिक प्रबंधन कहा जाता है। इसके लिए धन का प्रलोभन, धमकाने के लिए राज्य तंत्र का प्रयोग आदि किया जाता है। सत्तारूढ़ दल में आने से दलबदलू सारे दोषों और अपराधों से मुक्त हो जाता है। 

यह निम्न नैतिकता और उच्च प्रलोभन को दर्शाता है। ऐसे नेता अपनी मनमर्जी से अलग-अलग पार्टियों के चोगे पहन लेते हैं और यह सब कुछ समय की मांग के अनुसार किया जाता है। ये विचारधारा या पारस्परिक हितों या उद्देश्यों की परवाह नहीं करते और यही आज की राजनीति है। सत्ता बचाओ और तमाशा देखो उनका मूल उद्देश्य और सबसे महत्वपूर्ण गद्दी होती है। प्रश्न उठता है कि क्या दलबदल एक संवैधानिक पाप है? हां, बिल्कुल है। वर्ष 2017 में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रावत के मामले में उच्चतम न्यायालय ने ऐसा कहा था। 

न्यायालय ने इस बात को रेखांकित किया था कि अपवित्र विश्वासघात को विलय या बड़े पैमाने पर दलबदल का मुखौटा पहनाया जाता है और इसे राजनीतिक मजबूरियों, सुविधा और अवसरवाद की राजनीति के कारण संवैधानिक रूप से स्वीकार किया जाता है। झूठ, फरेब और धोखे के इस खेल में भाजपा, कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियां आज के भारत के उभरते सच को परिलक्षित करती हैं कि सत्ता ही सब कुछ है। 

आदर्श स्थिति यह है कि सभी लोगों को संसदीय लोकतंत्र की इस वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए। लोकतंत्र के इस बाजार मॉडल में यह मानना गलत होगा कि पाॢटयां विचारधारा से शासित होती हैं, वे लोगों की आकांक्षाओं और कल्पना को आकॢषत करते हैं और पैसे से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का वातावरण बनाते हैं और इस सारे क्रम में राजनीतिक प्रदूषण और भ्रष्टाचार बढ़ता जाता है। राजनीतिक दलों के ऐसे व्यवहार की अवसरवाद के रूप में निंदा करने की बजाय राजनीतिक महत्वाकांक्षा का प्रतीक माना जाता है और इस प्रक्रिया में हमारे राजनेता भूल जाते हैं कि वे चुनावों के बाद घृणा का एक विषैला वातावरण छोड़ कर जाते हैं। 

इस अनैतिक राजनीतिक मरुस्थल में मतदाताओं को कठिन निर्णय करना होगा। हम अपनी जि मेदारियों से भागकर इसे राजनीतिक कलियुग नहीं कह सकते। हमारे राजनेताओं को सार्वजनिक हित के नाम पर अपनी व्यक्तिगत निष्ठा का उपयोग करने से बचना चाहिए। उन्हें अपनी प्राथमिकताओं पर पुनॢवचार करना और विनाशक अविवेक से बचना चाहिए। राजनीति के लिए आवश्यक है कि उसमें विश्वसनीयता, सत्यनिष्ठा, विश्वास और साहस हो। किसी देश के लिए सस्ते राजनेताओं से अधिक महंगा कुछ भी नहीं पड़ता।-पूनम आई. कोशिश     


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