समय-समय पर राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री में मतभेद उपजते रहे

punjabkesari.in Saturday, Jul 09, 2022 - 05:43 AM (IST)

देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिए 18 जुलाई के चुनावों में भारत का अगला राष्ट्रपति कौन होगा? भाग्य पहले से ही तय है। 17 विपक्षी दलों के उम्मीदवार यशवंत सिन्हा हैं जबकि आदिवासी महिला नेता द्रौपदी मुर्मू भाजपा के नेतृत्व वाली राजग की पसंद हैं। उड़ीसा के मयूरभंज जिले से संबंध रखने वाली एक संथाल आदिवासी महिला मुर्मू ने अपनी पढ़ाई भुवनेश्वर में यूनिट दो हाई स्कूल से तथा रामादेवी वूमन कालेज से की। 

मुर्मू ने अपने करियर की शुरूआत सिंचाई एवं ऊर्जा विभाग में बतौर क्लर्क से की। वहां पर उन्होंने 1979 से लेकर 1983 तक कार्य किया। उसके बाद 1994 से 1997 के मध्य रायरंगपुर में एक शिक्षक के तौर पर उन्होंने अपनी सेवाएं दीं। रायरंगपुर में अपनी सेवाएं देने के दौरान उन्होंने राजनीति में रूचि दिखानी शुरू की। उनका राजनीतिक करियर 1997 में शुरू हुआ जब उन्होंने भाजपा को ज्वाइन किया। इसके बाद रायरंगपुर से ही वह कौंसलर चुनी गईं। उसके बाद मुर्मू ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

मुर्मू ने अपना ध्यान आदिवासी लोगों के अधिकारों तथा उनके जीवन को उठाने पर केंद्रित किया। उनका मुकाबला वरिष्ठ राजनीतिज्ञ यशवंत सिन्हा से हो रहा है जो पटना से संबंध रखते हैं। उन्होंने 1960 में आई.ए.एस. को ज्वाइन किया। 1974 में उन्होंने जय प्रकाश नारायण के साथ जुड़ कर सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान किया। राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बीच यशवंत सिन्हा पूर्व प्रधानमंत्री चंद्र शेखर के निकट आए। 

1993 में सिन्हा भाजपा में शामिल हुए और भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण अडवानी के बेहद करीब रहे। मगर 2005 में उनकी पाकिस्तान की यात्रा के बाद सिन्हा ने उनसे दूरी बना ली। अडवानी ने उस समय कहा था, ‘‘जिन्ना एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे।’’ 2018 में कुछ बातों में हुई मतभेदों के कारण सिन्हा ने भगवा पार्टी को अलविदा कह दिया। उसके बाद वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कट्टर आलोचक रहे। 

21 अप्रैल 2018 को उन्होंने भाजपा से इस्तीफा दे दिया तथा भाजपा विरोधी राष्ट्रमंच को स्थापित किया। उसके बाद सिन्हा ने तृणमूल कांग्रेस का हाथ थामा तथा पार्टी के उपाध्यक्ष बने। जो कुछ भी हो यशवंत सिन्हा का राजनीतिक करियर शानदार रहा। बतौर भाजपा नेता वे कांग्रेस तथा वामदलों के दो दशकों तक कट्टर आलोचक रहे तथा राष्ट्रपति पद की रेस में निश्चित तौर पर वह विपक्ष के एक लाजवाब उम्मीदवार हैं। हालांकि आदिवासी महिला का प्रवेश यशवंत सिन्हा तथा उनके समर्थकों और दोस्तों के गणित को बिगाड़ सकता है। 

राष्ट्रपति भवन के लिए विपक्षी उम्मीदवार के तौर पर अपना नामांकन पत्र दाखिल करने के बाद  सिन्हा ने अपना एक बहादुरी वाला चेहरा दर्शाया है। इस चुनाव को उन्होंने विचारधाराओं का युद्ध बताया है। यह सत्य भी है। हालांकि मेरा मानना है कि भारतीय राजनीति ले-देकर एक मौकापरस्त की राजनीति है। सिन्हा का मानना है कि कैबिनेट तथा संसद भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार के अधीन गतिहीन हो चुकी है क्योंकि यह सरकार को राष्ट्रपति के कार्यालय में एक ‘रबड़ स्टैम्प’चाहिए। 

अपने इस विचार में यशवंत सिन्हा बिल्कुल सही हैं। उनकी यह समीक्षा मुझे मशहूर कार्टूनिस्ट अबू अब्राहम के कार्टून की याद दिलाती है जिसमें फखरूद्दीन अली अहमद निष्ठापूर्वक 1975 में आपातकाल वाले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के प्रस्तावित आर्डीनैंस पर हस्ताक्षर करते नजर आए। अन्य कई मौकों पर राष्ट्रपति भवन में जाने वाले लोगों ने अपनी राजनीतिक इच्छा के लिए कार्यालय की डिगनिटी से समझौता किया। हालांकि यह कहा जाना चाहिए कि ‘एडजस्टमैंट’देश के राजनीतिक जीवन का हिस्सा बन चुकी है। 

राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री में हो रहे आमने-सामने ने शायद ही देश के हितों पर ध्यान दिया हो। यहां पर इन दोनों के बीच आपसी सूझबूझ होनी चाहिए। एक प्रधानमंत्री से कुछ नियमों को निभाने की आशा की जाती है। ऐसी मिसाल राजीव गांधी के रूप में थी जिन्होंने ज्ञानी जैल सिंह को नकारने की कोशिश की। गांधी परिवार से बेहद नजदीकी और उनसे वफादारी होने के कारण ज्ञानी जी आहत हुए। उन्होंने ऐसी बात मुझसे कही थी। मैं अभी भी उनकी उस बात को याद करता हूं जो उन्होंने राजीव गांधी के बारे में कही थी। उन्होंने कहा था कि, ‘‘यदि मैडम मुझे फर्श पर झाड़ू लगाने के लिए कहेंगी तो मैं ऐसा करने से हिचकिचाऊंगा नहीं।’’हालांकि ज्ञानी जी ने अपना शांत स्वभाव कायम किए रखा और मुझे राष्ट्रपति भवन में कहा कि वह निश्चित तौर पर राजीव गांधी के व्यवहार से आहत हुए हैं मगर वह इंदिरा जी के बेटे को कभी भी चोट पहुंचाना नहीं चाहेंगे। 

ज्ञानी जैल सिंह-राजीव गांधी के बीच वाला यह घटनाक्रम कोई एक मिसाल नहीं जो राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के रिश्तों में उत्पन्न हुई हो। पीछे की ओर देखते हुए समय-समय पर शीर्ष स्तर पर मतभेद उपजे हैं। डा. राजेन्द्र प्रसाद तथा पंडित जवाहर लाल नेहरू के बीच भी मतभेद की मिसालें देखी गई हैं। डा. एस. राधाकृष्णन को भी चीन पर नेहरू की नीतियों के एक बड़े आलोचक के तौर पर जाना जाता है। यही बात नीलम संजीवारैड्डी तथा मोरार जी देसाई के बीच भी देखी गई।-हरि जयसिंह    
 


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