राजनीतिक दलों द्वारा दी जाने वाली मुफ्त सुविधाओं का अंत होना चाहिए

punjabkesari.in Thursday, Apr 07, 2022 - 04:04 AM (IST)

जहां चुनावों से पहले राजनीतिक दल सभी तरह के वायदे करते हैं, मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए मुफ्त की सुविधाएं देने का खतरनाक रुझान बढ़ता जा रहा है। यह सब कुछ  करदाताओं के धन से किया जा रहा है जिसके लिए श्रेय सरकार लेती है लेकिन भुगतान देश को करना पड़ता है। 

अत: रोजगार पैदा करने अथवा अपने कुटीर उद्योग शुरू करने के लिए सस्ते ऋण उपलब्ध करवाने की बजाय राजनीतिक दल सभी महिलाओं को 1000 रुपए से लेकर 2000 रुपए तक के गफ्फे पेश कर रहे हैं। यह राशि भीख देने के समान लगती है, बजाय इसके कि उन्हें आत्मनिर्भर बनाने अथवा अपनी गरिमा बढ़ाने के लिए प्रयास किए जाएं। अन्य आफर्स में मुफ्त बिजली, पानी और यहां तक कि एल.पी.जी. सिलैंडर भी शामिल हैं। बिजली पैदा करने की लागत बढ़ती जाने तथा देश के अधिकतर भागों में बड़े-बड़े बिजली कटों का सामना करने से इन वायदों से अर्थव्यवस्था को कोई मदद नहीं मिलने वाली। 

इनकी बजाय उदार सबसिडियां अथवा दीर्घकालिक ऋण उपलब्ध करवाए जाने चाहिएं ताकि सौर ऊर्जा इकाईयां स्थापित की जा सकें। इसी तरह आपदाओं के दौरान नि:शुल्क खाद्यान्न उपलब्ध करवाए जाने चाहिएं लेकिन जब सामान्य हालात हो जाएं तो ऐसी सुविधाओं को जारी रखना तर्कसंगत नहीं है। लाभार्थियों को राष्ट्र निर्माण के लिए कुछ कार्य करने के काबिल बनाया जाना चाहिए बजाय इसके कि उन्हें भिखारियों में बदल दिया जाए। निश्चित तौर पर कमजोर अथवा काम न कर सकने वाले बुजुर्गों के लिए नि:शुल्क भोजन की व्यवस्था होनी चाहिए। 

हाल ही में वरिष्ठ नौकरशाहों ने प्रधानमंत्री के सामने यह मुद्दा उठाया था। ये अधिकारी, जिन्हें प्रधानमंत्री ने देश के सामने मौजूद चुनौतियों पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया था, ने राजनीतिक दलों द्वारा चुनावों के दौरान घोषित की जाने वाली ऐसी लोक-लुभावन योजनाओं तथा मुफ्त की सुविधाओं की ओर इशारा किया जिनके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। उनमें से कुछ ने तो यहां तक चेतावनी दे डाली कि यदि रुझान पर अंकुश नहीं लगाया गया तो कुछ राज्य श्रीलंका अथवा ग्रीस जैसी स्थिति में पहुंच सकते हैं जहां नकदी का अभाव हो गया है। 

उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कई राज्यों में ऐसी घोषणाएं तथा योजनाएं आर्थिक तौर पर अमल में नहीं लाई जा सकतीं क्योंकि ऐसे राज्यों में आर्थिक स्थितियां बहुत कमजोर हैं। 
उदाहरण के लिए पंजाब 3 लाख करोड़ रुपए के कर्ज के नीचे दबा है तथा इसको देश में सर्वाधिक कर्जे वाले राज्य का श्रेय प्राप्त है। निश्चित तौर पर इसका एक कारण लम्बे समय तक यहां आतंकवाद का रहना है लेकिन राज्य में विभिन्न सरकारों ने इसकी अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के लिए बहुत कम प्रयास किए। इसकी बजाय यहां मुफ्त की सुविधाएं देने के लिए एक प्रतिस्पर्धात्मक रुझान है। 

यह केवल पंजाब नहीं बल्कि पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे राज्य भी खजाने पर इस तरह की लोक-लुभावन तथा मुफ्त की सुविधाओं के साथ राज्य के खजाने पर बोझ डाल रहे हैं। स्वाभाविक है कि यह रुझान राज्य सरकार के महत्वपूर्ण सामाजिक क्षेत्रों के लिए अधिक फंड आबंटित करने की क्षमता को सीमित कर देता है जैसे कि स्वास्थ्य तथा शिक्षा। 

जिन वरिष्ठ अधिकारियों ने प्रधानमंत्री से बात की, उन्होंने कहा कि प्रत्येक चुनाव से पहले राजनीतिक संगठनों के बीच मुफ्त की सुविधाएं देने के इस रुझान के राज्य तथा केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति पर दीर्घकाल में गंभीर परिणाम हो सकते हैं। इस बैठक में केंद्र सरकार के अन्य शीर्ष नौकरशाहों के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव पी.के. मिश्रा तथा कैबिनेट सचिव राजीव गाबा भी शामिल थे। 

इस बात की ओर भी इशारा किया गया कि जहां राज्यों को केंद्रीय करों तथा जी.एस.टी. में एक हिस्सा मिलता है, राजस्व के उनके अपने स्रोत शराब पर आबकारी शुल्क तथा पैट्रोल पर वैट तक सीमित हैं जिनके अतिरिक्त सम्पत्ति तथा मोटर वाहन पंजीकरण की रसीदों से आय होती है। इन सीमित स्रोतों में से मुफ्त की सुविधाएं पेश करना विकास तथा वृद्धि की संभावनाओं को और भी कम कर देता है। 

श्रीलंका में वर्तमान आर्थिक संकट से सबक लेने की जरूरत है। इस समय यह अपने इतिहास के सर्वाधिक खराब आर्थिक संकट का सामना कर रहा है जहां ईंधन, कुकिंग गैस तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं के लिए लम्बी कतारें लगी हुई हैं और यहां तक कि सब्जियों तथा खाद्यान्नों की कीमतें भी आम आदमी  की पहुंच से बाहर हो गई हैं जिस कारण देश में व्यापक अशांति का माहौल बन गया है। 

कोविड महामारी के दौरान इसके पर्यटन उद्योग, जो इसके राजस्व का मुख्य स्रोत था, को पहुंची चोट के अतिरिक्त वर्षों से घटिया वित्तीय प्रबंधन ने देश को भारी कर्ज के बोझ तले दबा दिया है। यहां तक कि अपना कर्ज चुकाने के लिए ही इसे और अधिक उधार लेने को मजबूर होना पड़ रहा है। कई देशों तथा अंतर्राष्ट्रीय मौद्रिक एजैंसियों ने इसे और अधिक ऋण देने से इंकार कर दिया है जिससे यह आवश्यक वस्तुओं का आयात करने में सक्षम नहीं रहा।-विपिन पब्बी
 


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