द्रमुक के लिए ‘उगता सूरज’ धुंधली भोर की तरह

punjabkesari.in Thursday, May 06, 2021 - 04:06 AM (IST)

तमिलनाडु  में द्रमुक ने 10 वर्षों तक विपक्ष में बैठने के बाद सत्ता में वापसी की है। पार्टी की मुख्य वैचारिक विरोधी भाजपा को उसके ट्रैक में रोक दिया गया है। हालांकि कोविड-19 प्रतिबंधों के बावजूद पार्टी कैडर ने जश्न मनाया। पार्टी के बुद्धिजीवी बड़े पैमाने पर चुप थे। उन्होंने केवल पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की शानदार जीत के लिए इस चुप्पी को तोड़ दिया।

द्रमुक गठबंधन ने कुल 234 सीटों में से 158 सीटें जीती हैं। कई दशकों से तमिल बौद्धिक वर्ग का द्रमुक की तरफ पक्षपातपूर्ण रवैया रहा है। इस बार ज्यादातर स्वतंत्र टिप्पणीकारों और केंद्र वादियों ने द्रमुक के पीछे अपना सारा जोर लगाया है क्योंकि वह भाजपा को तमिलनाडु से बाहर देखना चाहते थे। सोशल मीडिया पर भाजपा समर्थित लोगों को बहुत कम स्थान मिला। पब्लिक का रुझान भाजपा के खिलाफ था। 

2006, 2011 और 2016 के विधानसभा चुनावों में उनकी भविष्यवाणी द्रमुक के पक्ष में थी। 2004 के आम चुनावों में सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक की घोर पराजय के बावजूद 2016 में द्रमुक एकमात्र अल्पसंख्यक सरकार बना सकी, जिसने 234 सीटों में से केवल 96 सीटें ही हासिल कीं। द्रमुक ने विपक्षी पार्टी की हैसियत भी खो दी। उसने कुल सीटों का 10 प्रतिशत ही हासिल किया। 2016 में यह भविष्यवाणी की गई कि पार्टी सरकार का गठन करेगी। हालांकि इसने चुनावों को खो दिया। 

1990 के अंत से लेकर भाजपा सदैव ही द्रमुक या अन्नाद्रमुक के साथ चुनावी गठबंधन में रही है। अपने बल पर पार्टी को कई कठिनाइयां देखने को मिलीं। 2001 में भाजपा ने द्रमुक के साथ गठबंधन किया और तमिलनाडु विधानसभा में इसने 4 सीटें हासिल कीं। दो दशक के अंतराल के बाद भाजपा ने अन्नाद्रमुक के समर्थन के साथ विधानसभा में प्रवेश किया। लेकिन राष्ट्रीय राजनीति के प्रभुत्व के बावजूद इसकी सीट तालिका वैसी ही रही।

हालांकि तमिलनाडु की राजनीति में भाजपा ने एक दिलचस्प मोड़ लिया है। तमिलनाडु के लिए मुरुगन वैसे ही हैं जैसे पश्चिम बंगाल के लिए काली है। कुछ साल पहले क्रूपर कूटम (काला समूह) नामक एक परियार समूह ने मुरुगन के खिलाफ अभियान छेड़ा। तमिलनाडु तर्कवादियों द्वारा किए गए इस तरह के कृत्यों से परिचित था। लेकिन हिंदुत्व के उदय के साथ तमिलनाडु में यह उत्पन्न हुआ। मुरुगन को एक तमिल भगवान के तौर पर देखा जाता है। इसलिए प्रतिक्रिया अलग थी। द्रमुक ने इस समूह से अपनी दूरी बनाई। इस समूह के सदस्यों को गिर तार कर उन्हें जेल भेज दिया गया। 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन हुआ। भाजपा ने इस मौके को भुनाना चाहा और द्रमुक को एक बार फिर हिंदू विरोधी पार्टी के तौर पर प्रकट किया। चुनावी मुहिम के दौरान द्रमुक नेता भगवान मुरुगन के दिव्य भाले के साथ नजर आए। भाजपा ने भी यह पाया कि तमिलनाडु में वह मोदी के नाम पर वोट हासिल नहीं कर सकती। जैसे-जैसे चुनावी मुहिम आगे बढ़ी, मोदी के विशाल चित्रों और पोस्टरों का स्थान जयललिता और एम.जी.आर. के चित्रों ने ले लिया। 

इन चुनावों में अपनी हार के लिए पूर्व मु यमंत्री के. पलानी स्वामी खुश नजर आए। चुनावों को जीतने से ज्यादा उनकी रुचि पार्टी को एकजुट करने में रही। उन्होंने कोई बड़ा गठबंधन करने की कोशिश नहीं की। इन चुनावों में ए.एम.एम.के. पूरी तरह से विलुप्त हो गए। पलानी स्वामी अन्नाद्रमुक के एक बड़े नेता के तौर पर उभरे हैं। जैसा कि भविष्यवाणी की गई थी कि भाजपा के साथ अन्नाद्रमुक का गठबंधन करने का निर्णय पार्टी को महंगा पड़ा। यह एक ऐसा गठबंधन नहीं था जिसकी कामना पार्टी ने की थी। 

द्रमुक फ्रंट के साथ यहां पर कुछ अप्रत्याशित घटनाएं हुईं। पहली मर्तबा द्रमुक के सहयोगियों ने बेहतर स्ट्राइक रेट दिया और जीत का फासला भी ज्यादा रहा। 2004 में द्रमुक यू.पी.ए. में शामिल हुआ था और मनमोहन सरकार में बड़़े मंत्रालयों से दूरी बनाई थी। 2009 में भी ऐसा ही हुआ। हालांकि 2005 में जब द्रमुक ने तमिलनाडु में कांग्रेस के समर्थन से अल्पसं यक सरकार बनाई तब इसने सत्ता बांटने से इंकार कर दिया। इस बार कांग्रेस ने 25 में से 18 सीटें जीती हैं।

अन्य सहयोगी दल वी.सी.के. ने 6 में से अपनी 4 सीटें जीतीं। तमिलनाडु की राजनीति के लिए द्रमुक, कांग्रेस, वी.सी.के. और क युनिस्ट पार्टियों की एक गठबंधन सरकार एक जल विभाजन जैसा क्षण होगा। यदि द्रमुक उन्हें सरकार में शामिल होने के लिए इंकार करती है तो वह विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे। द्रमुक के लिए उगता सूरज धुंधली भोर की तरह लग रहा है।-कन्न सुन्दरम


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