विस्तार के लिए ‘हिंदी’ को पवित्रता का आग्रह छोड़ना होगा

punjabkesari.in Thursday, Sep 19, 2019 - 12:47 AM (IST)

भला हो अमित शाह जी का कि उन्होंने विनोबा को फिर से पढ़वा दिया। हिंदी की प्रकृति और राष्ट्र निर्माण में हिंदी की भूमिका के बारे में इतनी मायनेखेज बात और कौन कह सकता था। अगर आज के संदर्भ में उनकी बात नहीं सुनेंगे तो भला कब सुनेंगे? 

इस साल मैंने सोचा था कि हिंदी दिवस पर कोई लेख नहीं लिखूंगा। कई बार लिख चुका हूं और सच कहूं तो एक ही बात को दोहरा कर थक चुका हूं। न हिंदी दिवस की रस्म बदलती है, न हिंदी की दुर्दशा। इसलिए इस बार मौन रखने की ठानी थी लेकिन फिर माननीय गृह मंत्री अमित शाह जी का बयान आ गया। बयान पर प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गई। मुझे भी झक मार कर उनका आधे घंटे का भाषण सुनना पड़ा और त्वरित प्रतिक्रिया देनी पड़ी। 

गृह मंत्री जी की कई बातों से मैं सहमत था। हमें अपनी भाषाओं का सम्मान करना चाहिए कि भारत विविध भाषाओं का देश है कि हम अपनी भाषाओं को समृद्ध नहीं करेंगे तो हमारी राष्ट्रीय चेतना विकसित नहीं होगी, कि सांस्कृतिक हीनता बोध हमारी राष्ट्रीय चेतना के विकास में बाधक है। यह बात भायी कि कोई गैर हिंदी भाषी इतना बढ़-चढ़कर हिंदी की वकालत कर रहा था। 

गृहमंत्री की बात से असहमति
गृह मंत्री जी की इस बुनियादी बात से मैं सहमत नहीं हो पाया कि राष्ट्रीय एकता के लिए एक भाषा की जरूरत है और यह काम केवल हिंदी कर सकती है। यूरोप के देशों में यह धारणा रही है कि एक भाषा के बिना राष्ट्र नहीं बन सकता। लेकिन भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने इस धारणा को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि भारत की राष्ट्रीय एकता भाषायी और सांस्कृतिक विविधता को स्वीकार करके ही बनेगी। अनेकता में एकता के फार्मूले की शुरूआत भाषायी अनेकता में राष्ट्रीय एकता से हुई थी। इसीलिए हमारे संविधान में ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का इस्तेमाल कहीं नहीं किया गया। हिंदी को केवल ‘राजभाषा’ का दर्जा दिया गया था। ऐसे में ङ्क्षहदी को थोपने की  कोशिश भारतीय राष्ट्रवाद और हमारे संविधान की भावना के विरुद्ध होगी। 

मंत्री जी ने ऐसी कई बातें कहीं जिनका सिर-पैर मुझे समझ नहीं आया। उन्होंने कहा कि हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाएं यूरोप की हर भाषा से श्रेष्ठ हैं। ऐसा मानने का क्या आधार है, यह नहीं बताया। सुषमा स्वराज जी के हवाले से उन्होंने यह दावा किया कि हिंदी बोलने वालों की संख्या पूरे विश्व में 20 प्रतिशत  है। मुझे कहीं भी 5 या 6 प्रतिशत से अधिक आंकड़ा नहीं मिला। उन्होंने राम मनोहर लोहिया के नाम यह उक्ति दर्ज कर दी कि, हिंदी के बिना लोकराज संभव नहीं है। मेरे ख्याल से लोहिया ने यह कहा था कि ‘लोकभाषा’ के बिना लोकराज संभव नहीं है। 

विनोबा का हिंदी प्रेम
मुद्दे की बात यह है कि इन महापुरुषों को गिनाते हुए मंत्री जी ने संत विनोबा भावे को याद किया और उनके ङ्क्षहदी प्रेम का हवाला दिया। आज की पीढ़ी में विनोबा को याद करने वाले कम ही लोग बचे हैं। महात्मा गांधी के प्रिय शिष्य और एक मायने में उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी विनोबा भावे अक्सर भूदान आंदोलन के कारण याद किए जाते हैं। अधिकांश लोग भूल गए हैं कि राजनीति और सामाजिक परिवर्तन में मग्न रहने वाला यह संत अनेक भाषाओं का प्रकांड पंडित भी था। अपनी मातृभाषा मराठी के साथ-साथ भारतीय संविधान में सूचीबद्ध सभी 14 भाषाओं पर उनकी पकड़ थी। साथ ही अंग्रेजी, फारसी और अरबी के ज्ञाता भी थे।

मंत्री जी ने विनोबा के इस वाक्य को उद्धृत किया कि ‘‘मेरे देश में हिंदी की अवमानना हो, यह मैं सहन नहीं कर सकता।’’ बात सही है। विनोबा ने कही थी लेकिन उसका संदर्भ हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं से श्रेष्ठ बताना नहीं था। विनोबा का संदर्भ था अंग्रेजी का वर्चस्व और उसके सामने हिंदी का अनादर, जो उन्हें असहनीय था। विनोबा हिंदी के पक्षधर थे, वह चाहते थे कि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में ङ्क्षहदी एक विशेष भूमिका अदा करे लेकिन उनकी समझ और आज हिंदी की वकालत करने वालों की समझ में एक बुनियादी अंतर था। 

हिंदी भाषा के गुणों की विवेचना करते हुए विनोबा कहते हैं कि हिंदी न तो तमिल जितनी पुरानी है, न ही कन्नड़ जैसी समर्थ है और न ही संस्कृत की तरह शब्द संपन्न। विनोबा हिंदी को देश की सबसे सरल और सुगम भाषा भी नहीं मानते थे क्योंकि इसमें लिंग भेद का लफड़ा है। विनोबा की नजर में हिंदी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह भाषा सबसे कम तकलीफ देती है और सबसे अधिक सहन करती है। यानी कि हिंदी को आप आसानी से तोड़-मरोड़ सकते हैं। हिंदी आपसे बहुत झगड़ा नहीं करती। ङ्क्षहदी का खिचड़ी स्वरूप ङ्क्षहदी की सबसे बड़ी विशेषता है। इसलिए विनोबा मानते थे कि राष्ट्रनिर्माण में ङ्क्षहदी की एक विशेष भूमिका है। 

हिंदी वादियों के लिए सबक
हिंदी की विशिष्टता के बारे में विनोबा की दृष्टि के सभी हिंदीवादियों  के लिए दो सबक हैं। पहला तो यह कि हिंदी बाकी सब भाषाओं के सामने झुक कर ही एक विशिष्ट भूमिका अदा कर सकती है, कानून या डंडे के जोर पर अपनी विशिष्टता का एहसास करवाकर नहीं। हिंदी को थोपने की कोशिश हुई तो उससे संविधान और राष्ट्रीय एकता का ही नहीं, खुद हिंदी का नुक्सान होगा। दूसरा सबक यह है कि हिंदी को विस्तार के लिए पवित्रता का आग्रह छोडऩा होगा। विनोबा ने समझाया कि अगर हिंदी नदी की तरह पवित्र निर्मल और दो छोर के बीच बनी रहना चाहती है तो वह केवल एक क्षेत्रीय भाषा बन कर रह जाएगी। अगर हिंदी पूरे देश की भाषा बनना चाहती है तो उसे समुद्र की तरह खुला बनना होगा, सब तरह के भाषायी आग्रहों को आत्मसात करना होगा। कुछ ऐसी ही बात गांधीजी हिंदुस्तानी भाषा के बारे में कहते थे। 

शायद मंत्री जी ने विनोबा को उदाहरण से ज्यादा कुछ नहीं पढ़ा था। अन्यथा हिंदी को राष्ट्रनिर्माण के लिए अनिवार्य बताते हुए मंत्री जी ङ्क्षहदी की पवित्रता का आग्रह न करते। अगर वह विनोबा को पूरा पढ़ लेते तो शायद समझ जाते कि हिंदी भारत के जनमानस की एक भाषा बन सकती है लेकिन उस अर्थ में राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती जैसी जर्मनी के लिए जर्मन या फ्रांस के लिए फ्रैंच। काश! कोई हमारे नए ‘राष्ट्रवादियों’ को भारत और यूरोप का अंतर समझा दे।-योगेन्द्र यादव
 


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