पहले मैं भी ‘चौकीदार’ और अब मैं भी ‘बेरोजगार’

punjabkesari.in Monday, Sep 21, 2020 - 03:56 AM (IST)

मद्रास आई.आई.टी. के प्रोफैसर एम. सुरेश बाबू और साईं चंदन कोट्टू ने देश की बेरोजगारी पर एक तथ्यात्मक शोध पत्र प्रस्तुत किया है जिसे आम पाठकों के लाभ के लिए सरल भाषा में यहां उद्धृृत कर रहा हूं। उनका कहना है 50 हजार करोड़ के ‘गरीब कल्याण रोजगार अभियान’ से फौरी राहत भले ही मिल जाए, पर शहरों में इससे सम्माननीय रोजगार नहीं मिल सकता। देश के आर्थिक और सामाजिक ढांचे को देखते हुए शहरों में अनौपचारिक रोजगार की मात्रा को क्रमश: घटा कर औपचारिक रोजगार के अवसर को बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए। देश की सिकुड़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण बेरोजगारी खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी है। भवन निर्माण क्षेत्र में 50 प्रतिशत, व्यापार, होटल व अन्य सेवाआें में 47 प्रतिशत, औद्योगिक उत्पादन क्षेत्र में 39 प्रतिशत और खनन क्षेत्र में 23 प्रतिशत बेरोजगारी फैल चुकी है। 

चिंता की बात यह है कि ये वे क्षेत्र हैं जो देश को सबसे ज्यादा रोजगार देते हैं। इसलिए उपरोक्त आंकड़ों का प्रभाव भयावह है। जिस तीव्र गति से ये क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं उससे तो और भी तेजी से बेरोजगारी बढऩे की स्थितियां पैदा हो रही हैं। दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न कर पाने की हालत में लाखों मजदूर व अन्य लोग जिस तरह लॉकडाऊन शुरू होते ही पैदल ही अपने गांवों की आेर चल पड़े उससे इस स्थिति की भयावहता का पता चलता है। वे कब वापस शहर लौटेंगे या नहीं लौटेंगे, अभी कहा नहीं जा सकता। जिस तरह पूर्व चेतावनी के बिना लॉकडाऊन की घोषणा की गई उससे निचले स्तर के अनौपचारिक रोजगार क्षेत्र में करोड़ों मजदूरों पर गाज गिर गई। उनके मालिकों ने उन्हें बेदर्दी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। बेचारे अपने परिवारों को लेकर सड़क पर आ गए। 

उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोजगार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मजदूर कम मजदूरी पर, बेहद मुश्किल हालातों में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें। क्योंकि इनका ट्रेड यूनियनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.आे.) के अनुसार भारत में 53$ 5 करोड़ मजदूरों में से 39$8 करोड़ मजदूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं। जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपए से भी कम होती है। इसलिए मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं। पहली; शहरों में रोजगार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले 6 वर्षों में बेरोजगारी का  फीसदी लगातार बढ़ता गया है। दूसरा; शहरी मजदूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएं, जिससे उन्हें अमानवीय स्थिति से बाहर निकाला जा सके। 

इसके लिए तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए, शहरी रोजगार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियां बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा; स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन वाली विकासात्मक नीतियां लागू करनी होंगी। तीसरा; शहरी मूलभूत ढांचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा; देखा यह गया है कि विकास के लिए आबंटित धन का लाभ शहरी मजदूरों तक कभी नहीं पहुंच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। 

इसलिए नगर पालिकाआें में विकास के नाम पर खरीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोजगार बढ़ेगा। पांचवां; शहरी रोजगार योजनाआें को स्वास्थ्य और सफाई जैसे क्षेत्र में तेजी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है क्योंकि हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि वह प्रवासी मजदूरों को रोजगार दे सके। अगर होती तो वे गांव छोड़ कर शहर नहीं गए होते। 

करोड़ों नौजवान आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर भी बेरोजगार हैं। उनका आक्रोश इतना बढ़ चुका है कि उन्होंनेे अब अपने नाम के पहले ‘चौकीदार’ की जगह ‘बेरोजगार’ जोड़ लिया है। इतना ही नहीं सोशल मीडिया पर एक व्यापक अभियान चला कर इन नौजवानों ने प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिवस को ही ‘बेरोजगारी दिवस’ के रूप में मनाया। यह एक खतरनाक शुरूआत है जिसे केवल वायदों से नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में शिक्षित रोजगार उपलब्ध कराकर ही रोका जा सकता है।-विनीत नारायण 


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