राष्ट्र निर्माण में भी योगदान दे सकती हैं फिल्में

punjabkesari.in Wednesday, Mar 23, 2022 - 04:59 AM (IST)

भारतीय सिनेमा का इतिहास भारत के आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक मूल्यों और संवेदनाओं का एक ऐसा इंद्रधनुष है, जिसमें भारतीय समाज की विविधताएं उसकी सामाजिक चेतना के साथ सामने आती हैं। देश में अलग-अलग समय में अलग तरह की फिल्मों का निर्माण किया गया। 1940 की फिल्मों का दशक गंभीर और सामाजिक समस्याओं से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रख कर फिल्मों के निर्माण का समय था। 1950 का दशक फिल्मों का आदर्शवादी दौर था। 1960 का वक्त 1950 के दशक से काफी अलग था। राज कपूर ने जो रोमांटिक फिल्मों का ट्रैंड शुरू किया, वह इस दौर में अपने पूरे शबाब पर था। 1970 का दशक व्यवस्था के प्रति असंतोष और विद्रोह का था। फिल्मों का 1980 का दशक यथार्थवादी फिल्मों का दौर था, जबकि 1990 का वक्त आर्थिक उदारीकरण का था। 

सिनेमा भारतीय समाज की कहानी को कहने का सशक्त माध्यम रहा है। इसके जरिए भारत की स्वतंत्रता की कहानी, राष्ट्रीय एकता को कायम रखने के संघर्ष की कहानी और वैश्विक समाज में भारत की मौजूदगी की कहानी को चित्रित किया जाता रहा है। भारतीय सिनेमा में बदलते भारत की झलक भी मिलती रही है। 1943 में बनी फिल्म ‘किस्मत’ उस दौर में सुपरहिट साबित हुई थी। भारत छोड़ो आंदोलन जब चरम पर था तब इस फिल्म का एक गाना बेहद लोकप्रिय हुआ था, ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालो, हिंदुस्तां हमारा है।’ 

1949 में भारत को स्वतंत्रता मिले कुछ ही वक्त हुआ था। देश के तौर पर हमारी पहचान बस बन रही थी। तब ‘शबनम’ नामक फिल्म में पहली बार विविध भाषाई गीत का प्रयोग किया गया, जिसमें बंगाली, मराठी और तमिल भाषा का इस्तेमाल किया गया था। इसके जरिए दर्शकों को यह बताने की कोशिश की गई थी कि ये सभी भाषाएं भारतीय हैं। मशहूर फिल्मकार वी. शांताराम ने 1953 में विविध रंगी और बहुभाषी समाज होने के बाद भारत की एकता के मुद्दे पर ‘तीन बत्ती चार रास्ते’ फिल्म बनाई। इस फिल्म की कहानी में एक ऐसा परिवार था, जिसके घर की वधुएं अलग-अलग भाषाएं बोलती हैं। 

1960 में के. आसिफ ने अकबर की बादशाहत पर ‘मुगले-ए-आजम’ के तौर पर एक भव्य और ऐतिहासिक फिल्म बनाई, जबकि उसी वक्त राजकपूर ‘जिस देश में गंगा बहती है’ और दिलीप कुमार ‘गंगा-जमुना’ जैसी फिल्में बना रहे थे। 1981 में प्रदर्शित मनोज कुमार की फिल्म ‘क्रांति’ ने भारत बोध के एक नए युग की शुरूआत की। 2001 में आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ में भारत के एक गांव के किसानों को अपनी लगान माफी के लिए अंग्रेजों के साथ क्रिकेट मैच खेलते हुए दिखाया गया। यह विश्वस्त भारत की तस्वीर थी, जो अपने उपनिवेशवाद के दिनों को नए ढंग से देख रहा था। इसके अलावा भूमंडलीकरण और तेजी से बदलते महानगरीय समाज, खासकर महिलाओं की स्थिति को फिल्मों में दिखाया गया। ऐसी फिल्मों की शुरूआत 1994 में प्रदर्शित फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ से हुई। 

भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ की शक्ति में हमारी फिल्मों की बहुत बड़ी भूमिका है। ये फिल्में ही हैं, जो पूरे विश्व में भारतीयता का प्रतिनिधित्व करती हैं, दुनिया को भी वे अपनी ओर आकॢषत करती रही हैं। हमारी फिल्में पूरे विश्व में भारत की साख बढ़ाने, भारत को ब्रांड बनाने में भी बहुत बड़ी भूमिका निभाती हैं। सिनेमा की एक साइलैंट पावर यह भी है कि वह लोगों को बिना बताए, बिना यह जताए कि हम आपको ये सिखा रहे हैं, बता रहे हैं, एक नया विचार जगाने का काम करता है। अनेक ऐसी फिल्में हैं,  जिन्हें देखकर जब लोग निकलते हैं, तो अपने जीवन के लिए कुछ नए विचार साथ लेकर जाते हैं। 

भारतीय फिल्मों में आज दिख रहा बदलाव सिर्फ स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्मों जैसा भव्य नहीं है, बल्कि यह एक सौंदर्यशास्त्रीय बदलाव है, जो अपनी स्वतंत्र राह पकड़ रहा है। शौचालय जैसा विषय हो, महिला सशक्तिकरण जैसा विषय हो, खेल हों, बच्चों की समस्याओं से जुड़े पहलू हों, गंभीर बीमारियों के प्रति जागरूकता का विषय हो या फिर हमारे सैनिकों का शौर्य, आज एक से एक बेहतरीन फिल्में बन रही हैं। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ इस कड़ी का सबसे ताजा उदाहरण है। इन फिल्मों की सफलता ने सिद्ध किया है कि सामाजिक विषयों को लेकर भी अगर बेहतर विजन के साथ फिल्म बने, तो वह बॉक्स ऑफिस पर भी सफल हो सकती है और राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान भी दे सकती है।-प्रो. संजय द्विवेदी
 


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