बड़ी राजनीति बदलने के लिए जरूरी है कि छोटी राजनीति से बचे किसान आंदोलन

punjabkesari.in Thursday, Jan 06, 2022 - 07:16 AM (IST)

पिछले दिनों पंजाब के एक युवा किसान कार्यकत्र्ता से मुलाकात हुई। किसान आंदोलन को राजनीति करनी चाहिए या नहीं, इसे लेकर उसके मन में कई सवाल थे। हो सकता है उनमें से कुछ सवाल आपके मन में भी हों। हो सकता है इनमें से कुछ जवाब आपको भी जंचें। 

सवाल : हमने तो सोचा था आप राजनीतिक आदमी हैं, लेकिन फिर आप किसान संगठनों द्वारा पंजाब के चुनाव में हिस्सा लेने का विरोध क्यों कर रहे हैं?
जवाब : आपने सही सोचा। मुझे राजनीति में आस्था है। मैं तो राजनीति को आज का युगधर्म कहता हूं। हर समझदार, ईमानदार और दमदार नागरिक से अपील करता हूं कि वह राजनीति में आए। खेती-किसानी के भाग्य का फैसला तो सरकार द्वारा किया जाता है, इसलिए किसान को राजनीति पर नजर रखनी चाहिए, राज की नीति पर सवाल उठाने चाहिएं, किसान विरोधी नीतियों और नेताओं पर चाबुक चलाना चाहिए। किसान आंदोलन राजनीति से आंख मूंदकर न कभी रहा है, न रह सकता है, और न ही रहना चाहिए। 

सवाल : फिर तो आपको कहना चाहिए कि संयुक्त किसान मोर्चा के संगठन विधान सभा चुनाव लड़ें ...
जवाब : मैंने राजनीति में दखल देने की बात कही, चुनावी राजनीति की नहीं। किसान संगठनों को राजनीति करनी चाहिए लेकिन छोटी नहीं बड़ी राजनीति। दरअसल किसान बड़ी राजनीति कर सकें, इसके लिए किसान संगठनों को छोटी राजनीति से फासला बनाकर रखना चाहिए। 

सवाल : यह तो आपने सीधी-सी बात की जलेबी बना दी! राजनीति का मतलब चुनाव नहीं तो और क्या?
जवाब : यही तो सोच की गड़बड़ है। चुनावी राजनीति तो राजनीति का सिर्फ एक स्वरूप है। राजनीति का मकसद है समाज के शक्ति समीकरण में बदलाव। जब आज  उपेक्षित किसान वर्ग जबरदस्ती लादे गए किसान विरोधी कानूनों को रद्द करने की मांग करते हैं तो वे राजनीति कर रहे हैं। जब किसान अपनी मेहनत के वाजिब दाम के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) की गारंटी मांगते हैं तो वे राजनीति कर रहे हैं। यह राजनीति जरूरी है, वाजिब है और सुंदर है, लेकिन इसके लिए जरूरी नहीं कि चुनाव लड़ा जाए और वह भी किसान संगठन के नाम से। 

सवाल : यह तो अजीब बात हुई। मतलब किसान आंदोलन करें, संघर्ष करें और कोई दूसरे लोग चुनाव लड़ कर सत्ता की मलाई खाएं?
जवाब : लोकतंत्र में चुनाव लडऩा जरूरी है। चुनाव पर असर डालना जरूरी है और चुने हुए प्रतिनिधियों पर लगाम लगाना भी जरूरी है। लेकिन सत्ता की मलाई में फिसल न जाएं, इसके लिए चुनावी राजनीति की सख्त मर्यादा बनानी होगी। 

सवाल : पंजाब में कुछ किसान संगठनों ने ‘संयुक्त समाज मोर्चा’  बना कर अलग से चुनाव लडऩे की घोषणा की है। उससे भला आंदोलन की विरासत को क्या खतरा है?
जवाब : मुझे इसमें दो खतरे दिखाई देते हैं। पहला तो यह कि इससे किसान आंदोलन की एकता में दरार पड़ सकती है, जबकि आंदोलन अभी खत्म नहीं हुआ है। कुछ किसान संगठनों ने चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी है लेकिन पंजाब के सबसे बड़े किसान संगठनों ने इस घोषणा से अपने-आप को अलग कर लिया है। मुझे लगता है कि ‘संयुक्त समाज मोर्चा’ के सारे संगठन भी चुनाव तक एक साथ नहीं रह पाएंगे। दूसरा खतरा यह है कि किसान संगठन सचमुच अलग रहकर चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। चुनाव के नजदीक पहुंच कर उन्हें खुले या छुपे रूप में किसी न किसी ऐसी पार्टी से समझौता करना पड़ेगा जिस की नीतियां किसान विरोधी रही हैं। इस ऐतिहासिक आंदोलन की कमाई को ऐसी किसी पार्टी की झोली में डालना तो किसानों के संघर्ष के साथ गद्दारी ही कहलाएगी। 

सवाल : अगर किसानों की पार्टी सरकार बना ले, या फिर किसान नेता मुख्यमंत्री बन जाए तब भी?
जवाब : मेरी दिलचस्पी नाम में नहीं काम में है, मुख्यमंत्री के चेहरे में नहीं बल्कि सत्ता के चरित्र में है। फिलहाल पंजाब में इसकी गुंजाइश दिखाई नहीं देती कि किसानों की पार्टी अपने दम पर सरकार बना लेगी। ज्यादा से ज्यादा कुछ किसान नेता एम.एल.ए. बन जाएंगे। या फिर किसी और पार्टी को दिखाने के लिए किसान नेता का चेहरा मिल जाएगा। नेताओं को जो कुछ भी हासिल हो, सवाल है कि किसानों को क्या हासिल होगा? 

सवाल : तो आपका मतलब है कि इस विधानसभा चुनाव में किसान खाली दर्शक बन कर देखते रहें?
जवाब : जी नहीं। चुनाव में कौन चेहरे जीतते हैं उससे ज्यादा बड़ी बात यह है कि चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जाता है और चुनी हुई सरकार किस दबाव में काम करती है। पंजाब और बाकी राज्यों में किसान संगठन चुनाव के मुद्दे और एजैंडा तय कर सकते हैं। आंदोलन की ताकत के दम पर किसान संगठन सभी पार्टियों को मजबूर कर सकते हैं कि वे खेती में कॉरपोरेट कब्जे की नीतियों को खारिज करें और किसानों को उनका वाजिब दाम दिलाने का लिखित वादा करें। पंजाब के सिवा बाकी राज्यों में भाजपा चुनाव में प्रमुख दावेदार है। वहां बंगाल की तरह किसान आंदोलन द्वारा किसान विरोधी भाजपा को हराने का अभियान चलाया जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश में तो अजय मिश्र टेनी को मंत्री बनाए रखने के मुद्दे पर यह अभियान चलाना अनिवार्य होगा। 

सवाल : क्या इसे आप किसान की ‘बड़ी राजनीति’ का नमूना बताएंगे?
जवाब : बेशक, चुनाव में चंद चेहरे जिताने से बड़ी राजनीति है चुनाव का एजैंडा तय करना, लेकिन एक जिम्मेदारी है जो उससे भी ज्यादा बड़ी है। आज देश में लोकतंत्र का क्षय हो रहा है, संघीय ढांचे से खिलवाड़ हो रहा है, धर्मनिरपेक्षता को ताक पर रख दिया गया है। आज देश में इन संवैधानिक मूल्यों को बचाने वाली कोई संगठित ताकत नहीं दिख रही। 
आज किसान का अपना हित देश बचाने से जुड़ा है। देश बचेगा और लोकतंत्र बचेगा, तभी किसान बच सकते हैं। 

इसलिए किसान आंदोलन की बड़ी राजनीति यही होगी कि अगले 2 साल तक किसान आंदोलन देश बचाने की लड़ाई का सिरमौर बने। इस ऐतिहासिक किसान आंदोलन से हासिल हुई राजनीतिक पूंजी को चंद कुॢसयां खरीदने में खर्च कर देना किसान और देश दोनों के साथ धोखा होगा। इस पूंजी की हिफाजत करना, दूसरे आंदोलनों से रिश्ते बना कर इसमें ब्याज जोडऩा और इसे देश बचाने की मुहिम में  झोंकना ही सबसे बड़ी और पवित्र किसान राजनीति होगी।-योगेन्द्र यादव
 


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