हर किसान ‘महर्षि फिल्म जरूर देखे’

punjabkesari.in Monday, Oct 19, 2020 - 02:21 AM (IST)

सरकार द्वारा पारित किए गए कृषि उत्पाद कानूनों को लेकर आज देश में भारी विवाद उठ खड़ा हुआ है। जहां मोदी सरकार का दावा है कि इन क़ानूनों से किसानों को फयदा होगा, वहीं विपक्षी दल इसके नुक्सान गिनाने में जुटे हैं। देश के कई प्रांतों में इन मुद्दों पर आंदोलन भी चल रहे हैं। इसी दौरान ‘एमेजोन प्राइम’ टी.वी. चैनल पर आई तेलगू फिल्म ‘महर्षि’ देखी। 

इससे पहले कि इस फिल्म के विषय में मैं आगे चर्चा करूं, सभी पाठकों से कहना चाहूंगा कि अगर उनके टी.वी. में ‘एमेजोन प्राइम’ है तो उस पर, अन्यथा उनके जिस मित्र के घर ‘एमेजोन प्राइम’ हो वहां जाकर यह फिल्म अवश्य देखें। खासकर कृषि व्यवसाय से जुड़े परिवारों को तो यह फिल्म देखनी ही चाहिए। वैसे फि़ल्म थोड़ी लम्बी है, लगभग 3 घंटे की, लेकिन बिल्कुल उबाऊ नहीं है। आधुनिक युवाआें को भी यह फि़ल्म आकर्षित करेगी, क्योंकि इसमें उनकी रुचि का भी बहुत कुछ है। 

मूल फिल्म तेलगू में है, पर  हिंदी के ‘सबटाइटल’ साथ-साथ चलते हैं, जिससे ङ्क्षहदी भाषी दर्शकों को कोई दिक्कत नहीं होती। फिल्म का मुख्य किरदार ऋषि नाम का एक मध्यम वर्गीय युवा है जो लाखों अन्य युवाआें की तरह सूचना प्रौद्योगिकी की पढ़ाई करके अमरीका नौकरी करने जाता है और वहां अपनी कुशाग्र बुद्धि और मजबूत इरादों से कुछ ही वर्षों में एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी का सी.ई.आे. बन जाता है। इसमें असम्भव कुछ भी नहीं है। 

पिछले कुछ वर्षों में तमाम भारतीय अनेकों बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सी.ई.आे. बन कर दुनिया में नाम और बेशुमार दौलत कमा चुके हैं। ऋषि भी उसी मंजिल को हासिल कर लेता है और दुनिया का हर एेशो-आराम उसके कदमों में होता है। तभी उसकी जिंदगी में एक नाटकीय मोड़ आता है। जब वह अचानक अपने निजी हवाई जहाज में बैठ कर हैदराबाद के पास एक गांव में अपने सहपाठी से मिलने आता है, जो किसानों के हक के लिए मुंबई के एक बड़े औद्योगिक घराने से अकेला संघर्ष कर रहा होता है। 

यह औद्योगिक घराना उस ग्रामीण क्षेत्र में मिले प्राकृतिक तेल के उत्पादन का एक बड़ा प्लांट लगाने जा रहा है, जिसके लिए उस क्षेत्र के हरे-भरे खेतों से लहलहाते पांच दर्जन  गांवों को जड़ से उखाड़ा जाना है। मुआवजा भी इतना नहीं कि उजाड़े गए किसानों के परिवार दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर सकें। ऋषि इस समस्या का हल ढूंढने में जुट जाता है जिसमें उसका सीधा संघर्ष मुंबई के उसी औद्योगिक घराने से हो जाता है। पर अपनी बुद्धि, युक्ति, समझ और आन के बल पर ऋषि यह लड़ाई जीत जाता है। हालांकि इससे पहले उसके संघर्ष में कई उतार चढ़ाव आते हैं। 

जैसे जिन किसानों के लिए ऋषि और उसका मित्र, जान जोखिम में डाल कर दिन-रात लड़ रहे थे, वही किसान उद्योगपति और नेताआें की जालसाजी में फंसकर इनके विरुद्ध खड़े हो जाते हैं। पर जब ऋषि अपनी सैंकड़ों करोड़ रुपए की आय का 90 फीसदी इन किसानों की मदद के लिए खुले दिल से लुटाने को तैयार हो जाता है, तब किसानों को ऋषि की निष्ठा और त्याग की कीमत समझ में आती है। तब सारे इलाके के किसान ऋषि के पीछे खड़े हो जाते हैं। यह ऋषि की बहुत बड़ी ताकत बन जाती है। 

अपनी अकूत दौलत और राजनीतिक दबदबे के बावजूद मुंबई का वह उद्योगपति हाथ मलता रह जाता है। इस सफलता के बाद ऋषि अमरीका वापस जाने को अपने जहाज में बैठ जाता है। पर तभी उसे पिछले दिनों के अनुभव चलचित्र की तरह दिखाई देने लगते हैं और तब वह क्षण भर में फैसला लेकर बहुराष्ट्रीय कंपनी के सी.ई.आे. पद से इस्तीफा दे देता है। वह शेष जीवन किसानों के हक के लिए और उनकी मदद के लिए खुद किसान बन कर जीने का फैसला करता है।

वैसे तो किसानों की समस्याआें पर बिमल राय की ‘दो बीघा जमीन’ या बॉलीवुड की ‘मदर इंडिया’ और ‘लगान’ जैसी दर्जनों फिल्में पिछले 73 सालों में आई हैं। इन फिल्मों ने किसानों की दुर्दशा का बड़ी गहराई, संजीदगी और ईमानदारी से प्रस्तुतिकरण भी किया है। पर आंध्र प्रदेश के लोकप्रिय युवा फिल्मी सितारे और फिल्म निर्माता महेश बाबू ने इस फिल्म को इस तरह बनाया है कि हर वह आदमी जिसका किसानी से कोई नाता नहीं, वह भी इस फिल्म को बड़े चाव से अंत तक देखता है और उसे समाधान भी मिलता है।-विनीत नारायण  
 


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