सशक्तिकरण के जमाने में भी महिला एक ‘सैक्स ऑब्जैक्ट’ ही

punjabkesari.in Sunday, Mar 06, 2022 - 07:18 AM (IST)

अभी कुछ समय पहले, सोशल मीडिया पर ‘बोइस लॉकर रूम’ की घटना हुई थी, जिसमें एक विशेष समूह से लीक हुई चैट के माध्यम से कम उम्र की लड़कियों की अश्लील तस्वीरें प्रसारित की गई थीं। यही समय है कि हम रुकें और स्वीकार करें कि ‘बोइस लॉकर रूम’ बलात्कार की संस्कृति को सक्षम करने वाले युवा लड़कों की एक अलग घटना नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक मानसिकता का लक्षण है। 

एन.सी.आर.बी. के आंकड़ों में वर्ष 2018 में महिलाओं द्वारा दर्ज किए गए 6,030 साइबर अपराध दिखाए गए हैं। ऐसे में हमें एक मजबूत कानून की जरूरत है, जो महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ  साइबर ङ्क्षहसा को अपराध घोषित करे। किसी विशेष कानून के अभाव में, आई.टी. अधिनियम और आई.पी.सी. दोनों ही अंतरिम समाधान हैं, जो समस्याओं की भयावहता को नियंत्रित करने के लिए अपर्याप्त हैं। इसलिए, एक ऐसा कानून तैयार करना, जो विशेष रूप से साइबर दुव्र्यवहार, उत्पीडऩ और महिलाओं द्वारा सामना की जाने वाली हिंसा को संबोधित करता हो, सुरक्षा और समानता पर मौजूदा विमर्श को बदलने में एक लंबा रास्ता तय करेगा। आज एक प्रवृत्ति, जो मनोरंजन मीडिया में विकसित हो रही है, वह है महिलाओं का वस्तुकरण। विशेष रूप से भारतीय फिल्मों, सोशल मीडिया, संगीत वीडियो और टैलीविजन में महिलाएं यौन वस्तुओं (सैक्स ऑब्जैक्ट्स) के रूप में दिखाई जाती है। 

महिलाओं को ‘ऑब्जैक्टिफाई’ करने वाली फिल्में, कई फिल्मी गाने, जो महिला शरीर को कमोडिटाइज करते हैं। हमारे देश में एक पूरी पीढ़ी यह मानते हुए बड़ी हुई है कि जीवन वैसा ही है जैसा फिल्म में दिखाया जाता है। फिल्मों की नकल करते हुए, गांव के मेलों में ‘आइटम डांस’ स्थानीय थिएटर, पेंटिंग, नृत्य और लोक कलाओं के आयोजन में महिलाओं को वस्तु के तौर पर प्रयोग किया जाता है और उम्र की परवाह किए बिना सभी पुरुष उनमें शामिल होते हैं। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, रेडियो, टैलीविजन, इंटरनैट, होॄडग्स, पम्फ्लेट्स आदि में विज्ञापनों में अक्सर महिलाओं को, मुख्य रूप से लड़कियों को ग्राहक को लुभाने के लिए चित्रित किया जाता है। यह हमारे भारतीय समाज की सच्चाई है कि आमतौर पर महिलाओं को कमजोर माना जाता है। सोशल मीडिया पर ‘ऑब्जैक्टिफिकेशन’ में लड़कियों को लड़कों की तुलना में अधिक बार यौन रूप से चित्रित किया जाता है। 

महिलाओं को ‘सैक्स ऑब्जैक्ट’ के रूप में प्रचारित करते हुए डिओडोरैंट के एक विज्ञापन में महिला एक अजीब से पुरुष की ओर आकर्षित होती है जिसने उस ब्रांड के डिओडोरैंट का उपयोग किया है। यह दर्शाता है कि महिलाओं के साथ एक ऐसी वस्तु के रूप में व्यवहार किया जाता है जिसकी खुद की कोई पहचान नहीं होती। इसमें और अन्य विज्ञापनों में महिलाओं का चित्रण वास्तव में सामान्य महिलाओं का अपमान है जो उनकी वास्तविक स्थिति और गरिमा को नष्ट कर रहे हैं। 

भारत में महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। यह महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध बदला लेने की बर्बर मानसिकता का समर्थन करता है। यह व्यापक पितृसत्तात्मक रूढिय़ों को पुष्ट करता है। यह अंतत: दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक नुक्सान का कारण बन सकता है। भारत में मास-मीडिया ने महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करने और महिलाओं के अधिकारों और समाज में उनकी समान भूमिका के लिए काम करने के प्रयास नहीं किए हैं। यह स्पष्ट है कि मीडिया में महिलाओं के ‘वस्तुकरण’ का हमारे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। 

लड़कियों और महिलाओं में वस्तुपरकता को रोकने के लिए सामाजिक पुरस्कारों और सामाजिक शक्तियों को बढ़ाने की जरूरत है। महिलाओं के खिलाफ भेदभाव समाप्त करके लैंगिक समानता को बढ़ावा देने वाली नीतियां विकसित और लागू करने के लिए कानून बनाना और लागू करना महत्वपूर्ण हो गया है- जैसे मीडिया संवेदनशीलता का विकास, टैलीविजन देखने में माता-पिता और परिवार की भागीदारी, मीडिया में लड़की का सकारात्मक चित्रण, पाठ्यक्रम के हिस्से के रूप में समतावादी ङ्क्षलग मानदंडों को बढ़ावा देना आदि। तभी जाकर ‘सैक्स ऑब्जैक्ट’ के इस जमाने में हम महिला सशक्तिकरण की बात कर सकते हैं।-प्रियंका सौरभ
 


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