‘बहुत हुआ आंदोलन, अब लौटने और सोचने की बारी’

punjabkesari.in Saturday, Feb 13, 2021 - 04:56 AM (IST)

संसद में आंदोलनकारी बनाम आंदोलनजीवी की चर्चा ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है। इस दुविधा से बाहर निकलने का एक आसान रास्ता यह है कि आंदोलन, चाहे थोड़े समय के लिए ही सही, छोड़कर अपने घरों, खेत खलिहान लौट जाएं और एक बार फिर सोचें कि प्रधानमंत्री की इस घोषणा का क्या अर्थ है कि यह कानून ऑप्शनल यानी वैकल्पिक हैं, मतलब यह कि अगर किसी को सुहाएं तो वे अपनाएं और जिसे न अच्छे लगें, वह पहले की तरह काम करता रहे। 

सोच का दायरा : असलियत यह है कि देश ही नहीं कृषि से जुड़े अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने भी भारत में कृषि सुधारों की जरूरत को महसूस किया है और इन नए कानूनों को पहला और सही कदम बताया है। तो अगर फिर भी विरोध होता है तो समझना होगा कि एेसे कौन से कारण हैं जिनके चलते इन्हें किसान विरोधी बताया जा रहा है और आंदोलन करने की राह पकडऩी पड़ रही है। 

इस आंदोलन में तीन तरह के किसान देखे जा सकते हैं, एक तो वे जिन्होंने कानूनों का गहराई से अध्ययन किया है और अपने हितों के उलट पाया है। उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि इन कानूनों का लक्ष्य अमीर, सुविधा संपन्न और आधुनिक ढंग से खेती करने वाले किसानों के वर्चस्व, राजपाट और एकाधिकार को कम करना है। आमदनी के साधन पहले जैसे ही रहेंगे लेकिन एकछत्र अधिकार की उनकी हैसियत को ठेस लगने की पूरी संभावनाएं हैं। मतलब यह कि जमींदारा, साहूकारा नहीं रहेगा और जिन्हें वे अपनी प्रजा मानते हुए अपने रहमो करम से नवाजते रहते थे, वे अब अपनी मर्जी के मालिक बन कर जहां उन्हें अच्छा लगे, वहां जाने के लिए स्वतंत्र होने जा रहे हैं। 

दूसरे किसान वे हैं जिन्होंने इन कानूनों को स्वयं पढऩे और समझने के स्थान पर पहले वर्ग के किसानों द्वारा दी गई परिभाषा को सत्य वचन मानते हुए विरोध करना शुरू कर दिया। तीसरा वर्ग उन किसानों का है जिन्होंने अपने ही घर परिवार और बिरादरी की युवा पीढ़ी और लाकडाऊन के कारण गांव देहात लौटने वाले लोगों  से सलाह मशविरा करने का काम किया। इन्हें इन कानूनों के जरिए अपनी आमदनी बढऩे और परिवार के लिए आधुनिक रहन-सहन की सुविधाएं जुटाने की राह आसान लगी और इनके पक्षधर बन गए। 

जल, जंगल और जमीन : पिछले अनेक वर्षों से कृषि, ग्राम विकास, पशु पालन और पर्यावरण से जुड़े अनेक विषयों पर लिखे गए लेखों का संपादन कर एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित अपनी पुस्तक का जिक्र करना ठीक रहेगा जिसमें विस्तारपूर्वक जानकारी दी गई है कि किस प्रकार हमारे किसान इन कानूनों से ही नहीं बल्कि अपने परिश्रम और आधुनिक टैक्नोलॉजी के मिश्रण से खुशहाल हो सकते हैं। यह पुस्तक, इसी शीर्षक से नोशन प्रैस ने प्रकाशित की है और एमेजॉन तथा फ्लिपकार्ट से मंगवाई जा सकती है। 

सरकार से क्या कहा जाए : अब हम इस बात पर आते हैं कि क्या सोच विचार करें और सरकार से किन बातों की मांग करें। कृषि के लिए आवश्यक बिजली, पानी, बीज, उर्वरक और कीटनाशक इन पांच चीजों की जरूरत होती है। अगर ये आवश्यकतानुसार न मिलें तो किसान चाहे कितना भी मेहनती हो, वह प्रगति नहीं कर सकता। आमतौर से अभी तक ये सुविधाएं उन किसानों तक आसानी से उपलब्ध थीं जिनके पास धन, बल और पर्याप्त मात्रा में जमीन थी जिसके पास ये नहीं था वह गरीब और असहाय थे, जैसे तैसे गुजारा करते थे। स्वयं देखा है कि आज के दौर में भी एेसे किसानों की विशाल संख्या है जिनकी आमदनी आठ सौ-हजार रुपए महीने से ज्यादा नहीं है जिसका कारण एक ही है कि उनके पास खेती की बुनियादी चीजें ही नहीं हैं। यह सोचकर ही झुरझुरी होती है कि कोई कैसे इतनी कम रकम में अपने परिवार के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा आदि का प्रबंध कर सकता है। 

तो फिर सबसे पहली मांग यह कि छोटे, सीमांत और मझौले किसान के लिए इन चीजों की व्यवस्था हो जो उसकी खेती की प्राणवायु हैं। यह सब चीजें लगभग मुफ्त या बहुत कम दाम पर मिलें जिन्हें खरीदने के लिए उसे कर्ज लेने के लिए न उकसाया जाए क्योंकि यही कर्ज है जिसे वह जीवन भर नहीं उतार पाता और आत्महत्या तक कर लेता है। अब हमारा संवैधानिक और प्रशासनिक ढांचा इस तरह का है कि सरकार इन चीजों का सम्पूर्ण और नियमित इंतजाम नहीं कर सकती तो उसने सोचा कि इनकी पूॢत निजी क्षेत्र के पूंजीपतियों और व्यापारियों से करा दी जाए ताकि किसान को लाभ हो। यहां यह मांग करनी चाहिए कि जो कांट्रैक्ट  या समझौता हो वह त्रिपक्षीय हो अर्थात किसान, पूंजीपति और राज्यपाल की आेर से अधिकृत व्यक्ति। एेसे एग्रीमैंट का उल्लघंन करने की हिम्मत शायद कोई विरला ही करेगा जिसे अपना धन, मान सम्मान प्यारा न हो। 

विवाद की न्यायिक व्यवस्था : यहां सरकार से यह मांग करनी चाहिए कि दोनों पक्षों में विवाद होने की स्थिति में उसके निपटारे के लिए डिस्प्यूट सैटलमैंट अथॉरिटी बनाए जो एक निश्चित समय में निर्णय दे जिसका फैसला अंतिम रूप से मान्य हो। किसी एस.डी.एम. या सिविल अदालत से अलग एक स्वतंत्र व्यवस्था ही किसान के लिए न्यायपूर्ण हो सकती है। 

मूल्य निर्धारण : सरकार से तीसरी मांग यह करनी चाहिए कि किसान को निर्धारित और लाभकारी मूल्य किस तरह से मिले। उसे न तो वर्तमान मंडियों के हवाले छोड़ा जा सकता है और न ही भविष्य में निजी क्षेत्र द्वारा स्थापित की जाने वाली बिक्री व्यवस्था के अधीन। इसके लिए अलग से प्राइस सैटलमैंट अथॉरिटी यानी मूल्य निर्धारण प्राधिकरण का गठन हो जिसके दायरे में सभी किसान, खरीददार हों और एक भली भांति तय किए गए स्टैंडर्ड यानी पैमाने के आधार पर किसी भी उपज का मूल्य तय किया जा सके। इसमें चाहे अनाज, फल, सब्जियां या अन्य कोई भी फसल हो, सभी शामिल हों। यह वर्तमान एम.एस.पी. व्यवस्था से अलग हो क्योंकि जो अभी तक चलता रहा है, वह अब बेअसर हो रहा है।

सरकार से चौथी मांग यह करनी चाहिए कि जिन पूंजीपतियों को वह ग्रामीण क्षेत्रों में निवेश का अवसर दे रही है वह उस इलाके में भंडारण के लिए गोदाम, वेयरहाऊस और अन्य उपकरण लगाएं जहां किसान अपनी उपज स्टोर कर सके और इस जगह का उससे केवल मामूली किराया लिया जाए। इसी के साथ बैंकों से कहा जाए कि वह किसान को इस भंडार में रखी उपज के आधार पर कृषि ऋण उपलब्ध कराएं।  अगर किसान और सरकार इन बातों को मान लें तो एक समृद्ध और आॢथक रूप से मजबूत ग्रामीण समाज की कल्पना साकार हो सकती है।-पूरन चंद सरीन
 


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News