‘चुनाव व सत्ता’ पैसों की ताकत से बनाए व बिगाड़े जाने लगे

punjabkesari.in Sunday, Mar 07, 2021 - 04:33 AM (IST)

ट्रम्प भाई ने जाते-जाते हमें ‘गंदा व झूठा देश’ कह कर मुंह का स्वाद भले खराब कर दिया है लेकिन बाइडेन का अमरीका तो है न जिसके साथ मिल कर काम करने का अरमान प्रधानमंत्री ने अभी-अभी जाहिर किया है। तो मुद्दा यह कि अमरीका से बात आती है तो हमारी यहां ज्यादा सुनी जाती है, तो बात अमरीकी संस्थान ‘फ्रीडम हाऊस’ से आई है। वह कहती है कि जहां तक लोकतंत्र, उससे जुड़ी स्वतंत्रताओं, नागरिक अधिकारों व तटस्थ न्यायपालिका का सवाल है हमारा भारत 2019 में ‘स्वतंत्र देश’ की श्रेणी में था, 2020 में खिसक कर ‘किसी हद तक स्वतंत्र देश’ की श्रेणी में आ गया है। 

यह क्या हुआ? 2019 से चल कर  2020 में हम यह कहां पहुंचे कि अपनी सूरत ही गंवा बैठे? अगर कोई ऐसा कहने की जुर्रत करे कि अमरीका की क्या सुनना, तो उसे लेने-के-देने पड़ जाएंगे क्योंकि आज कौन यह कहने की हिम्मत करेगा कि ‘ट्रम्प भाई’ का अमरीका ‘हमारा’ था और बाइडेन का अमरीका ‘उनका’ है? इसलिए हमें देखना यह चाहिए कि 2019-20 के बीच हमने क्या-क्या कारनामे किए कि इस तरह गिरे। 

‘मैं जहां भी जाऊंगा, उसको पता हो जाएगा’ कि लोकतंत्र की अपनी ही व्याख्या को लोकतंत्र मानने वालों का दौर आ गया है? इस दौर में हमने देश की सारी संवैधानिक संस्थाओं को बधिया कर दिया है और ऐसे लोगों को उनमें ला बिठाया जिनकी रीढ़ है ही नहीं। ऐसे अर्ध-विकसित, विकलांगों की कमी समाज में कभी नहीं रही। ऐसे लोगों की भीड़ जुटा कर आप सत्ता में रहने का सुख पा सकते हैं, लोकतंत्र नहीं पा सकते हैं। लोकतंत्र का संरक्षण व विकास ऐसों के बस का होता ही नहीं है। लोकतंत्र होगा तो रीढ़ सीधी और सिर स्वाभिमान से तना होगा। 

इसी दौर में हमने यह मिजाज भी दिखलाया कि जिस जनता ने हमें ‘चुना’ है, उसे अब हम ‘चुनेंगे’। नागरिकता का कानून ऐसी ही अहमन्यता से सामने लाया गया था और हेंकड़ी दिखाते हुए उसे लागू करने की घोषणा कर दी गई थी। इसका जिसने जहां विरोध किया उसे वहीं कुचल डालने की असंवैधानिक-अमानवीय कोशिशें हुईं। स्वतंत्र भारत में कभी युवाओं की ऐसी व्यापक धुनाई-पिटाई, बदनामी और गिरफ्तारी नहीं हुई थी जैसी नागरिकता आंदोलन के दौरान हुई। बाजाप्ता कहा गया कि जो हमसे सहमत नहीं है उसका ईमान मुसल्लम नहीं है और जिसका ईमान मुसल्लम नहीं है वह देशद्रोही है। लोकतंत्र खत्म होता है तो देशद्रोहियों की जरखेज फसल होती है। 

यही दौर था जब लोकतंत्र को पुलिसिया राज में बदला गया, गुंडों को राजनीतिक लिबास पहनाया गया, मीडिया को पीलिया हो गया और न्यायपालिका को मोतियाबिंद और तभी देश में कोविड का प्रकोप फूटा। इस संकट को आनन-फानन में ऐसे अवसर में बदल लिया गया जिसमें आपका कहा ही कानून बन गया। जैसे भय आदमी को आदमी नहीं रहने देता है वैसे ही भयभीत लोग और अहंकारी तंत्र लोकतंत्र को लोकतंत्र नहीं रहने देता है। ऐसा माहौल रचा गया कि एक धर्मविशेष के लोग योजनापूर्वक कोविड फैलाने का ठेका ले कर  भारत में घुस आए हैं। भारत की सड़कों पर जिस तरह कभी जानवर नहीं चले होंगे, उस तरह लाखों-लाख श्रमिकों को चलने के लिए मजबूर छोड़ दिया गया। 

चुनाव व चुनाव परिणाम सत्ता व पैसों की ताकत से बनाए व बिगाड़े जाने लगे। व्यक्तित्वहीन व संदर्भहीन लोगों को राज्यपाल बनाने से लेकर ज्ञान-विज्ञान व शोध के शीर्ष संस्थानों में ला बिठाया गया। अंतरधार्मिक व अंतरजातीय विवाहों को अपराध बना देने वाले ‘लव जेहाद’ जैसे सिरफिरे कानून पािरत किए गए। भीड़ को तत्काल न्याय देने का काम सौंपा गया और यह सावधानी रखी गई कि भीड़ एक धर्म या जाति विशेष की हो जो दूसरे धर्म जाति विशेष को सजा देती फिरे। यह सब है जो भारत को ‘सतंत देश’ की श्रेणी से किसी हद तक स्वतंत्र’ देश की श्रेणी में उतार लाया है। यह हर भारतीय के लिए अपमान व लज्जा की बात है। इसका मतलब यह है कि  लोकतंत्र का आभास देने वाली संरचनाएं भले बनी रहेंगी, लेकिन सब आत्माहीन और खोखली होंगी।-कुमार प्रशांत 
 


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