जीवन की ढलती सांझ में पीड़ा झेलती बुजुर्ग आबादी

punjabkesari.in Friday, Jun 17, 2022 - 06:15 AM (IST)

आज समाज में अधिकांश बुजुर्ग अपमान झेलने को मजबूर हैं। उन्हें यंत्रणाएं मिल रही हैं। बुजुर्गों की समस्याओं के प्रति परिवार, समाज और सरकार की उदासीनता आज के दौर का कटु सत्य है। बुजुर्ग लोगों का बड़ा प्रतिशत स्वयं को समाज से कटा हुआ और मानसिक रूप से दमित महसूस कर रहा है। यह असंवेदनशीलता बुजुर्गों के लिए काफी पीड़ादायी है। बदलते दौर ने लोगों की सोच में बदलाव लाने के साथ-साथ बुजुर्गों के प्रति आदर का भाव भी खत्म कर दिया है। आधुनिक समाज में उन्हें वृद्धाश्रम में धकेल दिया जाता है, या फिर वे घर में इतने प्रताडि़त किए जाते हैं कि खुद ही घर छोड़कर चले जाते हैं। क्या यही हमारी परंपरा और संस्कृति है? 

तिनका-तिनका जोड़कर अपने बच्चों के लिए आशियाना बनाने वाली पुरानी पीढ़ी के ये लोग अब खुद आशियाने की तलाश में दर-ब-दर भटक रहे हैं। वृद्धाश्रम में इन्हें रहने को छत और पेट भरने को भोजन मिल रहा है, बस कमी है तो उस औलाद की, जिन्हें इन मां-बाप ने अपना खून-पसीना एक करके पढ़ाया-लिखाया था, जिसने आज इन्हें दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया है। बुढ़ापे में उन्हें भरपेट भोजन के लिए भी अपने बच्चों की सेवा-चाकरी करनी पड़ती है और घर के मालिक को अपने ही घर में नौकर या तिरस्कृत व्यक्ति की तरह जीवन गुजारना पड़ता है।

हैल्पेज इंडिया द्वारा बुजुर्गों की स्थिति पर किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि देश में बुजुर्ग बेहद दयनीय दशा में हैं, उन्होंने खुद अपनी उपेक्षा और बुरे व्यवहार की शिकायत की है। यह अध्ययन देश के 19 छोटे-बड़े शहरों में 4500 से अधिक बुजुर्गों पर किया गया। जिन बुजुर्गों को सर्वे में शामिल किया गया, उनमें से 44 फीसदी का कहना था कि सार्वजनिक स्थानों पर उनके साथ बहुत दुव्र्यवहार किया जाता है। बेंगलुरु, हैदराबाद, भुवनेश्वर, मुंबई और चेन्नई जैसे शहरों में सार्वजनिक स्थलों पर बुजुर्गों से सबसे बुरा बर्ताव होता है। 

सर्वे में शामिल बेंगलुरु के 70 फीसदी बुजर्गों ने बताया कि उनको सार्वजनिक स्थानों पर दुव्र्यवहार का सामना करना पड़ता है। हैदराबाद में यह आंकड़ा 60 फीसदी, गुवाहाटी में 59 फीसदी और कोलकाता में 52 फीसदी है। बुजुर्गों के सम्मान के मामले में दिल्ली सबसे आगे दिखी, जहां सिर्फ 23 फीसदी बुजुर्गों को सार्वजनिक स्थानों पर दुव्र्यवहार का सामना करना पड़ता है। 

बुजुर्गों की दयनीय होती जा रही स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? देखा जाए तो इसमें दोष उस पश्चिमी संस्कृति का है, जिसका अंधानुकरण करने की होड़ में हम लगे हुए हैं। बगैर कुछ सोचे-समझे हम भी दूसरों की देखा-देखी एकल परिवार प्रणाली को अपना कर अपनों से ही किनारा कर रहे हैं। ऐसा करके हम अपने हाथों अपने बच्चों को उस प्यार, संस्कार, आशीर्वाद व स्पर्श से वंचित कर रहे हैं, जो उनकी जिंदगी को संवार सकता है। 

युवा पीढ़ी और बुजुर्गों के बीच दूरियां बढऩे का एकमात्र कारण दोनों की सोच व समझ में तालमेल का अभाव है। युवा अपनी नई सोच से अपनी जिंदगी को संवारना चाहते हैं। उनकी आजादी में रोक-टोक करने वाले बड़े-बुजुर्ग उन्हें नापसंद हैं। युवा पीढ़ी की सोच के अनुसार बड़े-बुजुर्गों की जगह घर में नहीं बल्कि वृद्धाश्रमों में है। वहां उन्हें उनकी सोच के और हमउम्र लोग मिल जाएंगे, जो उनकी बातों को सुनेंगे और समझेंगे। वहां वे खुश रह सकते हैं। परंतु ऐसा सोचने वाले युवाओं को क्या पता कि हर मां-बाप की खुशी अपने परिवार और अपने बच्चों में होती है। उनसे दूर रह कर भला वे खुश कैसे रह सकते हैं? यदि हम उन्हें सम्मान व परिवार में स्थान देंगे तो शायद वृद्धाश्रम की अवधारणा ही इस समाज से समाप्त हो जाएगी। 

जरूरत इस बात की है कि परिवार में आरंभ से ही बुजुर्गों के प्रति अपनेपन का भाव विकसित किया जाए। संतानों को भी चाहिए कि फर्जों की जो दोशाला वे ओढ़े बैठे हैं, उसका नि:स्वार्थ और छल-कपट रहित निर्वाह करें। विश्व में भारत ही ऐसा देश है जहां आयु को आशीर्वाद व शुभ-कामनाओं के साथ जोड़ा गया है। जुग-जुग जियो, शतायु हो जैसे आशीर्वचन आज भी सुनने को मिलते हैं। ऐसे में नई भावनात्मक सोच विकसित करने की जरूरत है ताकि हमारे बुजुर्ग परिवार व समाज में खोया सम्मान पा सकें और अपनापन महसूस कर सकें। 

जिस प्रकार हम नौकरी के चलते अपने आने वाले समय के बारे में सोचकर योजनाएं बना लेते हैं, उसी प्रकार हमें बुजुर्गों के लिए भी मानवता और फर्जों की पूंजी में निवेश करना होगा, क्योंकि यह वक्त हर किसी को देखना है। दूसरी तरफ हमारी सरकारों को विदेशों की तरह कड़े नियम-कानून बनाने चाहिएं ताकि हमारे देश के वरिष्ठ नागरिकों के स्वावलंबन व आत्मसम्मान को किसी प्रकार की ठेस न पहुंचे और वे किसी के हाथों की कठपुतली न बनें। 

बाल गंगाधर तिलक ने एक बार कहा था कि ‘‘तुम्हें कब क्या करना है यह बताना बुद्धि का काम है, पर कैसे करना है यह अनुभव ही बता सकता है।’’ परिवार की शान कहे जाने वाले हमारे बड़े-बुजुर्ग आज परिवार में अपने ही अस्तित्व को तलाशते नजर आ रहे हैं, यह हमारे लिए गंभीर चिंतन का विषय है।-देवेन्द्रराज सुथार 


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