हमारी समझदारी से ही बचेगी धरती

punjabkesari.in Friday, Apr 22, 2022 - 04:43 AM (IST)

पिछले साल और इस साल भी लॉकडाऊन के दौरान पर्यावरण पर पड़े सकारात्मक असर से यह बात तो साफ हो गई है कि यदि हम चाहें तो प्रदूषण कम कर सकते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पर्यावरण को बचाने के लिए भाषणबाजी तो बहुत होती है लेकिन धरातल पर काम नहीं हो पाता। यही कारण है कि पर्यावरण की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। इस दौर में जिस तरह से मौसम का चक्र बिगड़ रहा है, वह हम सबके साथ-साथ समाज के उस वर्ग के लिए भी चिन्ता का विषय है जो ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा करने को एक फैशन मानने लगा था। 

विभिन्न देशों में अनेक मंचों से जो पर्यावरण बचाओ आन्दोलन चलाया जा रहा है, उसमें एक अजीब विरोधाभास दिखाई देता है। सभी पर्यावरण बचाना चाहते हैं लेकिन अपने नहीं, बल्कि दूसरों के त्याग की कीमत पर। स्थाई विकास, ग्रीन इकोनॉमी और पर्यावरण सम्बन्धी विभिन्न चुनौतियों पर चर्चा जरूरी है, लेकिन इसका फायदा तभी होगा, जब हम व्यापक दृष्टि से सभी देशों के हितों पर ध्यान देंगे। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि हरित अर्थव्यवस्था के उद्देश्यों के क्रियान्वयन के लिए विकसित देश, विकासशील देशों की अपेक्षित सहायता नहीं करते। स्पष्ट है कि विकसित देशों की हठधर्मिता की वजह से पर्यावरण के विभिन्न मुद्दों पर कोई स्पष्ट नीति नहीं बन पाती। 

दरअसल इस दौर में पर्यावरण की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। वैज्ञानिकों का मानना है मौसम की यह अनिश्चितता और तापमान का उतार-चढ़ाव जलवायु परिवर्तन के कारण है। जलवायु परिवर्तन के कारण एक ही ऋतु में किसी एक जगह पर ही मौसम में उतार-चढ़ाव या परिवर्तन हो सकता है। पुराने जमाने में पर्यावरण के हर अवयव को भगवान का दर्जा दिया जाता था। इसीलिए हम पर्यावरण के हर अवयव की इज्जत करना जानते थे। नए जमाने में पर्यावरण के अवयव वस्तु के तौर पर देखे जाने लगे और हम इन्हें मात्र भोग की वस्तु मानने लगे। उदारीकरण की आंधी ने तो हमारे समस्त ताने-बाने को ही नष्ट कर दिया। इस प्रक्रिया ने पर्यावरण के अनुकूल समझ विकसित करने में बाधा पहुंचाई। यह समझ विकसित करने के लिए एक बार फिर हमें नए सिरे से सोचना होगा। 

हमें यह मानना होगा कि जलवायु परिवर्तन की यह समस्या किसी एक शहर, राज्य या देश के सुधरने से हल होने वाली नहीं। पर्यावरण की कोई ऐसी परिधि नहीं होती है कि एक जगह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन या प्रदूषण होने से उसका प्रभाव दूसरी जगह न पड़े। इसीलिए इस समय सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण के प्रति चिन्ता देखी जा रही है। हालांकि इस चिन्ता में खोखले आदर्शवाद से लिपटे हुए नारे भी शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन पर होने वाले सम्मेलनों में हम इस तरह के नारे अक्सर सुनते रहते हैं। सवाल यह है कि क्या खोखले आदर्शवाद से जलवायु परिवर्तन का मुद्दा हल हो सकता है? यह सही है कि ऐसे सम्मेलनों के माध्यम से विभिन्न बिन्दुओं पर सार्थक चर्चा होती है और कई बार कुछ नई बातें भी निकल कर सामने आती हैं, लेकिन यदि विकसित देश एक ही लीक पर चलते हुए केवल अपने स्वार्थों को तरजीह देने लगें तो जलवायु परिवर्तन पर उनकी बड़ी-बड़ी बातें बेमानी लगने लगती हैं। 

दरअसल जब हम प्रकृति का सम्मान नहीं करते तो वह प्रत्यक्ष रूप से तो हमें हानि पहुंचाती ही है, परोक्ष रूप से भी हमारे सामने कई समस्याएं खड़ी करती है। पिछले दिनों इंटरनैशनल यूनियन फॉर द कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आई.यू.सी.एन.) द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण महिलाओं और लड़कियों के विरुद्ध होने वाली हिंसा में इजाफा हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार गरीब देशों में जलवायु परिवर्तन को रोकने में सरकारें विफल हो रही हैं। इस कारण संसाधन बर्बाद हो रहे हैं। इसका असर बढ़ती हुई लैंगिक असमानता के रूप में दिखाई पड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन से जूझ रहे इलाकों में संसाधनों पर काबिज होने के लिए वर्ग संघर्ष जारी है। 

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस दौर में कई तौर-तरीकों से समाज पर जलवायु परिवर्तन का असर पड़ रहा है। दुख की बात यह भी है कि विकासशील देशों को भाषण देने से पहले विकसित देश स्वयं अपने गिरेबान में नहीं झांकते। हमें यह समझना होगा कि सिर्फ नारों से पृथ्वी नहीं बचेगी। ग्लोबल वार्मिंग तथा जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों से निपटने के लिए विकसित देशों को विकासशील देशों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना होगा, नहीं तो पृथ्वी को प्राकृतिक आपदाओं के कहर से कोई नहीं बचा सकता।-रोहित कौशिक 
 


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