धरती कहीं रेगिस्तान में न बदल जाए

punjabkesari.in Thursday, Dec 08, 2022 - 05:06 AM (IST)

दुनिया के सामने आज सबसे बड़ा संकट उपजाऊ भूमि के लगातार रेगिस्तान में बदलने से पैदा हो रहा है। धरती के रेगिस्तान में बदलने की प्रक्रिया बड़े पैमाने पर चीन, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया,भू-मध्यसागर के अधिसंख्य देशों तथा पश्चिम एशिया, उत्तरी और दक्षिणी अमरीका के सभी देशों सहित भारत में भी जारी है। भारत में तेजी से बढ़ता ऊसर क्षेत्र खेती के साथ खाद्य सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा पैदा कर सकता है। 

कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक देश का 67. 3 लाख हैक्टेयर रकबा ऊसर क्षेत्र है। इसमें 13. 7 लाख हैक्टेयर का बड़ा हिस्सा अकेले उत्तर प्रदेश में है। केंद्रीय ऊसर अनुसंधान संस्थान और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने ऊसर भूमि के बढ़ते प्रसार पर अपनी आशंका जताई है। उनके आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2030 तक देश में ऊसर क्षेत्र बढ़कर 155 करोड़ हैक्टेयर हो जाएगा। 

इतिहास गवाह है कि दुनिया के हर साम्राज्य का अंत उसके रेगिस्तान में बदल जाने के कारण ही हुआ है। सहारा दुनिया का आज सबसे बड़ा रेगिस्तान है। लेकिन लगभग 5 से 11 हजार साल पहले यह पूरा इलाका हरा-भरा था। आज के मुकाबले तब यहां 10 गुणा अधिक बारिश होती थी। यह बात एक नए अध्ययन में सामने आई है। सहारा रेगिस्तान में उस समय शिकारी रहा करते थे। ये शिकारी जीवनयापन के लिए इलाके में पाए जाने वाले जानवरों का शिकार करते थे और यहां उगने वाले पेड़-पौधों पर आश्रित थे। इस शोध में पिछले 6000 सालोंं के दौरान सहारा में बारिश के प्रतिमानों और समुद्र की तलहटी का अध्ययन किया गया है। यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना की जेसिका टी इस रिसर्च की मुख्य शोधकत्र्ता हैं। 

उन्होंने कहा, ‘आज की तुलना में सहारा मरुस्थल कई गुणा ज्यादा गीला था।’ अब सहारा में सालाना 4 इंच से 6 इंच तक बारिश होती है। इससे पहले हुए कुछ शोधों में हालांकि ‘ग्रीन सहारा काल’ के बारे में पता लगाया जा चुका था, लेकिन यह पहला मौका है कि इस पूरे इलाके में पिछले 25,000 सालों के दौरान होने वाली बारिश का रिकार्ड खोजा गया है। 

आजकल के मोरक्को, ट्यूनीशिया और अलजीरिया के वृक्षहीन सूखे प्रदेश किसी समय रोमन साम्राज्य के गेहूं उत्पन्न करने वाले प्रदेश थे। इटली और सिलिका का भयंकर धरती-कटाव उसी साम्राज्य का दूसरा फल है। मैसोपोटामिया, सीरिया, फिलस्तीन और अरब के कुछ भागों में मौजूदा सूखे वीरान भू-भाग, बेबीलोन, सुमेरिया, अक्काडिय़ा और असीरिया के महान साम्राज्यों के स्थान थे। किसी समय ईरान एक बड़ा साम्राज्य था। आज उसका अधिकांश भाग रेगिस्तान है। 

सिकंदर के अधीन यूनान एक साम्राज्य था। अब उसकी अधिकांश धरती बंजर है। तैमूरलंग के साम्राज्य की धरती पर उसके जमाने में जितनी पैदावार होती थी उसका अब एक छोटा-सा हिस्सा ही पैदा होता है। ब्रिटिश, फ्रैंच और डच इन आधुनिक साम्राज्यों ने अभी तक मरूभूमियां उत्पन्न नहीं की हैं। परन्तु एशिया, अफ्रीका, आस्टे्रलिया, न्यूजीलैंड और उत्तरी अमरीका की धरती का सत्त चूसने में और खनिज साधनों का अपहरण करने में इन साम्राज्यों का बड़ा हाथ रहा है। 

संयुक्त राज्य अमरीका के भूमि रक्षा विभाग की ओर से प्रकाशित 7000 वर्ष में भूमि की विजय नामक एक पुस्तक में लेखक डब्ल्यू. सी.  लाडरमिल्क कहते हैं, ‘‘यदि आधुनिक सभ्यता को उस तरह के लम्बे पतन और बरबादी से बचाना है, जो उत्तरी अफ्रीका और निकट पूर्व के देशों की 1300 वर्ष से दु:ख देते रहे हैं और सदियों तक आगे भी सताते रहेंगे, तो समाज को शोषण की अर्थ व्यवस्था से बाहर निकल कर संरक्षण की अर्थ व्यवस्था को फिर से अपनाना पड़ेगा।’’ जितनी तेजी से मानव जाति के मन, हृदय और आदतें बदल रही हैं, उतनी ही तेजी से या उससे भी ज्यादा तेेजी से होने वाले धरती कटाव के कारण हमारे अन्न उत्पादन के साधन नष्ट हो रहे हैं। 

खाद्य पदार्थों की इस सतत् बढ़ रही कमी के साथ-साथ (क्योंकि धरती कटाव का परिणाम यही होता है) अब संसार की जनसंख्या बड़ी तेजी से बढ़ रही है। पिछले अढ़ाई सौ वर्षों में इसकी गति और भी बढ़ गई है। संसार के इतिहास में पहली बार ऐसी स्थिति पैदा हुई है कि माल के यातायात, चुंगी कानून या पैसे की बाधाएं न रहते हुए भी मौजूदा अनाज उत्पन्न करने वाली जमीन को पैदावार से जितने लोगों को भोजन दिया जा सकता है उससे अधिक लोग दुनिया में पैदा हो गए हैं। यह राय संयुक्त राष्ट्र संघ की खुराक और खेती संबंधी संस्थानों ने खेती तथा जनसंख्या के विशेषज्ञ अधिकारियों से विचार-विमर्श करने के बाद प्रकट की हैं। जनसंख्या और खेती संबंधी प्रश्नों के अनेक स्वतंत्र विशेषज्ञों का भी यही मत है। 

हमारी लुटी हुई पृथ्वी (अवर प्लन्डर्ड प्लेनेट) नामक अपनी पुस्तक में फेयरफील्ड ऑस्बर्न यह अनुमान लगाते हैं कि सारे जगत में 4 अरब एकड़ से अधिक खेती के लायक जमीन नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ की खुराक और खेती संबंधी संस्था ने अपनी मासिक पत्रिका में यह अनुमान लगाया है कि संसार में कुल भूमि 33 अरब 12 करोड़ 60 लाख एकड़ है और कृषि योग्य भूमि 3 अरब 70 लाख एकड़ है।

कार्नेल विश्वविद्यालय के पियरर्सन और हेईज ने ‘संसार की भूख’ (दि वल्र्ड हंगर) नामक अपने ग्रंथ में कुल भूमि के क्षेत्रफल का अन्दाज 35 अरब 70 करोड़ एकड़ लगाया है। उन्होंने यह भी अनुमान लगाया है कि इस सारे क्षेत्रफल की 43 प्रतिशत भूमि में ही फसल उगाने के लिए काफी वर्षा होती है। उन्होंने वार्षिक 40 सैमी. वर्षा ही पकड़ी है, जो पर्याप्त नहीं मानी जा सकती। इस सारी जमीन के 34 प्रतिशत भाग में ही इतनी वर्षा होती है जो पर्याप्त और विश्वस्त दोनों है। 

इस प्रकार संसार भर में 2 अरब 50 करोड़ और 3 अरब 70 करोड़ एकड़ के बीच ऐसी भूमि है जो मनुष्य के लिए खाद्यान्न पैदा कर सकती है। मनुष्य जलवायु या भूगोल को नहीं बदल सकता। विशेषज्ञों ने काफी सोच विचार के बाद यह राय प्रकट की है कि किसी भी उपाय से इससे अधिक जमीन को खेती के लायक बनाना संभव नहीं है और कुल मिलाकर खेती की पैदावार की वृद्घि उतनी नहीं हो सकेगी जितनी दुनिया की जनसंख्या के बढऩे की संभावना है। 

खेती की 10 से 15 प्रतिशत जमीन का उपयोग पटसन और तम्बाकू वगैरह की पैदावार के लिए किया जाता है। इसलिए खाद्य पदार्थों के लिए उपरोक्त आंकड़ों द्वारा बताई गई जमीन से वास्तव में कम ही जमीन उपलब्ध है। इन आंकड़ों से प्रकट होता है कि अगर सारी जमीन संसार के तमाम लोगों में समान रूप से न्यायपूर्वक बांट दी जाए, व्यापार-वाणिज्य पूरी तरह आदर्श बन जाए और खाद्यान्न लाने ले जाने के लिए ढुलाई का खर्च और भाव के प्रतिबंध न हों और अगर सारी दुनिया शाकाहारी बन जाए, तो भी संसार के सारे लोगों को मुश्किल से खाना मिलेगा। यह समस्या बहुत बड़ी और पेचीदा है इसलिए इसके समाधान के कारगर उपाय किए जाने चाहिएं। जलवायु परिवर्तन रोकने के साथ-साथ धरती के कटाव को भी रोकने के ठोस उपाय किए जाने चाहिएं।-निरंकार सिंह 


    


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