इस राष्ट्रीय संकट में सकारात्मकता के कर्तव्य

punjabkesari.in Wednesday, Apr 28, 2021 - 04:28 AM (IST)

अगर हमारी बिल्डिंग में आग लगी हो तो हमारी प्राथमिकता क्या होगी? आंख मूंद कर भजन करना या आंख खोलकर भागने का रास्ता खोजना? दोषी की तलाश करना या उनकी जिन्हें अब भी बचाया जा सकता है? आज देश की स्थिति उस बिल्डिंग जैसी है और हम सबकी स्थिति उसमें फंसे व्यक्ति जैसी। 

हमारे चारों ओर हाहाकार मचा है। टी.वी. की हर बुलेटिन, हर टैलीफोन कॉल कुछ बुरी खबर लाती है। अनजाने में ही नैराश्य बोध जकड़ लेता है-अब यह देश भगवान भरोसे है। मन करता है कि कुर्सी पर बैठे लोगों का गिरेबान पकड़ लिया जाए। या फिर डर से बचने के लिए किसी मदारी के झूठे सब्जबाग पर यकीन करने का मन करता है। या दिल बहलाने के लिए आई.पी.एल. का सहारा होता है। ऐसे संकट के समय देश और समाज को स्थितप्रज्ञ नेतृत्व और सम्यक दृष्टि चाहिए। इस राष्ट्रीय संकट के बीच सकारात्मक बने रहना हर नागरिक का कत्र्तव्य है। 

यहां सकारात्मकता के दो कत्र्तव्य हैं। पहला नकारात्मकता से बचना यानी नैराश्य बोध और निंदा सुख से परहेज करना। दूसरा कत्र्तव्य है सच का सामना करना, समाधान के सूत्र खोजना और संकटमोचन का मार्ग प्रशस्त करना। यहां सकारात्मकता का अर्थ सरकारात्मकता नहीं हो सकता। इन दिनों चारों तरफ से आलोचना की बौछार झेल रहा सत्ता पक्ष भी सकारात्मकता की दुहाई देते हुए दिखाई पड़ता है। लेकिन उनके लिए सकारात्मकता का अर्थ होता है सच पर पर्दा डालना और किसी तरह शीर्ष नेतृत्व को बचाना। 

कई सरकारी और दरबारी लोग ले देकर इस प्रचार में जुटे हैं कि स्थिति इतनी भयावह नहीं है जितनी दिखती है। ऐसे आंकड़े जुटाए जा रहे हैं जो दिखा सकें कि यह महामारी जल्द ही काबू में आने वाली है। या फिर ऐसे तर्क गढ़े जा रहे हैं मानो यह तो होना ही था, अचानक नए वायरस की मार के आगे भला सरकार क्या कर सकती थी? व्हाट्सएप के जरिए हमें फुसफुसा कर बताया जा रहा है कि मोदी जी ने तो अथक प्रयास किया अब राज्य सरकारें ही न मानें तो वह बेचारे क्या करें? इस संकट के बीचों-बीच पूरे देश की क्षति की बजाय एक व्यक्ति की छवि की चिंता करना अशोभनीय ही नहीं, एक अश्लील हरकत है। दूसरी तरफ विपक्ष से नकारात्मक ध्वनि आती है। ऐसा लगता है मानो इस संकट में कुछ लोगों को मजा आ रहा है, सत्ता पक्ष और प्रधानमंत्री से खुंदक निकालने का अच्छा मौका मिल गया है। 

पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह जैसे कुछ विपक्षी नेता इसका अपवाद हैं जिन्होंने सरकार को इस संकट से उबरने के ठोस और सार्थक सुझाव दिए हैं। लेकिन सरकार के अनेक आलोचक इस समय सरकार-ङ्क्षनदा में व्यस्त हैं, पूरे संकट का ठीकरा प्रधानमंत्री के सिर फोडऩे में अपनी ऊर्जा लगा रहे हैं। उनकी आलोचना, उनके तर्क और उनके प्रमाण गलत नहीं हैं। बेशक जब भी इतिहास के आईने में कोरोनावायरस की दूसरी लहर में हुई मौतों को देखा जाएगा तो उसके पीछे एक निकम्मी सरकार और एक आत्ममुग्ध नेता दिखाई देगा। लेकिन आज पोस्टमार्टम का समय नहीं है। जब चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हो उस वक्त दोषारोपण और निंदा में अपनी ऊर्जा को खपाना केवल व्यर्थ का चस्का नहीं है बल्कि समाज के साथ अपराध भी है। आज के हालात में सकारात्मकता का अर्थ होगा पूरे सच का आंख खोलकर सामना करना। सच यह है कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर से पैदा हुई महामारी वाकई भयावह है, सरकारी आंकड़ों और मीडिया की तस्वीरों से कहीं ज्यादा खराब है। 

सच यह है कि हमने अभी सबसे बुरी अवस्था नहीं देखी है, आने वाले दिनों में हालात और भी बिगडऩे वाले हैं। सच यह है कि हम इस संकट का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं। न तो केंद्र सरकार ने और न ही अधिकांश राज्य सरकारों ने पिछले एक साल में इस संकट से निपटने की पर्याप्त तैयारियां की थीं। इसलिए इस संक्रमण के फैलाव, बीमारी के आंकड़े, टैस्ट के परिणाम, अस्पतालों के हालात, ऑक्सीजन की उपलब्धता, वैक्सीन की रफ्तार और मृतकों की संख्या का पूरा सच देश के सामने रखना हर नागरिक और मीडिया का कत्र्तव्य है। बुरी खबर को सामने लाना नकारात्मकता नहीं है, बशर्ते कि नीयत इस अवस्था में सुधार की हो। इस सकारात्मक दृष्टि का अगला कदम होगा समाधान के सूत्र ढूंढना। स्थिति बहुत खराब है, और बिगडऩे वाली है, सिर्फ इतना कहना नैराश्य बोध को जन्म देता है। आज सत्ता के हर विरोधी की जिम्मेवारी बनती है कि वह विकल्प भी पेश करें। 

वैक्सीन के बारे में एक राष्ट्रीय नीति क्या हो? दवाइयों की कालाबाजारी को कैसे रोका जाए? इस संकट में अस्पतालों द्वारा मुनाफाखोरी का क्या इलाज हो? ऑक्सीजन के संकट से निपटने का तत्काल उपाय क्या हो सकता है? दीर्घकाल में देश को ऐसी किसी महामारी से बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? अब तक कई अच्छे सुझाव आए भी हैं। अगर सरकार इन सुझावों पर अमल नहीं करती है तो सरकार पर सही कदम उठाने के लिए दबाव बनाना अपने आप में नकारात्मक नहीं है। सत्ता पक्ष को सर झुका कर सुनना सीखना होगा। हर आलोचना को राजनीतिक हमला न समझ कर एक रचनात्मक सुझाव की तरह लेना होगा। देश हित को व्यक्तिगत अहम से ऊपर रखना होगा। मीडिया को मैनेज करने की बजाय महामारी को मैनेज करने की चिंता करनी होगी।-योगेन्द्र यादव
 


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