सूखती नदियां, उजड़ते पहाड़ - किधर जा रहे हैं हम

punjabkesari.in Tuesday, Mar 29, 2022 - 06:09 AM (IST)

प्रकृति की अनदेखी यकीनन वह बड़ी भूल है जो पूरी मानवता के लिए यक्ष प्रश्न है। इसे केवल वैज्ञानिकों तक सीमित कर कत्र्तव्यों की इतिश्री मान लेना उससे भी बड़ी भूल या ढिठाई है, जो हम अपनी भावी पीढ़ी के साथ कर रहे हैं। राजनीतिक दल, उनके आकाओं, जनप्रतिनिधियों तथा नुमाइन्दगी का ख्वाब देखने वालों को तेजी से बदल रही प्रकृति और उसके कारणों के बारे में कितना पता है, यह कभी क्यों चुनावी एजैण्डा नहीं बनता? सच तो यह है कि राजनीति की बिसात में हर कहीं अगर कोई गच्चा खाता है तो वह है प्रकृति, जिसकी बदौलत ही हमारा अस्तित्व है। ऐसे सवाल जायज हैं, उठने भी चाहिएं।

पर्यावरण प्रदूषण की चिन्ता राजनीति में सबसे ऊपर होनी चाहिए, लेकिन सभी राजनीतिक दलों ने बेशर्म खामोशी ओढ़ी हुई है। नेताओं के लुभावने वादों के बीच न तो कोई धरती की चिन्ता करने वाला है और न कोई भू-गर्भ और आसमान को लेकर गंभीर दिख रहा है। शायद इनका चुनावों से सीधा वास्ता जो नहीं है। लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इतनी सी भूल या भुलाने की कोशिश जीवन पर धीरे-धीरे भारी पड़ती जा रही है। हर साल बाढ़ की बढ़ती भयावहता, धरती की बढ़ती तपन, तेजी से कटते जंगल, रेत खनन के चलते छलनी होती नदियां, गिट्टियों में तबदील होते पहाड़, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हमारी भविष्य की पीढ़ी के लिए बड़ा अभिशाप है। उससे भी दुखद यह कि सबको सब कुछ पता है, लेकिन फिर भी कोई गंभीर नहीं दिखता। शायद यही कारण है कि देश के किसी भी राजनीतिक दल के अहम मुद्दों में ऐसे विषय शामिल ही नहीं हैं! कब तक नहीं रहेंगे यह भी नहीं पता। प्रदूषित होती नदियां जितनी चिन्ता का विषय हैं, उससे बड़ी चिन्ता मानव निर्मित वे कारण हैं, जो इसके मूल में हैं। 

पेयजल और सिंचाई केवल भारत के संदर्भ में बात करें तो यहां अब ‘जल क्रांति’ की जरूरत है।  के लिए घटते और सूखते जलस्रोतों की चिन्ता करनी होगी। लोग जागरूक हों और कुछ करें तभी सकारात्मक नतीजे निकलेंगे, वरना आयोग, बोर्ड, ट्रिब्यूनल बनते हैं, बनते रहेंगे। बहस, सुनवाई, फैसले होंगे, महज औपचारिकताओं की पूर्ति होगी और हर गांव, कस्बे, शहर, महानगर की आबादी की गंदगी का आसान और नि:शुल्क वाहक बनी नदियां दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होंगी, सूखेंगी और मरती रहेंगी। तीन दशकों से जारी गंगा की सफाई हमेशा चर्चाओं में रही। 

सुप्रीम कोर्ट की पूर्व की तल्ख टिप्पणी, कि मौजूदा कार्ययोजनाओं से क्या गंगा 200 साल में भी साफ  हो पाएगी? बेहद मायने रखती है। यह दशा, कहानी या सच्चाई उस गंगा की है, जो मोक्षदायिनी है, मगर अब खुद अपने मोक्ष को तरस रही है। नर्मदा और भी श्रेष्ठ मानी गई है। पद्म पुराण में लिखा है ‘पुण्या कनखले गंगा, कुरुक्षेत्रे सरस्वती। ग्रामे वा यदि वारण्ये, पुण्या सर्वत्र नर्मदा॥’ अर्थात गंगा को कनखल तीर्थ में विशेष पुण्यदायी माना जाता है, सरस्वती को कुरुक्षेत्र में, किन्तु नर्मदा चाहे कोई ग्राम हो या फिर जंगल, सर्वत्र ही विशेष पुण्य देने वाली है। ऐसी पवित्र नर्मदा अमरकण्टक के अपने उद्गम कुण्ड से ही प्रदूषित होने लगती है। भारत के 27 राज्यों में 150 नदियां प्रदूषित हैं, लेकिन इसकी चिन्ता किसे? 

5 साल पहले देश में धान का कटोरा कहा जाने वाला छत्तीसगढ़, उसमें भी खास पहचान रखने वाला बिलासपुर 23 मई, 2017 को बेहद तेजी से, एकाएक 50 डिग्री सैल्सियस का तापमान छूकर चर्चाओं में आ गया था। पिछली आधी सदी में कोयला-पैट्रोलियम के धुएं ने वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाऊस गैसों की मात्रा खतरनाक हदों तक पहुंचा दी। सामान्यत: सूर्य की किरणों से आने वाली ऊष्मा का एक हिस्सा वायुमण्डल को जरूरी ऊर्जा देकर, अतिरिक्त विकिरण धरती की सतह से टकराकर वापस अन्तरिक्ष को लौटता है। लेकिन यहां मौजूद ग्रीनहाऊस गैसें लौटने वाली अतिरिक्त ऊष्मा को भी सोख लेती हैं, जिससे धरती की सतह का तापमान बढ़ जाता है। 

मार्च समाप्ति पर है। इस बार गर्मी के तेवर दूसरे हफ्ते से ही असहनीय से हो गए हैं। अगले 3 महीनों का हाल समझा जा सकता है। वर्षा जल संचय के लिए ठोस प्रबंधन और जनजागरूकता के लिए कुछ ही हफ्तों में बड़ी-बड़ी बातें सुनाई देंगी। आदेश-निर्देश की हर रोज फेहरिस्तें निकलने लगेंगी। लेकिन जब तक कुछ करने या पानी बचाने के लिए अमलीजामा पहनाने के लिए दौड़ते कागजी घोड़े थमेंगे, तब तक बारिश निकल चुकी होगी। यह हकीकत है। बस इन्हीं दिखावे या औपचारिकताओं ने पेयजल की किल्लत को और बढ़ाया है। नए हिमखण्डों के लिए उचित वातावरण नहीं है। जो बचे हैं वे पर्यावरण असंतुलन से पिघल रहे हैं। पृथ्वी पर 150 लाख वर्ग कि.मी. में करीब 9-10 प्रतिशत हिमखंड बचे हैं। गैस चैम्बर बनते महानगर, झील से सड़कों तक फैलता कैमिकल झाग, सूखे तालाब, लापता होते पोखर, समतल होते सूखे कुएं, उसके बावजूद प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, खासकर भारत में बड़ी चिन्ता का विषय है।

कभी सोचा है कि लगातार बीमार हो रही धरती को सेहतमंद बनाने और उसके स्वस्थ जीवन के लिए पहाड़, जंगल, नदी, तालाब, पोखर बचाना, उन्हें जिन्दा रखना कितना जरूरी है? दुनिया के विकसित और विकासशील देशों में इसको लेकर बस चिन्ताएं दिखती हैं, लेकिन भारत में पर्यावरण प्रदूषण को लेकर कितनी ईमानदार कोशिशें की जा रही हैं यह भी खुली आंखों से दिखता है। अब वक्त आ गया है, जब एक कॉमन एजैण्डा होना चाहिए, जहां राजनीति के बराबर प्रकृति के हालातों पर भी बहस हो और परिणाम दिखें। फिलहाल तो हर रोज हमारी धरती, हमारा आसमान प्रदूषण के नए-नए दंश झेल रहा है। डर बस इतना है कि कहीं आसमान का फेफड़ा पूरा फट न जाए और धरती का कलेजा सूख-सूख कर सिकुड़ न जाए!-ऋतुपर्ण दवे
 


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