क्या हमारे नेताआें में ‘आलोचना’ सहने की क्षमता नहीं

punjabkesari.in Wednesday, Jul 01, 2020 - 05:14 AM (IST)

एक सभ्य राष्ट्र का बुनियादी सिद्धांत होता है कि युद्ध के समय में राजनेता एकजुटता का प्रदर्शन करें और राष्ट्र के नेता का समर्थन करें। पूर्वी लद्दाख में गलवान घाटी, पेंगौंग त्सो, बेसांग और वाई जंक्शन आदि में चीनी अतिक्रमण के बारे में कांग्रेस और भाजपा के बीच चल रही नकारात्मक तू-तू, मैं-मैं ने इस सिद्धांत को पलट कर रख दिया है। 

प्रधानमंत्री मोदी अपने कार्यकाल की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं और उनकी सरकार चीन के खतरे द्वारा उत्पन्न कठिन चुनौती का सामना करने के लिए रणनीति बनाने में व्यस्त है। किंतु हताश कांग्रेस इससे राजनीतिक लाभ प्राप्त करना चाहती है और वह भाजपा सरकार पर आरोप लगा रही है कि वह चीन द्वारा भारतीय भूभाग पर कथित कब्जे से ध्यान हटाने के लिए धोखे का खेल खेल रही है।

कांग्रेस ने भाजपा और चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के साथ अतीत के संबंधों के उदाहरण भी दिए हैं और मोदी की नीति पर प्रश्न उठाया है कि चीनी प्रशासन के साथ उनकी पार्टी की मैत्री से भारत का क्या लाभ हुआ। गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने चीन की चार बार और प्रधानमंत्री के रूप में पांच बार यात्रा की और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को तीन बार भारत बुलाया और पिछले छह वर्षों में उनकी 18 मुलाकातें हुईं। 

कांग्रेस ने यह भी कहा कि जब मोदी और शी जिनपिंग साबरमती के तट पर झूला झूल रहे थे तो चीन लद्दाख की चुमार घाटी में अतिक्रमण कर रहा था और जब चीन पीछे हटा तो उसने कुछ शर्तें रखीं और हम उन शर्तों को मानने के लिए सहमत हुए। उसके बाद 2017 में डोकलाम गतिरोध देखने को मिला और उसके बाद डोकलाम में चीन द्वारा बड़े पैमाने पर निर्माण की खबरें आ रही हैं। जब 2014 में भाजपा सत्ता में आई और नवंबर में पार्टी ने अपने 13 सांसदों और विधायकों को चीन की यात्रा पर भेजा ताकि दोनों देशों के सत्तारूढ़ दलों के बीच संबंध मजबूत हों और वे चीन की राजनीति प्रणाली का अध्ययन कर सकें। कांग्रेस ने संघ पर भी प्रश्न उठाया कि चीन का ग्लोबल टाइम्स एेसा क्यों कह रहा है कि चीन को मोदी जी के साथ कार्य करने में आसानी है। 

कांग्रेस ने यह भी पूछा कि क्या जनवरी 2011 में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष भाजपा के एक शिष्टमंडल के साथ चीन यात्रा पर नहीं गए थे और वहां पर व्यापक विचार-विमर्श नहीं किया था। क्या यह विचार-विमर्श भारत विरोधी था? क्या यह सही नहीं है कि 2009 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अरुणाचल प्रदेश और तिब्बत के रणनीतिक मुद्दों पर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्यों के साथ विचार-विमर्श किया था और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तो एक राजनीतिक दल भी नहीं है। 

2008 में भाजपा ने एक चीनी शिष्टमंडल की मेजबानी की थी। कांग्रेस ने प्रधानमंत्री को यह स्मरण कराया कि उन्हें अपने शब्दों के प्रभाव के बारे में सजग रहना चाहिए और चीन को उनके शब्दों का प्रयोग अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए नहीं करने देना चाहिए। कांग्रेस ने यह भी पूछा कि चीन के विरुद्ध जवाबी कार्रवाई करने अैर गलवान घाटी में खोए अपने भू-भाग को वापस लेने की तैयारी करने के बजाय सरकार अपनी सामरिक भूलों को छुपाने के लिए कांग्रेस को निशाना बना रही है। 

इसका प्रत्युत्तर भाजपा ने यह कहकर दिया कि कांग्रेस और चीन के बीच गोपनीय संबंध हैं। कांग्रेस चीन से पैसा लेती है और फिर एेसे मुद्दों पर अध्ययन कराती है जो देश के हित में नहीं हैं। कांग्रेसनीत संप्रग के शासनकाल में 2006 में गांधी परिवार द्वारा संचालित राजीव गांधी फाऊंडेशन ने चीनी गणराज्य और चीनी दूतावास से 3 लाख डालर प्राप्त किए और इस पैसे का उपयोग भारत और चीन के बीच मुक्त व्यापार समझौते का अध्ययन करने के लिए किया और फिर इस अध्ययन के बाद सुझाव दिया गया कि एेसा मुक्त व्यापार समझौता भारत के लिए लाभप्रद होगा। 

भाजपा ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर भी आरोप लगाया है कि उन्होंनेे भारत के सैंकड़ों वर्ग कि.मी. क्षेत्र को चीन को दे दिया और उनके कार्यकाल के दौरान 2010 से 2013 के बीच चीन ने 600 बार अतिक्रमण किया। एक परिवार की भूल के कारण देश को 43 हजार वर्ग किमी भू-भाग को खोना पड़ा। प्रश्न उठता है कि सरकार द्वारा उठाए गए कदमों, खुफिया तंत्र की विफलता और कुशलता के बारे में प्रश्न उठाने या सरकार की आलोचना करना देशद्रोह कैसे हो सकता है। क्या हमारे नेताआें में आलोचना सहने की क्षमता नहीं है? क्या हमारे नेता आलोचना से बचते हैं? क्या वाद-विवाद किसी व्यक्ति की देशभक्ति का पैमाना बनना चाहिए और क्या राष्ट्रवाद के नाम पर आलोचना को नकार देना चाहिए? 

कांग्रेस जिसने देश पर 70 वर्षों तक राज किया है उसे संयम से काम लेना चाहिए था क्योंकि कांग्रेस जानती है कि देश के सर्वोत्तम हित में सरकार ही कार्य कर सकती है। मोदी सरकार भी दोषी है। विपक्ष को खतरे की गंभीरता के बारे में जानकारी देने की बजाय वह धारणा प्रबंधन में लगी हुई है। क्या सरकार इस बात से डरी हुई है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के बारे में कोई भी प्रश्न या आलोचना को राष्ट्रीय खतरा माना जाए। सरकार को आलोचना को आलोचना के भाव से लेना चाहिए और प्रत्येक प्रश्न को राष्ट्र विरोधी नहीं मानना चाहिए। वाद-विवाद और असहमति लोकतंत्रों की कसौटियां हैं। इसलिए अलग-अलग विचारों का सम्मान किया जाना चाहिए, किंतु राष्ट्रीय सुरक्षा की कीमत पर नहीं क्योंकि इससे खतरे का सामना करने में राष्ट्रीय संकल्प कमजोर होता है और रक्षा सेनाआें का मनोबल गिरता है जबकि सीमा पर विस्तारवादी शक्ति अपने फन फडफ़ड़ा रही है।-पूनम आई कौशिश


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