कहीं फिर से घरों को कुंडी न लग जाए

punjabkesari.in Saturday, May 08, 2021 - 03:59 AM (IST)

अंग्रेजी का एक फ्रेज है ‘डिफेनिंग साइलैंस’  यानी बहरा करने वाली शांति। 103 साल पहले एक ऐसी ही महामारी ‘स्पेनिश लू’ जिसे भारत में ‘ब बइया बुखार’ के नाम से जाना जाता था, ने दुनिया में करीब पांच करोड़ लोगों को लील लिया जिनमें कम से कम एक-तिहाई भारत के थे। 1990वें दशक तक के बुजुर्ग बताते थे कि जब किसी गांव में कोई एक, कुछ या पूरा परिवार मर जाता था तो कोई रोता नहीं था बल्कि चुपचाप घर को कुंडी लगा दी जाती थी। 

संन्यासियों के जत्थे गांवों में आते थे और चढ़ी हुई कुंडी को संकेत समझ कर चुपचाप घर से लाश उठा कर अंतिम क्रिया के लिए ले जाते थे। कोई परिजन साथ नहीं जाता था। आज कोरोना में जब कोई बीमार पड़ रहा है तो उसे मालूम है कि शहर के अस्पताल में उसका इलाज नहीं हो पाएगा क्योंकि न तो बैड है, न दवा, न डाक्टर, न ऑक्सीजन। 

भारतीय जब निराश होता है तो भविष्य ईश्वर पर छोड़ देता है यह मानते हुए कि उसने ही तो यह दर्द दिया है। इसमें काढ़ा, पूजा, प्राचीन जड़ी-बूटियां, हवन के सहारे पूरा परिवार घटते ऑक्सीजन लैवल के बावजूद ईश्वर पर आस्था बनाए रहता है। अगर अंतिम सांस ली तो ‘हरी इच्छा’, बच गया तो ‘ऊपर वाले का असं य आभार’। अध्यात्म में पाई जाने वाली व्यक्तिगत ट्रांस का शायद यह सामूहिक प्रकटीकरण है। गालिब ने भी इसी स्थिति के लिए कहा था। ‘मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसां ही गई’। वायरस, रेमडेसिविर, डाक्टर, अस्पताल, बैड और ऑक्सीजन, सरकार के बारे में सोचने से ऊपर उठ जाते हैं व्यक्ति या परिवार, गांव। 

भावना पर तर्क भारी
जिनके साथ रोज का उठना बैठना था वह जब कल चला गया तो अंतिम यात्रा पर बचा इक्का-दुक्का खून के रिश्ते वाला यह देखता है कि कौन आया, किसने कॉल या एस.एम.एस. का सहारा लिया। न तो यात्रा रुकती है, न ही कोई निकट संबंधियों के प्रति विषाद पनपता है क्यों उसके यहां भी जब यही कुछ हुआ तो इधर से केवल तीन अक्षरों का ‘आर.आई.पी.’ (उनकी आत्मा को शांति मिले) का एस.एम.एस. ही गया था। 

रिश्ते जान से बड़े नहीं होते, खासकर तब जब मनुष्य को संक्रमण की प्रकृति के बारे में सोचने का समय मिल जाए। ‘लुसितानिया’ के मुकाबले ‘टाइटैनिक’ के डूबने पर बचने वाले यात्रियों में महिलाओं का प्रतिशत ज्यादा था क्योंकि टाइटैनिक बड़ा जहाज था और देर से डूबा। लिहाजा यात्रियों को सोचने का समय मिला तो उन्होंने सबसे पहले बच्चों और महिलाओं को लाइफ बोट में सुरक्षित किया। लेकिन उसमें संक्रमण का डर नहीं था। कोरोना ने अपनी प्रकृति बदल कर यह सुनिश्चित किया कि कोई भी सेवा करे, संक्रमण तो लेकर जाएगा ही और वापस घर ही लौटेगा। लिहाजा अब शव के साथ परिजन भी कम ही जाते हैं। 

कोरोना संकट में हाल के कुछ दिनों में सबसे बड़ा शिकार बने उत्तर भारत के एक राज्य के मु यमंत्री ने इसी ह ते एक आदेश जारी किया है कि गायों व मवेशियों के लिए एक हैल्प डैस्क बनाया जाए और उनके इलाज के लिए ऑक्सीमीटर और थर्मल स्कैनर आदि की व्यवस्था की जाए। 

इस राज्य की सरकार को कोरोना से मौतों और चिकित्सा सुविधा की अनुपलब्धता के आंकड़े छुपाने के लिए हाईकोर्ट कई बार फटकार लगा चुका है। यहां तक कि एक सुनवाई के दौरान जब सरकारी वकील ने बैड्स की उपलब्धता के आंकड़े पेश किए तो बैंच ने उसी समय कई अस्पतालों में, जहां सरकारी पोर्टल पर दर्जनों बैड्स खाली दिखाए गए थे, फोन करवाया तो जवाब मिला ‘यहां कोई बैड खाली नहीं है’।

एकल नेतृत्व के खतरे भारतीय समाज भावुक है। वह एक नेता चुनता है और उसी पर अपना सारा प्यार उंडेलता है। पर इससे उभरे एकल नेतृत्व का खतरा यह होता है कि नेता को  केवल कर्णप्रिय सत्य बताने वाली खिड़कियां ही खुलती हैं। अप्रिय सत्य बताने वाली खिड़कियां या तो स्वत: बंद हो जाती हैं या कर दी जाती हैं। 

प्रधानमंत्री पश्चिम बंगाल की अपनी 18 जनसभाओं में से एक-बारासत विधानसभा क्षेत्र में अपने भाषण में कह रहे थे ‘‘जैसे-जैसे चुनाव परिणाम का दिन नजदीक आ रहा है, दीदी की बेचैनी  (फ्रस्ट्रेशन) बढ़ती जा रही है। अब वह मेरे ‘दीदी-ओ-दीदी’ कहने पर भी गुस्सा करने लगी हैं जबकि बंगाल का बच्चा-बच्चा भी अब यही कहने लगा है।’’

प्रधानमंत्री की तीनों धारणाएं गलत थीं। परिणामों ने बताया फ्रस्ट्रेशन किसको था। ‘दीदी-ओ-दीदी’ को बंगाल की जनता ने स्तरहीन और पद की गरिमा के प्रतिकूल माना और बच्चों तक में यह भाजपा के खिलाफ नाराजगी का सबब बना। पार्टी का प्रत्याशी न केवल उस विधानसभा से हारा बल्कि प्रधानमंत्री द्वारा संबोधित 18 विधान-सभा क्षेत्रों में से 10 टी.एम.सी के पक्ष में गए। लगभग तीन-चौथाई बहुमत आंधी होती है जो भाजपा और उसका एकल नेतृत्व देख नहीं सका। 

सूत्र के कारण मोदी मुगालते में
सरकार ने अक्तूबर में देश की बड़ी संस्थाओं के वैज्ञानिकों का एक दल बनाया जिसने एक सुपर-गणितीय मॉडल ‘सूत्र’ तैयार किया। महीने के अंत में प्रधानमंत्री कार्यालय को दी गई रिपोर्ट में कहा गया कि, ‘‘कोरोना अवसान पर है और फरवरी तक यह देश से पूरी तरह खत्म हो जाएगा।’’ यही कारण है कि प्रधानमंत्री ने अपने देवास संबोधन में दुनिया के नेताओं को बताया कि भारत से कोरोना-गायब ही नहीं हो चुका है बल्कि दुनिया को टीका देने में विश्वगुरु भी होने जा रहा है। लेकिन सरकार द्वारा नियुक्त 10 संस्थाओं के कंसोॢटयम ‘इन्साकाग’ की मार्च के प्रथम सप्ताह में आई रिपोर्ट ने ‘दूसरी कोरोना लहर’ की बात चीख-चीख कर कही पर एकल नेतृत्व की खिड़कियां बंद थीं या अति-आत्ममुग्धता में इसका संज्ञान नहीं लिया गया। 

भारतीय समाज समय बीतने के साथ अपने नेता में देवत्व देखने लगता है। और देव न तो पराजित होता है न ही गलती करता है। लिहाजा भाजपा नेतृत्व द्वारा सब कुछ करने के बाद भी पश्चिम बंगाल में अप्रत्याशित परिणाम आने से नेतृत्व की अजेयता के प्रति लोगों के विश्वास को झटका लगा और जब उनके नाते-रिश्तेदार सड़कों पर ऑक्सीजन, उपचार और दवा के बिना मरने लगे तो उनकी नेतृत्व के प्रति भक्ति-निष्ठ श्रद्धा जाती रही। वर्तमान नेतृत्व को अप्रिय सत्य की खिड़कियां खोलनी होंगी।-एन.के.सिंह
 


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