क्या 1969 के बाद भारतीय राजनीति में ‘बाहरी प्रभाव’ आया

punjabkesari.in Saturday, Feb 20, 2021 - 04:01 AM (IST)

इस फरवरी में अब्दुल गफ्फार खान जिन्हें बादशाह खान के नाम से भी बुलाया जाता है, के 130वें जन्मदिन को भूलने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं था। जब वह इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में दोनों राजनीतिक शिविरों में अतिथि के रूप में 1 वर्ष के चिकित्सीय मिशन पर आए थे तब मैं उनका प्रैस सचिव था। 

अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली आज खुद को रचने की कोशिश कर रही है। पश्तून नेता की यात्रा के दौरान ये तेजी से विभाजित हो रहा था। जिस तरह भारत क्षेत्रीय खेल के लिए सलामत था उसी तरह वह परिस्थितियों के बल पर नए क्षेत्रीय समुद्री डाकुओं का हिस्सा बन जाएगा। 18 जुलाई, 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1945 में शुरू हुए शीत युद्ध के हिस्से के रूप में विश्व व्यवस्था का हिस्सा बना। 

पाकिस्तान को सोवियत संघ के खिलाफ सैन्य गठजोड़ जैसे बगदाद संधि और सैंटो में शामिल किया गया था। इसके साथ-साथ तेल के औद्योगिक उत्पादन को फारस की खाड़ी में सुरक्षित किया जाना था। भारत को एक उदार लोकतांत्रिक राजनीतिको सुरक्षित रखने के लिए विस्तृत कार्य हेतु सम्मानित किया गया। जो कम्युनिज्म और माक्र्सवाद जैसे नापाक विचारों को एक ढलान पर रखेगा।  सत्ता के शुरूआती दिनों में कांग्रेस पार्टी द्वारा अर्बन नक्सलियों जैसे विचार का कच्चा संस्करण आगे बढ़ाया गया। 

याद करें कि कैसे कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में (पंडित नेहरू तब प्रधानमंत्री थे) इंदिरा गांधी ने केरल में बैलेट बॉक्स द्वारा चुनी गई दुनिया की पहली कम्युनिस्ट सरकार को खारिज करने के लिए राष्ट्रपति शासन लगाया। ई.एम.एस. नम्बूद्रीपाद सरकार को 1957 में वोट दिया गया था। इंदिरा गांधी ने सड़कों पर विरोध प्रदर्शन करने के लिए अमरीकी राजदूत एल्सबर्थ बंकर की मदद मांगी थी ताकि इस सरकार को बदनाम किया जा सके। राष्ट्रपति शासन लागू करने तथा सरकार को बर्खास्त करने के लिए सरकार को बहाना मिल जाए। कोलम्बिया विश्वविद्यालय के एक पॉडकॉस्ट में बंकर ने इस बात का खुलासा किया था। 

यह बात मुझे 1969 में बादशाह खान की यात्रा पर ले गई जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और जो उन्होंने केरल में एक दशक पहले किया उसके विपरीत उन्होंने वैचारिक रूप से काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने कांग्रेस पार्टी को दो-फाड़ कर दिया। पूंजीपतियों के करीब रह रहे पार्टी के मालिकों को दूर कर दिया गया तथा बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। टाइम्स लंदन के संवाददाता पीटर हैजलहस्र्ट ने इंदिरा गांधी को संक्षिप्त रूप में अभिव्यक्त किया। उन्होंने लिखा कि ‘‘वह स्वयं के स्वार्थ के लिए वामपंथी है।’’ 

तथ्य की बात के रूप में इंदिरा गांधी इस स्तर पर वाम दलों के लिए थोड़े से अधिक आगे चली गईं। उनके मंत्रिमंडल में कम्युनिस्ट पार्टी का कार्ड ले जाने वाले सदस्य मोहन कुमार मंगलम जिन्होंने ऐटन और कैम्ब्रिज में शिक्षा हासिल की थी, शामिल थे। इंदिरा गांधी के ऊपर उन्होंने प्रभाव छोड़ा। उन्होंने वह चीज स्थापित की जिसे कुमारमंगलम थिसिस के तौर पर जाना जाता है। 

सी.पी.आई. के अध्यक्ष एस.ए. डांगे ने लोकसभा में संख्या में कमी के लिए इंदिरा गांधी से हाथ मिलाया। सी.पी.आई. ने इसे ‘एकता और संघर्ष’ की नीति बताया। बाईं तरफ जाने वाली यह करवट अपनी चरम सीमा पर पहुंच गई जब सोवियत सलाहकारों ने नई दिल्ली के 1971 के बंगलादेश आप्रेशन में मदद की। इस आप्रेशन में सोवियत रूपरेखा एक मुख्य कारण बन गई जिसने निगरानी के लिए बंगाल की खाड़ी में निक्सन-किसिंगर के आदेश के तहत छठे बेड़े को भेजा। जैसे-जैसे लैफ्ट के साथ इंदिरा गांधी का सुविधा का स्तर बढ़ता गया तो शक्तिशाली कांग्रेस पार्टी के नेताओं, जिन्हें इंदिरा गांधी द्वारा निष्कासित किया गया, ने कट्टरपंथी विरोधी कम्युनिस्टों, कांग्रेस विरोधी, हिन्दू राष्ट्रवादी जैसे लोगों के साथ हाथ मिला लिया जिनका नेतृत्व जय प्रकाश नारायण ने किया। इसे सम्पूर्ण क्रांति के लिए बिहार आन्दोलन के रूप में जाना जाता है। 

वास्तव में 1968 और 1970 के उभार सबसे अहम थे जिसमें प्राग सिप्रिंग, वियतनाम, मार्टिन लूथर किंग की हत्या तथा रॉबर्ट कैनेडी की हत्या शामिल है। घाव देने वाली यह घटनाएं क्रमानुसार कांग्रेस के दो-फाड़, नवनिर्माण आन्दोलन (गुजरात) तथा बिहार में जे.पी. आन्दोलन के समीप थीं। हालांकि बिहार आन्दोलन ने खुद को भ्रष्टाचार विरोधी के रूप में पेश किया लेकिन इसका मुख्यरूप से केन्द्र और राज्य में सत्ता परिवर्तन था और बिहार में लैफ्ट विरोधी ताकतों को लाभ देना इसका उद्देश्य था जहां पर कम्युनिस्टों तथा लैफ्ट ने कांग्रेस-आई (आई का मतलब इंदिरा) को झुका दिया और अपनी शक्ति बरकरार रखी। 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू किया। 

पड्यंत्र सिद्धांतकारों ने दक्षिणपंथी साजिश को आगे बढ़ाया। इंदिरा गांधी सीधे ही आपातकाल के बाद चुनावों में चली गई जिसके बारे में ई.एन. धर जैसे सहयोगियों ने उन्हें आरम्भ करने का परामर्श दिया। यह चुनाव 1977 में आयोजित हुए और जनता पार्टी सत्ता में आई। इसमें जे.पी. के बैनर के तले भाजपा के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी तथा लालकृष्ण अडवानी शामिल थे। अपने छोटे से राजनीतिक निर्वासन में रहने के दौरान इंदिरा गांधी ने भारतीय राजनीति में विदेशी हाथ होने के बारे में कहा। विदेशी हाथ होने की बात  से प्रेरित स्वतंत्र पार्टी नेता पीलू मोदी ने लोकसभा में एक पोस्टर लहराया जिस पर लिखा था ‘मैं सी.आई.ए. एजैंट हूं’। शीतयुद्ध के साथ भारतीय स्वतंत्रता का संयोग हुआ। बाहरी तथा अंदरूनी के बीच निरंतर परस्पर क्रिया आलेख में लिखी गई। ऐसी ही चीजें जो ट्रम्प के शासन के दौरान देखी गईं अब बाइडेन के शपथ ग्रहण के साथ फिर से आकार ले रही हैं।-सईद नकवी
        


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