उपायों के बावजूद अभी और गिर सकता है रुपया

punjabkesari.in Monday, Jul 11, 2022 - 05:56 AM (IST)

अमरीकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया ऐतिहासिक रूप से कमजोर हुआ है, लेकिन अस्थिरता के दौर कभी भी खतरे की घंटी बजाने में विफल नहीं होते। इस बार वे विशेष रूप से जोरदार हैं। 6 जुलाई को रुपया 79.3 प्रति डॉलर तक गिर गया, इस वित्तीय वर्ष में अब तक इसमें 5 प्रतिशत से अधिक की गिरावट आई है। 

बाहरी भेद्यता मुख्य रूप से हमारे चालू खाता घाटे (सी.ए.डी. या कैड), अल्पकालिक विदेशी ऋण और विदेशी मुद्रा कवर के आकार से मापी जाती है। एक ‘झटका’ प्रणालीगत रूप से महत्वपूर्ण केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दर में तेज वृद्धि का रूप ले सकता है, जैसे कि यू.एस. फैडरल रिजर्व, भू-राजनीतिक विकास, तेल की कीमत में उतार-चढ़ाव, या एक वित्तीय संकट, ये सभी एक जोखिम-बंद परिदृश्य बनाते हैं, जिसके कारण उभरते बाजारों से पूंजी उड़ान (और मुद्रा में अस्थिरता) होती है। पिछले 2 दशकों में हमने 3 बड़े झटके देखे हैं- 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट (जी.एफ.सी.), 2013 का ‘टेपर टेंट्रम’ और वर्तमान में चल रही अत्यधिक जटिल वैश्विक उथल-पुथल। इनमें से प्रत्येक घटना में भेद्यता-सदमे की रूपरेखा हमें क्या बताती है? 

जी.एफ.सी. के दौरान, भारतीय अर्थव्यवस्था कम कमजोर थी। इससे 4 साल पहले, भारत में 7.9 प्रतिशत की औसत से मजबूत आर्थिक वृद्धि हुई थी। एक साल पहले की अवधि (वित्तीय वर्ष 2007-08) में हमारे पास सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का 1.3 प्रतिशत का कम कैड था, भले ही मुद्रास्फीति कुछ हद तक 6.2 प्रतिशत तक ऊंची थी। लेकिन बड़े झटके को देखते हुए 2008-09 में रुपए में औसतन 14 प्रतिशत की गिरावट आई। इसके विपरीत, टेपर टैंट्रम के दौरान भारत की घरेलू भेद्यता बहुत अधिक थी, जब फैड के अपनी संपत्ति की खरीद को कम करने के मात्र संकेत से रुपए पर चढ़ाई शुरू की। 

मुद्रास्फीति बढ़ रही थी (2013-14 में 9.3 प्रतिशत), आयात कवर कम था और कैड एक साल पहले की अवधि में सकल घरेलू उत्पाद के 4.8 प्रतिशत के उच्च स्तर को छू गया, जिससे भारत अर्थव्यवस्थाओं के ‘कमजोर पांच’ समूह का हिस्सा बन गया। डॉलर सूचकांक में मजबूती के साथ, ये 2013-14 में रुपया-डॉलर विनिमय दर में 11.1 प्रतिशत की गिरावट का कारण बना। 

कई दशक की उच्च मुद्रास्फीति से निपटने के लिए फैड की आक्रामक दर वृद्धि ने अमरीका और भारत जैसे उभरते बाजारों के बीच ब्याज अंतर को कम कर दिया, जिससे विदेशी फंड का बहिर्वाह हुआ है। कच्चे तेल की कीमतें 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर अस्थिर बनी हुई हैं, जो आयात बिल में बढ़ोतरी और भारत में मुद्रास्फीति के आयात का कारण बनी हैं। भेद्यता के मोर्चे पर, भारत टेपर टेंट्रम के दौरान की तुलना में थोड़ा बेहतर है। 

अर्थव्यवस्था कोविड से उबर रही है, हमारे विदेशी मुद्रा भंडार और आयात कवर अपेक्षाकृत सहज हैं, बाहरी ऋण कम है और कैड पिछले वित्त वर्ष में सौम्य (जी.डी.पी. का 1.2 प्रतिशत) था। इसलिए, वैश्विक झटके की विशिष्टता और आकार के बावजूद, संकट के प्रति हमारी कम भेद्यता और भारतीय रिजर्व बैंक (आर.बी.आई.) के हस्तक्षेप ने हमारी मुद्रा के तेज मूल्यह्रास को रोक दिया है। 

चालू खाते और रुपए पर दबाव कम करने हेतु भारत सरकार ने हाल ही में अपने आयात की घरेलू मांग को कम करने के लिए सोने पर उच्च सीमा शुल्क की घोषणा की। मौद्रिक नीति में भी दखल दिया गया है। आर.बी.आई. ने मुद्र्रास्फीति से निपटने के लिए ब्याज दरों में बढ़ोतरी की है, जिससे उस गति को धीमा करने में मदद मिलनी चाहिए, जिस पर अमरीका और भारत के बीच ब्याज दर अंतर कम हो रहा था। यह रुपए को समर्थन देने के लिए हाजिर और वायदा बाजारों में भी हस्तक्षेप कर रहा है। 

ब्याज दर प्रणाली और प्रत्यक्ष विदेशी मुद्रा बाजार के हस्तक्षेप के अलावा, आर.बी.आई. ने गत बुधवार को विदेशी निवेशक फंड आकॢषत करने, वैधानिक आरक्षित आवश्यकताओं से विदेशी मुद्रा जमा को छूट देने, प्रेषण के प्रावधानों को आसान बनाने, सरकारी प्रतिभूतियों में अधिक अल्पकालिक विदेशी पोर्टफोलियो निवेश की अनुमति देने और बाह्य वाणिज्यिक उधार के लिए निवेश सीमा बढ़ाने के उपायों की घोषणा की। इन परिवर्तनों का उद्देश्य हमारी डॉलर की आपूर्ति में सुधार करना है। यह ऐसे समय में है जब आर.बी.आई. के प्रत्यक्ष बाजार हस्तक्षेप ने इसके बड़े विदेशी मुद्रा बफर (25 फरवरी को 631.5 अरब डॉलर से 24 जून को 593.3 अरब डॉलर) के एक हिस्से को उड़ा दिया है। 

तेज मूल्यह्रास के पिछले 2 घटनाक्रम हमें बताते हैं कि जहां रुपए ने अपने दीर्घकालिक रुझान में डॉलर की तुलना में नीचे गोता लगाया, वहीं जोखिम कम होने के बाद इसमें सुधार भी हुआ। हालांकि, आज की स्थिति कहीं अधिक जटिल है। जब तक अंतॢनहित कारक स्थिर नहीं हो जाते, तब तक और अस्थिरता और मूल्यह्रास की उम्मीद की जा सकती है।-धर्मकीर्ति जोशी, अमृता घरे 


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