निरंकुश राजनीतिक दलों में लोकतंत्र? क्या आप मजाक कर रहे हैं

punjabkesari.in Wednesday, Sep 22, 2021 - 05:02 AM (IST)

यह हमारी घिसी-पिटी राजनीति के बारे में आत्मावलोकन, सच्चाई जानने, और सबक लेने का समय है, जिसमें लगता है कि पुरानी व्यवस्था बदल कर नई व्यवस्था को जन्म दे रही है किंतु फिर भी कोई बदलाव नहीं होता। हमारे राजनीतिक दलों में राष्ट्रीय नेताआें के पास शक्तियों का केन्द्रीयकरण है। पाॢटयों में राष्ट्रीय नेताओं की तूती बोलती है और जब मुख्यमंत्री बदलते हैं तो हमें हाईकमान संस्कृति देखने को मिलती है, जिसके चलते राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र समाप्त होता जा रहा है। 
पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में चरणजीत सिंह चन्नी की नियुक्ति इस क्रम में उदाहरण है जो बताता है कि कांग्रेस में सोनिया, राहुल, प्रियंका की तिकड़ी अभी भी प्रभावशाली है और उन्हीं की चलती है। यहां तक कि बहुप्रचारित और अनुशासित भाजपा का भी कांग्रेसीकरण हो रहा है। 

पिछले 7 महीनों में मोदी-शाह की जोड़ी ने 3 राज्यों में 4 बार मुख्यमंत्रियों को बदला। मार्च और जुलाई में उत्तराखंड में, जुलाई में कर्नाटक में और पिछले सप्ताह गुजरात में मुख्यमंत्री बदले गए। यह बताता है कि प्रधानमंत्री भाजपा में सर्वशक्तिमान नेता है और पार्टी पर उन्हीं का वर्चस्व है। क्षेत्रीय क्षत्रपों के बारे में कम ही कहा जाए तो अच्छा है। वे इस बात को मानते हैं कि आंतरिक लोकतंत्र का नंबर वंशानुगत सामंतशाही के बाद आता है। उनके लिए राजनीति पारिवारिक व्यवसाय हैै- चाहे समाजवादी पार्टी हो, जिसकी बागडोर मुलायम सिंह से उनकी आंखों के तारे अखिलेश यादव के हाथ में पहुंच गई या राजद की लालू-राबड़ी के लाल तेजस्वी हों, द्रमुक के भाई-बहन स्टालिन या कनिमोझी हों, बसपा की मायावती, तृणमूल की ममता, अब्दुल्ला की नैशनल कांफ्रैंस चौटाला की इंडियन नैशनल लोक दल, अकाली दल के बादल परिवार का बेटा-बहू सुखबीर और हरसिमरत, लोजपा के पासवान के घर का चिराग, राष्ट्रीय लोकदल के अजीत सिंह के बेटे जयंत चौधरी, राकांपा के पंवार की पुत्री सुप्रिया आदि। 

ऐसे वातावरण में सिद्धांतों, मूल्य आधारित राजनीति, आंतरिक वाद-विवाद और चर्चा को नजरंदाज किया जाता है और सब पाॢटयां केवल एक ही बात को दोहराती हैं कि सिर्फ हाई कमान ही जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिए सरकार उपलब्ध करा सकती है और इसमें देशभक्ति तथा बलिदान का तड़का भी लगाया जाता है, इस आशा के साथ कि देश की 140 करोड़ जनता उनकी इन बातों से प्रभावित होगी और उन्हें अपना आशीर्वाद देगी। अधिकतर नेता पुराने सामंतों की तरह कार्य करना चाहते हैं। पार्टी के टिकट गुणों और योग्यता के आधार पर नहीं अपितु संपर्क और संबंधों के आधार पर जो बांटे हैं। यदि आप कानून से राहत  चाहते हैं तो माई-बाप या अन्नदाता का आशीर्वाद लें। यह इस बात की पुष्टि करता है कि भारत का संसदीय लोकतंत्र एक सोच में बदल गया है। केवल बाहर से नाम के वास्ते यह लोकतांत्रिक रह गया है। 

लंबे समय से पार्टी की सेवा कर रहे कार्यकत्र्ताआें की कीमत पर हाई कमान द्वारा थोपे गए मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक और नेता हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ शकुन नहीं हैं और इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि ऊपर से थोपे गए ये नेता  पात्र हैं या नहीं, अपितु उन्हें पात्र बनाया जाता है। हर कोई अपने सही संबंधों पर निर्भर रहता है ताकि उसकी गाड़ी चलती रहे और यह सब कुछ भाईचारा है। नि:संदेह आज पाॢटयों में एक या कुछ शीर्ष नेताओं के हाथों में सत्ता के केंद्रीयकरण की प्रवृत्ति के चलते व्यक्तिगत निष्ठा सर्वाधिक महत्वपूर्ण बन गई है। हमारे राजनीतिक दल नियमित आधार पर पार्टी के भीतर निष्पक्ष और स्वतंत्र चुनाव कराने या संगठन की बैठक करवाने से कतराते हैं। साधारण कार्यकत्र्ता को पार्टी में चल रहे घटनाक्रम के बारे में पर्याप्त सूचनाएं नहीं दी जातीं।  

सभी पार्टियां भूल जाती हैं कि संविधान में प्रस्ताव है कि सरकार सामूहिक प्राधिकार या सामूहिक विवेक के आधार पर चलनी चाहिए किंतु इसके विपरीत देखने को मिलता है क्योंकि पार्टियों ने संविधान में खामियां ढूंढ लीं जो पाॢटयों और उनकी प्रकृति, विधायी निकायों के चुनावों के लिए उम्मीदवार खड़े करने की योग्यताओं आदि के बारे में मौन हैं। 

उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2002 में निर्णय दिया था कि निर्वाचन आयोग आंतरिक पार्टी लोकतंत्र के सिद्धांतों के उल्लंघन के बारे में पंजीकृत राजनीतिक दलों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई नहीं कर सकता, जिसके चलते पाॢटयों का संचालन और कार्यकरण का विनियमन करना अत्यधिक कठिन हो गया है और उनके कार्यकरण के लोकतांत्रिक बनने के आसार भी कम हो गए हैं। पार्टियों के लोकतांत्रिक कार्यकरण के अभाव के 2 मुख्य पहलू हैं। पहला, इसके नेतृत्व और संरचना का निर्धारण करने की प्रक्रिया, जिसके चलते राजनीति में भाग लेने और चुनाव लडऩे के समान राजनीतिक अवसरों के संवैधानिक अधिकारोंं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। पार्टी द्वारा शक्तियों का केन्द्रीयकरण कर उन्हें चलाना और दल-बदल रोधी कानून के कठोर प्रावधानों के कारण पार्टी नेता राष्ट्रीय या राज्य विधान मंडलों में अपनी पसंद के अनुसार मतदान नहीं कर सकते। उसकी बजाय उन्हें मतदान के दौरान पार्टी सचेतक का पालन करना होता है और एेसा न करने पर उन्हें विधानमंडल की सदस्यता के अयोग्य घोषित किया जाता है। 

जब कभी चुनाव होता भी है, जिसमें राष्ट्रीय संघटकों के सदस्य या पार्टी के निर्णय लेने वाले निकाय के सदस्य भाग लेते हैं तो उसमें पार्टी के शीर्ष नेताओं की पूर्व निर्धारित पसंद को अन्य सदस्यों द्वारा समर्थन दिया जाता है। अधिकतर पार्टियों में नेतृत्व पद का चुनाव होता ही नहीं है और उसका निर्णय सर्वसम्मति से किया जाता है। रिसर्च फाऊंडेशन ऑफ गवर्नैंस, इंडिया द्वारा पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र के बारे में कराए गए एक अध्ययन के अनुसार पार्टी नेताओं को हटाना बहुत कठिन है। पार्टी का एजैंडा तय करते समय सामान्य सदस्यों से चर्चा या परामर्श नहीं किया जाता। युवा राजनेता पार्टी के पदानुक्रम में ऊपर नहीं बढ़ सकते और परिवार के संबंधों का प्रभाव बना रहता है। राजनीतिक पाॢटयों के आंतरिक कार्यकरण में पारदर्शिता और जवाबदेही के अभाव के संसदीय लोकतंत्र के लिए गंभीर परिणाम होंगे। संविधान द्वारा प्रदत्त लोकतांत्रिक प्रक्रिया तब तक सार्थक नहीं होगी जब तक पाॢटयों में सदस्यों की भागीदारी न बढ़े। 

लोकतंत्र के लिए राजनीतिक पार्टियों के अतिरिक्त अन्य बातों की भी आवश्यकता होती है। इसके लिए एक सुदृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी आवश्यकता होती है तथा भारत को प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाने के लिए उसकी राजनीतिक पाॢटयों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का होना आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक है कि वाद-विवाद को बढ़ावा दिया जाए न कि शक्तियों का दुरुपयोग किया जाए। समय आ गया है कि सच्चे लोकतंत्र को बनाए रखा जाए और पार्टियों का लोकतंत्रीकरण तथा राजनीति में सुधार लाया जाए अन्यथा हम राजनीतिक हाई कमान के रसातल में ही पड़े रहेंगे और लोकतंत्र को अलविदा कह देंगे। विकल्प आपके समक्ष हैं।-पूनम आई. कौशिश
 


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