‘दिल्ली गुरुद्वारा चुनाव : सिख राजनीति में बढ़ी सक्रियता’

punjabkesari.in Thursday, Feb 11, 2021 - 04:27 AM (IST)

दिल्ली सरकार की ओर से अदालत को यह सूचित किए जाने के साथ ही कि वह दिल्ली गुरुद्वारा चुनाव 15 अप्रैल को करवाने जा रही है, इन चुनावों को लडऩे की इच्छुक सिख जत्थेबंदियों की सरगर्मियों में तेजी आ गई है। जहां शिरोमणि अकाली दल दिल्ली (सरना), ‘जागो’ जग आसरा गुरु ओट (जी.के.) आदि जत्थेबंदियों के मुखियों ने अपने उम्मीदवारों की सूची को अंतिम रूप देने और अपने चुनाव घोषणापत्र तैयार करने शुरू कर दिए हैं, वहीं छोटी पाॢटयों के मुखियों ने बड़ी जत्थेबंदियों के साथ चुनाव गठजोड़ करने की संभावनाएं तलाशना शुरू कर दिया है। 

उधर शिरोमणि अकाली दल (बादल) का केंद्रीय नेतृत्व इस बात का मंथन करने में जुट गया है कि क्या उसे यह  चुनाव दिल्ली गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष मनजिंद्र सिंह सिरसा के ही नेतृत्व में लडऩा है अथवा किसी अन्य प्रभावशाली मुखी की तलाश करनी है? इसका कारण यह माना जाता है कि पिछले दो (2013 और 2017 के) चुनाव बादल अकाली दल ने मनजीत सिंह जीके के नेतृत्व में लड़, रिकार्ड जीत हासिल की थी, जबकि इस बार वह (जीके) भ्रष्टाचार के कथित आरोपों के चलते पार्टी से बाहर कर दिए जाने के बाद, वह इस बार नई पार्टी ‘जागो’ का गठन कर, उसके झंडे तले उसे चुनौती देने के लिए मैदान में है। ऐसी स्थिति में बादल अकाली दल की उच्च कमान के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह यह चुनाव किसी ऐसे मुखी के नेतृत्व में लड़े जो मनजीत सिंह जीके को चुनौती दे सके। 

हालांकि इस समय दिल्ली प्रदेश अकाली दल (बादल) का नेतृत्व हरमीत सिंह कालका के हाथों में है जो दिल्ली गुरुद्वारा कमेटी के महासचिव भी हैं, इसके बावजूद माना जाता है कि प्रदेश अकाली दल की लगाम मुख्य रूप से गुरुद्वारा कमेटी के अध्यक्ष मनजिंद्र सिंह सिरसा के हाथों में है, वही उसकी नीतियां बनाते और उनका संचालन करते हैं जिसके चलते पार्टी और पार्टी के बाहर यही संदेश जा रहा है कि स. सिरसा गुरुद्वारा कमेटी और प्रदेश अकाली दल, दोनों के साधनों का इस्तेमाल अपनी छवि उभारने के लिए कर रहे हैं जिसके चलते दल के कई मुखी और गुरुद्वारा कमेटी के सदस्य दल को अलविदा कह, दूसरी पार्टियों का दामन थाम रहे हैं। 

फलस्वरूप दल का ग्राफ लगातार गिरता चला जा रहा है। माना जाता है कि यदि यही स्थिति चलती रही तो गुरुद्वारा चुनावों में बादल अकाली दल के लिए गुरुद्वारा कमेटी की सत्ता पर वापसी तो दूर रही, अपनी साख तक बचा पाना भी मुश्किल हो जाएगा। प्रदेश अकाली दल (बादल) के निकट सूत्रों के अनुसार प्रदेश अकाली दल के पूर्व अध्यक्ष अवतार हित की छवि स. सिरसा से कहीं अच्छी है। 

चुनाव से पहले सम्पत्ति घोषित करें : शिरोमणि पंथक फोरम के मुखी डा. हरमीत सिंह और कुलबीर सिंह ने कहा है कि गुरुद्वारा चुनावों के मैदान में उतरने से पहले, सभी उम्मीदवारों को पार्टी टिकट लेने के साथ ही अपनी चल-अचल सम्पत्ति की घोषणा करने के साथ ही ऐसी घोषणा हर वर्ष करने का आश्वासन देना चाहिए, जिससे उनकी साफ-सुथरी छवि होने के प्रति सिखों का विश्वास बना रह सके। 

‘खालिस्तान’ बनाम सिख मान्यताएं : दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व जज, जस्टिस आर.एस. सोढी ने समय-समय ‘खालिस्तान’ की मांग को लेकर उठते रहने वाली आवाज को सिख धर्म के मूल आदर्शों से भटक, गुमराह हो चुके कुछ सिखों की आवाज करार दिया है। उनका कहना है कि इन लोगों को न तो ‘खालसा’ की मूल परिभाषा की समझ है और न ही उनके पास ‘खालिस्तान’ से संबंधित कोई स्पष्ट नीति ही है जिससे लगता है कि वे अपने किसी स्वार्थ की पूर्ति के लिए ही खालिस्तान का राग अलाप रहे हैं। 

अकाली राजनीति का गिरता जा रहा स्तर : नकारात्मकता, अकाली राजनीति का एक ऐसा अटूट, ‘दुखांत’ बन गया है कि उससे किसी भी अकाली दल के नेतृत्व को मुक्ति नहीं मिल सकती। यह दावा एक वरिष्ठ टकसाली अकाली नेता ने निजी बातचीत में किया। उन्होंने स्वीकार किया कि हालांकि आज के समूचे राजनीतिक क्षेत्र में ही कुछ ऐसी स्थितियां बन गई हुई हैं कि नकारात्मकता की इस दलदल भरी राजनीति में न केवल अकाली दल, अपितु देश की दूसरी भी लगभग सारी ही राजनीतिक पाॢटयां ही बुरी तरह फंस चुकी हैं। उनका कहना था कि अकाली राजनीति में इस नकारात्मकता का प्रवेश इस कारण चुभता है, क्योंकि इसकी स्थापना एक राजनीतिक पार्टी के रूप में नहीं की गई थी अपितु इसकी स्थापना का उद्देश्य धार्मिक संस्थानों का प्रबंध सुचारू रूप से चलाने और धार्मिक संस्थाओं में धार्मिक मान्यताओं, मर्यादाओं और परम्पराओं को बहाल रखने में सहयोग करना निश्चित किया गया था परन्तु नकारात्मकता का शिकार हो वह अपने आदर्श से भटक गया।

...और अंत में : कुछ दिन हुए अजमेर सिंह लिखित पुस्तक ‘किस बिध रुली पातशाही’ पढऩे को मिली, उसमें एक स्थान पर सत्ता में आने पर मनुष्य की जो दशा होती है, उसका वर्णन करते हुए लिखा है कि ‘जब कोई व्यक्ति समाज में विशेष दर्जा हासिल कर लेता है और इसके फलस्वरूप विशेष अधिकार और सुख-सुविधाओं का आनंद भोगने लगता है तो उसके अंदर से धीरे-धीरे कौमी भाईचारे की भावना दम तोडऩे लगती है। वह कौमी हितों से अपने निजी हितों की प्रमुखता देने की कुरुचि का शिकार हो जाता है। सत्ता की लालसा ने सिखों को कहां से कहां पहुंचा दिया, इसका वर्णन करते हुए लिखा है, ‘खालसे के अंदर आपसी प्यार और सहयोग की भावना कमजोर पड़ गई, इसकी जगह आपसी विरोधों, शंकाओं और जलन ने ले ली। खालसे की संगठित भावना निजवाद और अहम ने निगल ली।’

इसी प्रकार प्रि. सतबीर सिंह ने ‘सिख राज कैसे गया’? सवाल का जवाब देते हुए लिखा कि ‘एक तो जिनके हाथों में ताकत आई या तो वे खरीदे गए या इतनी दूरअंदेशी के मालिक न रहे कि अंदर की बात जान सकते’, दूसरा, ‘लोग खुशहाली के कारण निष्क्रिय और लापरवाह हो गए’, तीसरा, ‘सिख, सिख का दुश्मन हो गया’, आई बिपता के समय इकट्ठा करने वाली कोई संस्था न रही। ये बातें उन विद्वानों की हैं, जो धर्म और राजनीति की आपसी सांझ में विश्वास रखते हैं और आजाद सिख-सत्ता की कायमी के समर्थक माने जाते रहे हैं।-न काहू से दोस्ती न काहू से बैर जसवंत सिंह ‘अजीत’
 


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