समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर पुन: छिड़ी बहस

punjabkesari.in Wednesday, Nov 02, 2022 - 05:17 AM (IST)

गुजरात और हिमाचल प्रदेश में शीघ्र चुनाव होने वाले हैं और कर्नाटक में अगले वर्ष चुनाव होने हैं। प्रत्येक समुदाय अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थोंे और अपने वोट बैंक को बढ़ाने के लिए पहचान की राजनीति का मुद्दा उठा रहा है। इस मौसम में गुजरात सरकार ने पिछले सप्ताह पुन: एक समान नागरिक संहिता का जिन्न खोला है। राज्य सरकार ने इसके कार्यान्वयन के लिए एक समिति का गठन किया है और चाहती है कि चुनावों से पूर्व इसे लागू किया जाए। उत्तराखंड, हिमाचल और असम के बाद ऐसा करने वाला गुजरात चौथा राज्य है। 

एक समान नागरिक संहिता, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को रद्द करना भाजपा के 2019 के लोकसभा चुनावों के घोषणा पत्र में थे, जिनमें से अयोध्या में राम मंदिर और जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को रद्द करने के मुद्दों को लागू कर दिया गया है। वस्तुत: मोदी मानते हैं कि किसी भी देश में धर्म आधारित कानून नहीं बल्कि सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून होने चाहिएं। उन्होंने ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ का विचार भी दिया है ताकि यह सुनिश्चित हो कि देश में वर्ष भर निरंतर चुनाव न हों, जिस कारण हमारी शासन व्यवस्था प्रभावित हो रही है और शासन के लिए कोई समय नहीं मिल पाता। 

एक राष्ट्र-एक राशन कार्ड, एक राष्ट्र-एक मोबिलिटी कार्ड, एक राष्ट्र-एक ग्रिड, एक राष्ट्र-एक साइन लैंग्वेज आदि को सफलतापूर्वक लागू करने के बाद अब उन्होंने एक राष्ट्र-पुलिस बलों के लिए एक वर्दी का विचार दिया है, ताकि देश में कहीं भी लोग पुलिसकर्मियों को पहचान सकें। देश के 28 राज्यों में से प्रत्येक में अपना पुलिस बल है। पुलिस बलों की आधिकारिक वर्दी में असमानता है। कोलकाता और गोवा पुलिस की वर्दी सफेद है तो पुड्डुचेरी की पुलिस लाल रंग की टोपी पहनती है तो दिल्ली पुलिस सफेद और नीली वर्दी पहनती है। 

आशानुरूप विपक्ष ने मोदी द्वारा एक राष्ट्र के मुद्दे पर बल देने की आलोचना की है। उनका मानना है कि मोदी एकरूपता पर बल दे रहे हैं और भारत की विविधता को नजरअंदाज कर रहे हैं, जबकि लोकतंत्र का उद्देश्य सुशासन होना चाहिए न कि एकरूपता। भाजपा और उसके सहयोगी दल हमेशा एक राष्ट्र के मुद्दों या एक समान नागरिक संहिता को चुनावों को ध्यान में रखकर उठाते हैं ताकि आगामी चुनावों में महंगाई और बढ़ती बेरोजगारी से निपटने में सरकार की विफलता से ध्यान हटाया जा सके। 

एक समान नागरिक संहिता का समर्थन करने वालों का मानना है कि यह सामाजिक संबंधों और हिन्दू कोड बिल तथा शरिया कानून आदि जैसे वैयक्तिक कानूनों को धर्म से अलग करता है, जो धर्म ग्रंथों और विभिन्न धार्मिक समुदायों की परंपराओं और रीति रिवाजों पर आधारित है। इसके स्थान पर वैयक्तिक मामलों जैसे विवाह, तलाक, दत्तक ग्रहण, उत्तराधिकार को शासित करने के लिए एक समान कानून लाने से विभिन्न सांस्कृतिक समूहों में सामंजस्य बनाया जा सकेगा और असमानता दूर होगी। 

इसके अलावा आधुनिक भारतीय समाज में धीरे-धीरे एकरूपता आ रही है और धर्म, समुदाय तथा जाति की परंपरागत दीवारें धीरे-धीरे टूट रही हैं। एक समान नागरिक संहिता समाज के कमजोर वर्गों और धार्मिक अल्पसंख्यकों को संरक्षण प्रदान करती है और एकता के माध्यम से राष्ट्रवादी भावना को प्रोत्साहन देती है। किंतु कहना आसान है और करना कठिन क्योंकि हमारा देश विविधतापूर्ण है और यहां अनेक धार्मिक कानून हैं, जो न केवल अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग हैं अपितु अलग-अलग समुदायों, जातियों और क्षेत्रों के लिए भी अलग हैं। 

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यह कहते हुए इस पर पहले ही आपत्ति व्यक्त कर दी है कि भारत एक बहुसांस्कृतिक और बहुधार्मिक समाज है तथा प्रत्येक समूह को अपनी पहचान बनाए रखने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। उसका यह भी कहना है कि एक समान नागरिक संहिता भारत की विविधता के लिए खतरा है और इससे धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में अतिक्रमण होगा। एक समान नागरिक संहिता को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार में अतिक्रमण के रूप में क्यों देखा जा रहा है या इसे अल्पसंख्यक विरोधी क्यों माना जा रहा हैै? यदि हिन्दू पर्सनल लॉ का आधुनिकीकरण किया जा सकता है और ईसाई रीति-रिवाजों को असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है तो फिर धर्मनिरपेक्षता की खातिर मुस्लिम पर्सनल लॉ को पवित्र क्यों माना जाता है? 

सरल शब्दों में कहें तो एक समान नागरिक संहिता में स्पष्ट प्रावधान होगा कि एक सभ्य समाज में धार्मिक और व्यक्तिगत कानूनों में कोई संबंध नहीं होगा। इसके अलावा तेजी से बदलती सुरक्षा स्थिति के मद्देनजर देश की एकता और अखंडता को सुदृढ़ किए जाने की आवश्यकता है और साथ ही विभिन्न समुदायों के लिए विभिन्न कानूनों को अस्वीकार किया जाना चाहिए। साथ ही यह किसी विशेष समुदाय के पर्सनल कानूनों को प्रभावित नहीं करता। एक समान नागरिक संहिता न केवल लिंग के आधार पर भेदभाव को दूर करेगी अपितु लिंग समानता भी स्थापित करेगी और सभी व्यक्तिगत कानूनों को मिलाकर एक सामान्य कानून बनेगा, जो सभी समुदायों और धर्मों को ध्यान में रखे बिना सभी भारतीयों पर लागू होगा। 

देश में गोवा एकमात्र ऐसा राज्य है जहां पर धर्म, ङ्क्षलग और जाति को ध्यान में रखे बिना एक समान नागरिक संहिता लागू है, जिसके अंतर्गत सभी हिन्दू, मुसलमान और ईसाइयों को विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि के मामले में एक ही कानून मानना होता है। एक समान नागरिक संहिता का मार्ग संवेदनशील और कठिन है किंतु यह मार्ग अपनाया जाना चाहिए। यदि संविधान को सार्थक बनाना है तो इस दिशा में एक पहल की जानी चाहिए। परंपराओं और रीति-रिवाजों के नाम पर भेदभाव को उचित नहीं ठहरया जा सकता। 

समानता लाने के लिए देश की जनसंख्या को विनियमित करने वाला कानून भी एक होना चाहिए। एक समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता को भी बढ़ावा देगी। इससे विभिन्न कानूनों के प्रति निष्ठाएं समाप्त होंगी क्योंकि ये कानून विभिन्न विचारधाराओं पर आधारित हैं। इस संबंध में बाबा साहेब अंबेडकर का अनुसरण किया जाना चाहिए जिन्होंने वैकल्पिक एक समान नागरिक संहिता की वकालत की थी। 

वस्तुस्थिति यह है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ने अपने-अपने धर्मों की मूल भावना को खो दिया है और धर्मान्धों और कट्टरवादियों द्वारा उन्हें गुमराह किया जा रहा है। आज पढ़े- लिखे लोग भी ऐसी भाषा बोल रहे हैं जैसी हिन्दू और मुस्लिम कट्टरवादी बोलते हैं। प्रत्येक अलोचना के संबंध में उनका एक ही उत्तर होता है कि धर्म खतरे में है। इस समस्या का समाधान क्या है? 
कुल मिलाकर किसी भी समुदाय को एक प्रगतिशील विधान के मार्ग में बाधक बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, विशेषकर तब जब यह विधान स्वैच्छिक हो और जिसके अंतर्गत किसी भी विचार या जीवन शैली को स्वेच्छाचारी ढंग से नहीं थोपा गया हो। 

समय आ गया है कि विभिन्न समुदायों के लिए विभिन्न कानूनों को अस्वीकार किया जाए और अनुच्छेद 44 को लागू कर भारत में सुधार लाया जाए। अतीत के सहारे प्रगति के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। 21वीं सदी में ऐसा नहीं होना चाहिए। कोई भी संवेदनशील मन अन्याय को जारी रखने की अनुमति नहीं दे सकता। आपका क्या मत है?-पूनम आई. कौशिश


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News