‘भीड़ का चक्रव्यूह बनाम पुलिस का मनोबल’

punjabkesari.in Monday, Feb 22, 2021 - 04:45 AM (IST)

पुलिस को कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए विभिन्न प्रकार की प्रताडऩाएं सहन करनी पड़ती हैं। अखबारों और मीडिया द्वारा पुलिस को कत्र्तव्यविहीन लोगों का समूह दिखाया जाता है। कभी पर्याप्त कार्रवाई न करने पर, कभी अपेक्षा से अधिक तो कभी सख्ती नहीं बरतने पर ऐसे अनेकों आरोप लगाए जाते हैं तथा इस प्रकार के आरोपों से पुलिस काफी आहत दिखाई देती है। यह सही है कि पुलिस में कुछ बुनियादी कमियां हैं मगर पुलिस में कत्र्तव्यनिष्ठ, ईमानदार और सत्यनिष्ठ लोगों की कमी भी नहीं है। वर्तमान परिपेक्ष्य में हमारे देश को प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था में सुचारू रूप से संचालन हेतु पुलिस प्रशासन का सुदृढ़ीकरण तथा उसकी गुणवत्ता में बढ़ौतरी करना आवश्यक है। 

इसी तरह उच्चकोटि का मनोबल एवं अनुशासन भी पुलिस के लिए महत्वपूर्ण है। मनोबल तो एक मानसिक स्थिति है जो कि एक अदृश्य शक्ति के रूप में कार्य करती है तथा जो मानव समूह को अपने मकसद की प्राप्ति हेतु अपना सर्वस्व दाव पर लगाने के लिए प्रेरित करती रहती है। इसी तरह अनुशासन भी सभ्यता और संस्कृति की पहली सीढ़ी है जोकि समाजिक व व्यावसायिक सुचारूता बनाए रखने के लिए आवश्यक है। 

यही कारण है कि एक पदाधिकारी के इशारे पर सैंकड़ों सैनिक अपनी जान की बाजी लगाकर संकटापन्न स्थिति का मुकाबला करते-करते अपने प्राणों को भी न्यौछावर कर सकते हैं। परन्तु यदि नेतृत्व कमजोर हो तो जवान भयभीत व मनोबल विहीन होकर भीड़ के सदृश्य ही हो जाते हैं। दैनिक आपराधिक गतिविधियों का संज्ञान लेने के लिए तो पुलिस के एक-दो जवान भी अपनी दी हुई जिम्मेदारी को निभाते हैं मगर भीड़ जैसी घटनाआें पर नियंत्रण रखने के लिए पुलिस को एक समूह की तरह ही काम करना पड़ता है तथा जब भीड़ हिंसक हो जाती है तब यह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न कर देती है जिसे नियंत्रण में करने के लिए साहस, शक्ति व सक्षमता की आवश्यकता होती है जिसके लिए पुलिस का सकुशल नेतृत्व अति आवश्यक होता है। 

नेतृत्वकत्र्ता का फर्ज है कि वे अधीनस्थों को वांछित प्रशिक्षण प्रदान करें तथा आम जनता के साथ अपने व्यवहार में अधिक से अधिक संवेदनशीलता लाने का प्रयास करें। यह भी देखा गया है कि ज्ञान और निपुणता, संवेदनशीलता व सामान्य व्यवहार की कवायदें प्रशिक्षण केंद्र तक ही सीमित रह जाती हैं, जबकि यह प्रक्रिया प्रशिक्षण संस्थाआें से निकलने के बाद भी जारी रहनी चाहिए। संकटमयी स्थितियों का सामना करने के लिए नैतिक साहस की ज्यादा आवश्यकता होती है तथा पुलिस नेतृत्व में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह अधीनस्थों को साहसी और सक्षम बना सके। 

दिल्ली के दंगों में कुछ एेसा ही देखा गया कि पुलिस जवानों को असहाय व लाचार अवस्था में ही छोड़ दिया गया था तथा पुलिस के पास अपनी पिटाई करवाने के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं था। शक्ति विकेन्द्रीकरण का अभाव दिखाई दे रहा था तथा आपात स्थिति में उन्हें अपने अधिकार की सीमा का पता नहीं था। एेसी परिस्थितियों में पुलिस वालों को लावारिस की तरह छोड़ देना, इस बात का द्योतक है कि एक सशक्त नेतृत्व की कमी रही जिसके परिणामस्वरूप लगभग 400 जवान जख्मी हुए। जब तक अधिकारी निम्न पंक्ति के जवानों को खुद अग्रणी होकर लीड नहीं करेंगे तब तक पुलिस की भद्द पिटती रहेगी तथा वह आम जनता के बीच उपहास का रूपक बनती रहेगी।

यह बात सच है कि पुलिस पर राजनीति का दबाव बना रहता है जिससे मुक्त होना भी आवश्यक है। मैं नहीं समझता कि कोई राजनेता पुलिस नेतृत्व को एेसी हिदायतें दे जिससे कि पुलिस वाले खुद चाहे जख्मी या शहीद हो जाएं मगर हिंसक भीड़ को खदेडऩे व आत्म सुरक्षा के लिए किसी भी प्रकार के बल का प्रयोग न करें। हां, यदि एेसे निर्देश मिलते भी हैं तो पुलिस नेतृत्व को पुलिस के गिरते मनोबल व उसके दीर्घगामी परिणामों के बारे में राजनीतिज्ञों को अवगत करा देना चाहिए। 

भीड़ का स्वरूप कई प्रकार का होता है तथा उसमें विभिन्न प्रकार के लोग शामिल होते हैं तथा कुछ अराजकता फैलाने वाले तत्व भी उसमें शामिल हो जाते हैं जिनकी पहचान करना अति आवश्यक होता है तथा उनका सामना धैर्य व साहस से ही करना होता है, नहीं तो जवानों को भारी नुक्सान उठाना पड़ सकता है। जिस तरह फौज के अधिकारी युद्ध क्षेत्र में अपने जवानों का फ्रंट से नेतृत्व करते हैं उसी तरह पुलिस अधिकारियों को अपने जवानों का नेतृत्व आगे से करना चाहिए अन्यथा जवान ऐसी परिस्थितियों में ऐसेे ही भागते हुए दिखाई देंगे। 

कुछ महीने पहले ही शाहीन बाग दिल्ली में नागरिक संशोधन एक्ट पर हुए दंगों में कई पुलिस वालों को अपनी जान गंवानी पड़ी और कई जवानों को दंगाइयों के प्रहार से गहरी चोटें सहनी पड़ीं तथा पुलिस समुदाय की एक बहुत बड़ी किरकरी हुई तथा एेसा लगता था कि पुलिस नेतृत्व कहीं न कहीं आत्मसमर्पण कर चुका है मगर एेसी घटना से भी यदि कोई सबक न सीखा जाए बल्कि हाल ही में किसान दंगों में और भी ज्यादा लाचारी दिखाई जाए तो पुलिस की छवि का धूमिल होना स्वाभाविक है। दिल्ली के एेतिहासिक लाल किले, जहां से देश के प्रधानमंत्री राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं, की रक्षा पुलिस यदि न कर सके तो उससे आम जन-मानस की सुरक्षा की क्या उम्मीद रखी जा सकती है। एेसी घटनाएं निश्चित तौर पर पुलिस की सक्रियता पर प्रश्न चिन्ह लगाती हैं।-राजेन्द्र मोहन शर्मा डी.आई.जी.(रिटायर्ड) 
 


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